Skip to main content

मेघे ढाका तारा



कल कितना हसीन दिन होगा न दादा ! मुझे समय से भूख लगेगी और हम सवेरे सवेरे मंदिर जाएंगे, कम से कम अपना कर्म तो करेंगे। मैंने सोचा है कि बड़ी सी टेबल पर शीशे के ग्लास जो उल्टे करके रखे हैं उसी समय सीधा करके उसमें तुम्हारी फेवरेट रेड वाइन डालूंगी। 

आखिरकार मैंने ठान लिया है दादा कि मैं कल सीलन लगी दीवार, इस मौसम के गिरते पत्तों की परवाह नहीं करूंगी। कल न उनसे अपने दिमाग की उलझनें जोड़ूंगी दादा। कसम से दादा। कल उधर ध्यान नहीं दूंगी दादा। दादा बुरा वक्त है जानती हूं लेकिन मैं खुश रह लेती हूं। तुम्हारे नाम की आड़ रखकर तो मैं कुछ भी कर लेती हूं दादा। दादा हम शरणार्थी। शिविर को कैसे घर मान सकते थे दादा ? चैकी के नीचे का रूठा पायल कुछ बोले, न बोले दादा हम तो कल खूब खुश रहने वाले हैं। दो शब्द बस दादा - खूब, खूब खुश। सच्ची। नए साल की तरह। 

हमारे अंदर जब अच्छाई जागती है न दादा तो खूब जागती है इतनी कि कुछ भी अच्छा नहीं हो पाता। ऐसा कि खुद को ऊर्जा से भरपूर मानो दादा और सोचो कि आज सारे काम निपटा देंगे फिर कैसी गांठ जमती है मन में कि शाम तक बिस्तर से उतरना नहीं होता ?

हाट जाने के सारे रस्ते इसी होकर जाते हैं दादा। दोपहर बाद कोई तो पहर लोगो के पैर थमेंगे? प्लीज़ दादा कल तुम अपना मूड खराब नहीं करना। प्लीज दादा कल चार बजे भोर में उठकर क्षितिज पर उड़ती धुल देख भविष्यवाणी मत करना, मत बतलाना घोड़े किधर से दौड़ते आ रहे हैं। टाप की आवाज़ कल नहीं सुननी दादा। धु्रव तारा देखना। धु्रव तारा। ता आ आ आ आ आ.... रा आ आ आ आ आ...। तारे में भी शोर है दादा, संगीत है। ताक धिना धिन ना। पर कल, कल यह संगीत सुनना दादा। सोच लो दादा, सारे अच्छे काम सोच लो ऐसा ना कि कल उधेड़बुन में ही रह जाना कि करें क्या ? 

अच्छा दादा कल देर रात हमको अपने गोद में रखकर मेरे माथे सरसों तेल ठोकना दादा। बड़ी हसरत हो रही है। अपनी पसंद की कोई कविता भी सुना देना। 

हम सरोजनी नगर मार्किट से जैकेट लेंगे और तुम्हारे नाम की एक और पार्टी खाएंगे। कल तुम बहुत नेचुरल होकर सिगरेट पीना। धुंआ नाक से ऐसे निकालना दादा जैसे सांस निकलती हो।

दादा हम शाम को कमरे में अंधेरा कर देंगे और मोमबत्ती जलाएंगे ढेर सारी एक साथ कमरे के बीचों बीच। क्या पिघलेगा दादा तब ? अंधेरा कि रोशनी ? हम ब्याह के लायक हो गए ना दादा और तुम भी तो अपनी उमर से ज्यादा के लगते हो ? अच्छा दादा, एक बात बताओ,  जब तुम हमको लाए थे तो कुछ सोचे नहीं ना थे ? हम लाए गए थे ना दादा ?एक्स रे कराएं दादा हम दोनों अपने कलेजे का ? स्टील का तो नहीं ना निकलेगा ?

Comments

  1. मेघे ढाका तारा यानि बादलों से छाया हुआ सितारा - सन १९६० में बनी ऋत्विक घटक घटक की फिल्म

    ReplyDelete
  2. स्टील का तो नहीं पर होगा किसी धातु का ही.... गोल्ड या प्लेटिनम?

    ReplyDelete
  3. ये दादा की लाडली जो इतना चहक रही है आज, बात तो ज़रूर है कुछ... कितना कुछ है जो छुपा है उस आवाज़ की खनक में... बहुत कुछ अनकहा... कलेजा स्टील का है या नहीं वो तो नहीं पता पर स्टेनलेस ज़रूर है...

    आनंद फिल्म का वो डायलॉग याद आ रहा है - "आज आनंद कुछ कहते कहते रुक गया...... अगर वो दर्द ही उसके जीने की वजह है तो बेहतर है वो वहीं रहे.."

    ReplyDelete
  4. शीर्षक पढ़कर आया कि कुछ फिल्म की बात हो रही होगी या रविन्द्र की....यहाँ तो जाने कौन-सा स्क्रीप्ट पसरा हुआ।

    ReplyDelete
  5. बहुत नोकीला स्टील लिख गए भाई...ख्याल रखिये पाठकों का..सीधे धंस जाता है..

    ReplyDelete
  6. एक्स रे कहाँ दिल के धब्बो को दिखाता है

    ReplyDelete
  7. क्या लेखन है ....सोचालय सच में सोचने को मजबूर करता है.....काश! दिल का एक्स-रे हो पता...हम सोफेसटीकेटेड लोग कहाँ जाते फिर....

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

कुछ खयाल

चाय के कप से भाप उठ रही है। एक गर्म गर्म तरल मिश्रण जो अभी अभी केतली से उतार कर इस कप में छानी गई है, यह एक प्रतीक्षा है, अकुलाहट है और मिलन भी। गले लगने से ठीक पहले की कसमसाहट। वे बातें जो कई गुनाहों को पीछे छोड़ कर भी हम कर जाते हैं। हमारे हस्ताक्षर हमेशा अस्पष्ट होते हैं जिन्हें हर कोई नहीं पढ़ सकता। जो इक्के दुक्के पढ़ सकते हैं वे जानते हैं कि हम उम्र और इस सामान्य जीवन से परे हैं। कई जगहों पर हम छूट गए हुए होते हैं। दरअसल हम कहीं कोई सामान नहीं भूलते, सामान की शक्ल में अपनी कुछ पहचान छोड़ आते हैं। इस रूप में हम न जाने कितनी बार और कहां कहां छूटते हैं। इन्हीं छूटी हुई चीज़ों के बारे में जब हम याद करते हैं तो हमें एक फीका सा बेस्वाद अफसोस हमें हर बार संघनित कर जाता है। तब हमें हमारी उम्र याद आती है। गांव का एक कमरे की याद आती है और हमारा रूप उसी कमरे की दीवार सा लगता है, जिस कमरे में बार बार चूल्हा जला है और दीवारों के माथे पर धुंए की हल्की काली परत फैल फैल कर और फैल गई है। कहीं कहीं एक सामान से दूसरे सामान के बीच मकड़ी का महीन महीन जाला भी दिखता है जो इसी ख्याल की तरह रह रह की हिलता हुआ...

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार ...

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने  ...