आज आया तुम्हारे घर,
कुछ वक्त बिताया
रोशनदान देखे, अलमारी, अलगनी, दीवार और पंखे के ऊपर लगा जाला भी देखा।
पांच रूपए का बेसन, एक पाव दूध, सोयाबीन ढ़ाई सौ ग्राम और आटा आधा किलो
रद्दी अखबारों के बीच किसी किसी काग़ज़ पर लिखा यह बजट भी देखा
उदास किताबों के बीच मोड़े मोड़े पन्ने देखे
लगा तुम्हारा उचाट जी, जम्हाई, बेवक्त किसी की पुकार अभी तक वहीं रखा है।
ठीक उसी कांटी पर टंगा है अब भी तुम्हारा बी. एड. वाला बस्ता
और टीचर्स डे के बहाने चश्मीश शिशिर का दिया बिना डंठल वाला गुलाब
(यह अलग से छुपा कर ‘गुनाहों के देवता‘ में रखा है)
ज्यादातर फूल की प्रजातियां, शब्दों के उद्गम, उनकी विशेषताएं और प्रयोग तो याद है
पर क्या अब भी रोमांचित होती हो ?
दिमाग में झटका लगता है ? कोई विलक्षण किरदार मिलता है ?
साड़ी अब सिर्फ कपड़ा भर क्यों है ?
रंग गैर जरूरी हुआ ?
सुलोचना का जवाब:
बावजूद सबके समंदर नहीं होते हम
कि पर्याप्त मात्रा में ही होता है हममें नमक जैसा कुछ
तो यूँ समझो कि
धूप बेहद तेज़ खिली और जो तुम खोज रहे हो उसका वाष्पीकरण हो गया
रूको-रूको-रूको
जो इतनी घनीभूत भी नहीं कि फिर से बरस सके
वैसे
जिंदगी का गर तुर्जबा हो तो
विज्ञान के कई नियम फेल होते नज़र आते हैं।
और
जवाब, प्रश्नों से बढ़कर होते हैं
कई बार फिर से सवाल पूछने लायक नहीं छोड़ते.
बहुत ही बढ़िया. हर पोस्ट को पढता हूँ और मेरा आलस्य सिर्फ मुस्करा भर देता है. कमाल के हो सागर... ऐसे ही बने रहना सब भाषाओं के शब्द कोष की तरह
ReplyDeleteजिंदगी का गर तुर्जबा हो तो
ReplyDeleteविज्ञान के कई नियम फेल होते नज़र आते हैं।
और
जवाब, प्रश्नों से बढ़कर होते हैं
कई बार फिर से सवाल पूछने लायक नहीं छोड़ते.
anubhawi rachna
लगता है बरसेंगे, छाह देकर निकल जाते हैं वे।
ReplyDeleteहर बार की तरह नया और अनूठा.. अपने आप में बहा ले जानी वाली पोस्ट..
ReplyDeleteबी एड का बस्ता.. बढ़िया लगा
accha lga aapka B.ED ka basta...
ReplyDeleteबहुत खूब कहा आपने...
ReplyDelete"जिंदगी का गर तुर्जबा हो तो
विज्ञान के कई नियम फेल होते नज़र आते हैं।"
और कई बार तो तजुर्बे भी काम नहीं आते हैं...
और कुछ इंसान हमारी जिंदगी के सारे नियम फेल कर कुछ और ही काम जाते हैं.....
बहुत खूब कहा आपने !
ReplyDeleteनवसंवत्सर की हार्दिक शुभकामनायें !
ReplyDeleteमाँ दुर्गा आपकी सभी मंगल कामनाएं पूर्ण करें