Skip to main content

लो जानां, तुम्हारे लिए कुछ भी...



पानी, एक रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन पदार्थ है.  पानी को जिस बर्तन भी बर्तन में रख दो, उसका आकार ले लेता है. पानी निकाल दो, हवा उसका जगह ले लेता है. मौसम भी पानी जैसा होता है. नहीं मौसम पूरी तरह से पानी जैसा नहीं होता. यह आयतन के मामले में पानी जैसा होता है. मौसम से हमारा वातावरण कभी खाली नहीं होता. एक जाता है तो दूसरा डेरा जमा लेता है. मौसम के रंग होते है, गंध होते हैं और स्वाद भी होते हैं. और जब मौसम में रंग, गंध और स्वाद नहीं होते तो यह पानी जैसा हो जाता है. तब मौसम बेरंग, और बेस्वादी हो जाता है. बहना - बिना किसी मकसद के, फर्क के. शहर के शोर में टूटा हुआ एक दिल जैसा, बस काम काम और काम की धुन, बस चलना, चलना और चलने की जिद जैसा, पुराने किले के सर पर पीछे से पड़ता चाँद के प्रकाश जैसा जिसके आगे किले लम्बाई से अँधेरा हो. एक विरोधाभास जैसा. हम सभी अल्लाह की संतान हैं पर उंच नीच का स्थाई स्वाभाव जैसा. वैसा.

ज़हर, अमृत, विरासत, फकीरी, दुःख, सुख, ज्ञान, अँधेरा, रास्ता और रुकावटें. सभी कुछ ना कुछ छोड़ रहे हैं, कारखाना धुंआ छोड़ रही है. ... और मैं अपनी गर्ल फ्रेंड को छोड़ने एयरपोर्ट जा रहा हूँ. 

वो मुझे और इस शहर को छोड़े जा रही है. पैरों के पास काफी सामान है, कुछ सामान को सीट पर भी रखना पड़ा है.. ऑटो का रोन्ग साईड से पर्दा लगा हुआ है.  सड़क पतली है. रातरानी शाम से ही महकना शुरू कर देती है. उसकी महक से मदहोशी आने लगती है. हमारे पास एक दुसरे से  बोलने को कुछ नहीं है. दोनों के पास एक सूखता हुआ चेहरा है, हेयरपिन में फडफडाते उसके बाल हैं, बाहर घिरता अँधेरा है. गुलाबी सी ठंढ है. एक तरफ खुला रहने से उतनी समस्या नहीं है जितनी परदे से होकर आता थोड़ी थोड़ी देर में तेज़ ठंढ हवा. जैसे कम्बल में गर्म होते ही कोई दोस्त उसे बार बार खिंच ले और सारी मेहनत बेकार चली जाए. 

हम पास बैठे हैं. बहुत करीब. उसका चेहरा उतना ही सर्द है जैसे चार डिग्री पर भारी होता पानी. उदासी भरी पलकें, लगता है उसने नशे की सुई ली हो. अँधेरे में उसकी आँखों में एक हारा हुआ समर्पण है जैसे गली में किसी कुतिया ने ढेर सारे बच्चे दिए हों और सबसे कमजोर बच्चा अपने भाई बहनों को माँ के सारे स्तन व्यस्त रखता देखें और अपने लिए कोई जगह ना देख सके तो निरीह सा गली से बाहर निकल आये. 

हमारी साँसें टकराने लगी, हमने वहीँ अपना घर बसाने का सोचा. आखिर कमी क्या थी, उस लम्हें में ऑटो हमारी दुनिया बन गयी थी. चलाने वाला था ही, वो सही रास्ता ले जाएगा इसका भरोसा भी था, पास में सामान था, और ऑटो सफ़र कर रही थी. हलचल का पता कभी कभी सड़क में पड़ते गड्ढे और घर में घुसती हवा दे देती थी. 

बहुत व्यस्तता के कारण मेघा उस दिन नहा नहीं पायी थी, बासी बदन मुझे शुरू से अच्छा लगता है किसी किताब जैसा. जैसे उसने अपने पास कहानी रहते हुए भी, किसी पढ़े जाने के चेहरे को भी कई बार पढ़ा हो (और पढने वाले सोचते हैं हमने वो किताब पढ़ी, किताब भी तो हमें पढ़ लेती है, तलाश लेती है की कितने इंसान हैं हम, कैसे इंसान हैं हम, क्या छुपा है हममें सबसे ज्यादा). किताब एक औरत बन आई होती है. फिलहाल मेघा किताब थी, औरत थी. वो औरत जिसने कल रात आखिरी बार बिस्तर गर्म किया था और जिसके छोड़ कर जाने का दर्द अब मुझे ता-उम्र गर्म रखने वाला था.

हम माहौल गर्म करते, बाहर से आती ठंढी और ताज़ी हवा सब कुछ उड़ा ले जाती. मैं हमेशा खुली आबो हवाहवा पसंद करता हूँ लेकिन यह पहली बार था की मैं बंद हो जाना चाहता था. उस ऑटो से हमारी महक, गर्म साँसें बाहर निकलती थी और मुझे एक अजीबोगरीब झुन्झुलाहट से भर देती. मुझे अपने माहिम पर गुज़ारे गए दिन याद आने लगे जब खोली के अन्दर पर्दा करने के सारी कोशिशें नाकाम हो गयी थी. नंगे बदन रहना सबसे ज्यादा एहसास देता है एकबारगी वो कहानी कौंध गयी जब अरुण ने गुरु के इस आदेश को की मेरे खेत में पानी मत घुसने देना को सर माथे मान मेड़ पर लेट गया था और लेटने बाद भी खेत में पानी का घुसना अपने बदन के मार्फ़त महसूस कर रहा था. कई बार हमारा दिमाग छठी से लेकर दसवी इन्द्रिय तक के काम कर लेता है. 

थोड़ी देर बाद ऑटो ने करवट ली, हवा के तेज़ झोंके बंद हो गए. हम (मैं और मेघा) करीब होते गए. मेघा की जिस्म से शदीद किस्म की महक आ रही थी, मैं उसके बालों को चूमता और सरसों के खेत महक उठते, माथे को होंठों से लगाता अंगूठी का नगीना बेसब्र हो उठता. गर्दन पर के सुनहरे रोये पर छोड़ कर ना जाने वाली इल्तजा भरे सासें उतारता तो जिस्म के सारे औराक थरथरा उठते. 

साइड मिरर से ऑटो वाले की निगाह मुसलसल हमपर टिकी हुई थी. चूल्हें में एक फूंक मारी थी हमने ऑटो की चाल धीमी हो चली थी, मैं जानता था वो अब जानबुझ कर देर करेगा और लम्बे रास्ते से ले जाना चाहेगा. मेरी इमानदारी उससे ज्यादा बेईमान थी. 

आखिरकार होंठों ने माहौल मुताबिक अपनी जगह तलाश कर ही ली. मेरे होंठ मेघा से होंठ से उलझ गए. यह सिलसिला कितना लम्बा चला मुझे याद नहीं. हम एक दुसरे को छोड़ने की कोशिश करते और फिर उलझ जाते. आखिरी बार एक सुकून तलाश कर रहे थे और क़यामत की बात , हमें वो मिला भी. यहाँ कोई गड्ढा नहीं था. जो था भी तो सबकी ज़मीन चिकनी थी. और गले की चिमनी से निकला अरमानों के आग एक दुसरे को बांधे थे. यह प्यार का एक्सटेंशन था या प्यार इसका एक्सटेंशन था मुझे पता नहीं.  काश हमारे रिश्ते में भी ऐसा उलझन होता, पुराने दिन अच्छे थे साथ चलने का एक दबाव होता था. 

मेरे होंठ और जीभ मेघा के होंठ और जीभ की तलाशी ले रहे थे. दोनों की आँखों में आंसू थे, नमकीन पानी की  नदी की चार धारा बहती जा रही थी. 

हम दोनों जानते थे अब हमारा जीवन इसके बाद पानी जैसा ही हो जाएगा. हम अब किसी और से उलझते रहेंगे और उसमें मिल जायेंगे. मिलते जायेंगे और बहते रहेंगे और जब निकलेंगे हमारी जगह कोई और ले लेगा.

Comments

  1. ये कहानी भी पानी जैसी है ..अपने आप रास्ता बना लेती है आँखों से दिमाग और दिल तक फिर पिघल कर आँखों से बाहर आ जाती है

    ReplyDelete
  2. पानी होना बहुत बुरा लगता है, कुछ भी बन जाना | उससे बेहतर बर्फ हो जाना है, बर्फ बने रहने की जिद रखना है | रिश्तों की गर्मी नहीं रहेगी लेकिन वजूद तो बरकरार रहेगा |

    ReplyDelete
  3. आपका लेखन चमत्कृत कर देता है...बहुत ख़ूबसूरती से लिखा है आपने...बधाई स्वीकारें..
    नीरज

    ReplyDelete
  4. वाकया पहले भी घटा है यहाँ शब्दों ने उसे नया रूप दिया है और इन वाक्यों में छिपी अलग - अलग कहानी अपनी छाप छोड़ जाती है...

    उसकी आँखों में एक हारा हुआ समर्पण है
    किताब भी तो हमें पढ़ लेती है, तलाश लेती है की कितने इंसान हैं हम, कैसे इंसान हैं हम, क्या छुपा है हममें सबसे ज्यादा)
    जिसके छोड़ कर जाने का दर्द अब मुझे ता-उम्र गर्म रखने वाला था.
    मेरी इमानदारी उससे ज्यादा बेईमान थी.
    पुराने दिन अच्छे थे साथ चलने का एक दबाव होता था.

    ReplyDelete
  5. मेरी इमानदारी उससे ज्यादा बेईमान थी.......
    ....
    पीछे मुड़कर देखो तो हर इंसान एक रिश्ता अब भी सीने में छिपाए बैठा होगा.....कुछ केलकुलेशन अजीब है खुदा की....प्लांड या रेंडम ?खुदा जाने

    ReplyDelete
  6. उफ़ ! तुम्हारी पारखी नज़र !

    ReplyDelete
  7. कविता...
    बेहद खूबसूरत कविता...

    ReplyDelete
  8. बहुत ख़ूबसूरती से लिखा है आपने

    ReplyDelete
  9. बहुत ही अच्छी पोस्ट है सागर साहब.... एक एक ख्याल की फ्रेमिंग ऐसी है कि उठा कर अपने घर लाने का दिल करता है ... खैर ला ही चुका हूँ ... :P... पानी के रंग गंध और स्वाद से मोहब्बत के मौसम का ये रब्त होगा ... सोचा नहीं था...

    ReplyDelete
  10. बहुत सारी सच्चाईयों को रुबरु किया इसमें, जिंदगी में नमक वाला पानी अलग ही आनंद देता है, और कुछ मजबूरियाँ उनको केवल पानी बना देती हैं,या पानी मॆं जाने को मजबूर कर देती हैं, जहाँ नमक नहीं होता।

    ReplyDelete
  11. गजब मेहनत। गजब बेईमानी।

    ReplyDelete
  12. गजब ईमानदारी तो भूल ही गये लिखना!:)

    ReplyDelete
  13. kuch kuch khayaal aise hain ...padho to lagta hai bas tum hi soch sakte ho! is piece ko isse behtar nahi likha ja sakta tha.

    ReplyDelete
  14. सही जा रहे हो सागर साहब..एयरपोर्ट!!..शुक्र है कि कोई तो है दिल्ली मे जो सड़क के गड्ढ़ों की शिकायत नही शुक्रिया कहता है!..वैसे अब समझ आया कि दिल्ली मे ऑटो वालों ने रातों-रात किराये बढ़ा क्यों दिये थे ;-)

    ReplyDelete
  15. Hmmm Sahi h.. itni sachchai k sath likhna aasan kaam nahi.. ise padhne k baad i wish k aapki gf ne aapko maara na ho :)

    ReplyDelete
  16. बहुत ही अच्छी पोस्ट है.......गजब

    ReplyDelete
  17. हर कोई है दिल में एक ताजमहल छुपाये
    कोई बना पाया, कोई न बना पाया
    (कोई लिख पाया कोई न लिख पाया )

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार ...

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष...

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने  ...