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तूने दुनिया की निगाहों से जो बच कर लिख्खे

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तुमने पूछा है - मैं क्या करती हूं! बहुत कुछ है कहने को मगर अब जबकि कहने बैठी हूं कि तो कोई बात बताने लायक लग नहीं रही। दिलचस्प तो नहीं होगा मैं फिर भी कोशिश करती हूं, बीच-बीच में ध्यान दे दिया करना। 

आर्चीज की गैलरी अब नहीं जाती। इमोशंस से सूखे फूल खरीदने होते हैं ना ही अब दिल के बैकग्राउंड में इश्क विश्क का गाना बजता है। ना ही तुम्हारी गिफ्ट की हुई डायरी में (जो डायरी कम दिखने में खूबसूरत ज्यादा है, गो कि ताला भी लगाने का सिस्टम है) लिखने का कुछ दिल करता है। आईएससी (इंटरमीडिएट) का प्यार तो है नहीं कि तुम भी फरवरी में जहान भर के मालियों से दोस्ती गांठ कर मेरे लिए लाल, पीले और काले गुलाब ले आओगे। मैं भी कहां अब सजती हूं। थोड़ा बहुत भी बनाव श्रृंगार करने पर लगता है कब्रिस्तान जा रही हूं किसी की आत्मा शांति की प्रार्थना करने। ये बी.ए. तीसरे साल का प्यार है जहां तुम जानते हो कि मेरे बाद दो बहनें और हैं, मेरी घर की माली हालत भी तुमसे छुपी नहीं है। अब तुम नहीं चिढाते कि पड़ोस का लड़का मेरे खातिर एकतरफा प्यार में जहर पी कर मर गया। 

तुम्हारे जिंदगी में में इस कदर घुल-मिल गई हूं कि तुम्हारे दोस्तों में भी काबिले जिक्र कोई बात नहीं। दोपहर थका सा लगता है जैसे हमारी जिंदगी में हम दोनों थके हुए लगते हैं। समाज हमारे लिए थका हुआ लगता है और दोस्तों के बीच हम भी थके हुए हैं। तुम्हारे दोस्त अब मुझे भाभी नहीं चाची की तरह ट्रीट करते हैं। 

चैदह साल की थी तो सोचती थी प्यार में कैसा थ्रिल होता होता है ! अब सोचती हूं ऐसा क्या होना बाकी रह गया है ? अठ्ठाइस से मौत तक हम ऐसे ही घसीटे जाएंगे। कोई सपने बाकी नहीं लगते। ना अब शादी का सोच कर कोई रोमांच होता है, ना बच्चों का, ना ही उनको पालने में कुछ महसूस होगा। मैं जानती हूं वो मैं नहीं बल्कि एक मां होगी। अपने सपनों का हवन कर, अपने बच्चों को कुछ बरस की छवाला राजगद्दी देती हुई। सच है, हम लोग जीवन में नाटक ही तो करते हैं उम्र भर और जब ये समझ जाते हैं तो... 

भरी दोपहरी में रेल की पटरी के साथ चलती हूं। अब पटरी पर चलने का दिल भी नहीं होता। पहले कदम ताल बिठाना होता था। कमर में एक लोच थी। पटरी पर डगमगाते हुए भी टिके रहने की कोशिश होठों पर हलचल पैदा कर जाती थी। कई बार तो गिरते गिरते भी वापस अपने जगह पर बन आती थी। तब लड़ना आता था। अब अभ्यस्त हो गई हूं। अब पैर नहीं डगमगाते। लड़ने से क्या होगा या क्या हासिल कर लूंगी ऐसे ख्याल आते हैं। 

तेज धूप में बिना कारण घूमती हूं। दौड़ती हूं फिर जमा हुआ ठंडा पानी पी लेती हूं। बचपने में नहीं। बस ऐसे ही। खुद को तकलीफ देना अब कहीं से अच्छा लगता है। यकीन करोगे इससे भी कुछ नहीं होता। जैसे मैं दिनों भूखी रह जाती हूं लेकिन ना कुछ खाने का मन होता है ना ही मुझ पर कुछ असर पड़ता है। कोई दो थप्पड़ लगा दे, शरीर को चोट भी लगती और मन पर असर होता है। यही लगता है हां उसने हाथ उठाया है, बस। इससे क्या हो गया, क्या हो जाता है इससे। मार ही लिया तो क्या हो गया। 

मुझे ऐसा लगता है मैंने अपने और अपनी आत्मा के बीच एक दीवार खड़ी कर ली है। या फिर मैं भी अब तपस्या कर सकती हूं। आग, पानी, भूख, प्यास, सर्द गर्म सब बर्दाश्त कर सकती हूं। मेरी जुबान पर अब कोई जायका नहीं रहता। मैं इन सब से ऊपर उठ चुकी हूं। प्यार में पड़ी सहेलियां हंसती हैं, उनको हंसते देख खो जाती हूं। सोचती हूं जब वो सच से रू-ब-रू होगी उसे कैसा लगेगा ? क्या वो भी मेरे जैसी ही हो जाएगी। 

दिन खुलता है, रात बंध जाती है। साल बीत जाते हैं। हम किसी नदी की राह में भारी पत्थर से बैठे हैं। न नदी को मुझे बहा कर ले जाने में कोई रूचि है न ही मैं गल कर मिट्टी होती हूं। जानती हूं जब तक जान नहीं दूंगी लोग नाटक ही समझेंगे। मरना सही होगा अपनी जगह लेकिन वो भी सही इलाज नहीं है। सही इलाज जीते जी कुछ हो जाना है। होश रहते बदल जाना है। समाज ढोंगी है मरने पर पुण्य कमाने आएगी। 

पुर्नजन्म में मेरा यकीन नहीं। मैंने उंगलियां काट कर उसी शिद्दत से नमकीन खून बहाने का सच्चा सुख भोगा और चखा है। वो भी झूठ नहीं है। उसमें भी शुद्धता है, सात्विकता है। उस जन्म वहां वैसे एहसास नहीं होंगे जैसा जीते हुए हुआ था। तब यह सब स्मृतियां धूमिल हो जाएंगी। स्वाद का मज़ा नहीं रहेगा। वो नया जीवन होगा। यादाश्त खो चुकी होगी। सुख होगा पर दुख इस तरह याद नहीं होगा। सिर्फ सुख ही सुख होगा। ऐसे में सुख अच्छा नहीं लगेगा। प्यार ही प्यार होगा। वहां तुम्हारे धोखे का डर नहीं होगा तब मेरे सही रहने की संभावना कम हो सकती है। सुनते हो ? हे प्रेम के भगवन् ! बचा लो न कृष्ण !

{माफ़ करना लड़की यहाँ शाया कर रहा हूँ. अब कम से कम अब ये प्रेम पत्र मथुरा रोड की धूल तो नहीं फांक रहा. इस ख़त को ज्यादा बेहतर जगह दी जा रही है. तेरे ख़त आज मैं यमुना में बहा आया हूँ, गीले गर्म ज़ज्बे गंदे नाले में फंसा आया हूँ. यहाँ आपत्ति करोगी तो हटा लूँगा.}

Comments

  1. "Unfulfilled love is the only romantic love"...

    इसके अलावा कुछ नहीं कहना चाहता.. मुझे फ़िक्शन पसंद है और उस फ़िक्शन में लेखक के लिखे की दुनिया में जाकर टहलना अच्छा लगता है लेकिन इस बार जाने क्यों तुम्हें अपने लिखे के साथ छोडना चाहता हूँ। यहीं बाहर इन पंक्तियों के साथ:

    "दिन खुलता है, रात बंध जाती है। साल बीत जाते हैं। हम किसी नदी की राह में भारी पत्थर से बैठे हैं। न नदी को मुझे बहा कर ले जाने में कोई रूचि है न ही मैं गल कर मिट्टी होती हूं। जानती हूं जब तक जान नहीं दूंगी लोग नाटक ही समझेंगे। मरना सही होगा अपनी जगह लेकिन वो भी सही इलाज नहीं है। सही इलाज जीते जी कुछ हो जाना है। होश रहते बदल जाना है। समाज ढोंगी है मरने पर पुण्य कमाने आएगी।"

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  2. क्योंकि ये भी पता नहीं कि ये फ़िक्शन है या कुछ और... :-।

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  3. अगर ये ख़त ना लगाते तो भी ...इस लिखे हुए का वज़न कम नहीं होता ....

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  4. बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी...

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  5. खत के शिकन खुद बयाँ करते हैं कि कितनी मुद्दतें शहीद हो गयी इन शदीद हर्फ़ों की हिफ़ाज़त मे..गंगा मे कितना पानी बह चुका होगा तबसे..और धूल की गर्द की कितनी पर्तों ने इस ख़त से मात खाई होगी..वैसे कसम तोड़ी आपने..सो पाप लगेगा..!!

    बाकी सो आगे का ख़त है..मंजिल की अनवरत जुस्तजू मे गाफ़िल..कमर की लोच माथे की शिकन की तरह मिटती जाती है..दिल मे कुछ सलवटें बाकी रह जाती हैं..उम्र भर मिटती नही..वक्त के बढ़ते कोलेस्ट्राल के तमाम खतरों के बावजूद...वैसे फ़रवरी का मौसम इतना उदास होता तो नही..मगर मौसमों का क्या भरोसा करना..जलील साहब भी यूं ही जलील नही थे..

    दिले-वीरां मे अरमानों की बस्ती तो बसाता हूँ
    मुझे उम्मीद है हर आरजू गम साथ लायेगी।

    यह पंक्तियाँ खून मे घुलती सी लगती हैं
    तब यह सब स्मृतियां धूमिल हो जाएंगी। स्वाद का मज़ा नहीं रहेगा। वो नया जीवन होगा। यादाश्त खो चुकी होगी। सुख होगा पर दुख इस तरह याद नहीं होगा। सिर्फ सुख ही सुख होगा। ऐसे में सुख अच्छा नहीं लगेगा। प्यार ही प्यार होगा। वहां तुम्हारे धोखे का डर नहीं होगा तब मेरे सही रहने की संभावना कम हो सकती है।

    हाँ दो नये लफ़्ज़ भी आपकी पोस्ट मे देखे: शुद्धता और सात्विकता! :-)

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  6. ''उंगलियां काट कर उसी शिद्दत से नमकीन खून बहाने का सच्चा सुख भोगा'' तौबा-तौबा, राम-राम.

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  7. मन का सन्नाटा, सूनापन और व्यग्रता, न जाने कहाँ से कहाँ ले जाती है जीवन को।

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  8. पोस्ट पढ़कर कुछ खास कहने को नहीं है पर कई बिंदुओं पर सोचने के लिए मज़बूर करता है आपका ये आलेख...

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  9. सपनो की दुनिया में उड़ते हुए परिंदों को खींच कर नीचे लेकर आता है सोचालय.. और नीचे लाकर आईने के ठीक सामने ले जाकर खड़ा करता है और कहता है देख ये है असली ज़िन्दगी..

    पास होता तुम्हारे तो गले लगा लेता दोस्त..!!!

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  10. कभी कभी सोचती हूँ कितना आसान होता है तुम्हारे लिए ऐसा कुछ लिख देना(शायद नहीं भी होता हो) उतना ही मुश्किल होता है ऐसे लिखे हुए कुछ पर कुछ कहना...पहली बार पढ़ना, वापस आना, आधा पढ़ना, जाना...कुछ पंक्तियों का जहन में घुमते रह जाना.
    तुम्हारी खासियत ये है कि तुम ऐसे लिखते हो कि हर किरदार कहीं देखा हुआ, जिया हुआ सा लगता है...ज्यादा गौर से देखती हूँ तो आइना नज़र आने लगता है.
    पता नहीं तुम ऐसा कैसे कर लेते हो सागर...कोई तो भी नहीं कर पाता...या शायद तुम्हारे किरदार मेरे जान-पहचान वाले रहे हैं.
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    तुम्हारे जिंदगी में में इस कदर घुल-मिल गई हूं कि तुम्हारे दोस्तों में भी काबिले जिक्र कोई बात नहीं.
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    तुम्हारे दोस्त अब मुझे भाभी नहीं चाची की तरह ट्रीट करते हैं.
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    यही लगता है हां उसने हाथ उठाया है, बस। इससे क्या हो गया, क्या हो जाता है इससे। मार ही लिया तो क्या हो गया।
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    कहाँ से आती है ये नज़र सागर...कैसे...सोचती हूँ तुम्हें झकझोर कर पूछूं कि आखिर कैसे देखते हो इतना कुछ...कोई तुम्हें रोकता नहीं ऐसे यूँ मन में झाँकने से?
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    कमेन्ट कुछ लंबा हो गया है...क्षमा करोगे.

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  11. कमाल करते हो मिया कितनी चिट्ठिया इकठी कर रखी हैं आपने....

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  12. ".....kise aawaaz dun?' pe comment kee suvidha nazar nahee aati!
    Peeda se sarabor kathy hai....fluently likha hua!

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  13. समझ में नही आता ख़त की बात करूं या फिर ख़त की बात की बात...

    ऐसे नाज़ुक ख़त किसी को दिखाए नहीं जाते कोई समझे तो कैसे समझे और फिर उनपे कुछ लिखना रस्सी पे चलने जैसा..ये सब लिख पाना सबके बस की बात नहीं..कहानी (या जो कुछ भी ये है) यथार्थ की उस हद्द तक पहुँच जाती है जहाँ कल्पना देखती रह जाती है...


    एक अलग सा रंग..जिसे लफ्जो की ज़ुबां मिल गयी हो जैसे..
    मन की उथल पुथल जो बीते वक़्त को एक बार फिर से छू लेना चाहती हो..वक़्त जो छोटा पड़ जाता है इंसान आगे निकल जाता है पर यादें परछाइयाँ बन बरसो बरस साथ चलती है..

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  14. ये नये पोस्टों में टिप्पणी करने का विकल्प क्यों नहीं मिल रहा है? मेरे उस स्वांत-सुखाय की परिभाषा से प्रभावित हो गये हो क्या?

    ये खत रुसवा तो नहीं कर रहे उसको???

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  15. This comment has been removed by the author.

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  16. सच में मुझे अपनी कहानी याद दिला डी आपने तो

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