टेबल कवर पर हाथ फेरो तो हथेली से धूल चिपकती है। हिन्दी व्याकरण की किताब खोजने ज़मीन पर समतल ना बैठ पाने वाले स्टूल पर चढ़कर खोजने की कोशिश की तो मंझले रैक से कितने तो रील वाली आॅडियो कैसेट गिरने लगे। सनसेट प्वांइंट, सिफर से लेकर वीर- ज़ारा तक के। एक भी कैसेट पर उसका सही कवर नहीं लगा है। शादी के गीतों वाली कैसट में मुकेश का गोल्डन कलेक्शन है और जगजीत सिंह वाले कवर में यूफोरिया। एक इंसान में भी ऐसी ही बेवक्त, बदतमीज़ और अनफिट ख्याल भरे रहते हैं।
02.09.1995 के बाद से घर में कुछ नहीं बदला है। एक ट्रंक रखा है अंदर वाले कमरे के कोने में, उसके बगल में चार-चार ईंटों पर खड़ा आलमारी, बची हुई जगह पर मच्छर अगरबत्ती का स्टैण्ड, किसी टेढ़े कांटी पर मुंह फुलाया रूठा लालटेन लटका है। बचपन में जब लाइट कटती थी तो भाई बहन इसी लालटेन के दोनों तरफ बैठ कर मच्छरों, अंधेरों और बिहर खेतों से आती झींगुर की आवाज़ों के बीच पढ़ाई करते। रोशनी सिर्फ सामने होता। दोनों के पीठ पीछे पसरा मीलों का अंधेरा। भाई के आगे एक किताब होती उसके बाद लालटेन फिर एक किताब और आखिर में बहन। इसका ठीक उल्टा क्रम बहन की तरफ से भी होता। यहां आखिर में भाई होता। भाई हो या बहन दोनों के अपने पीछे अंधेरा पसरा होता। दोनों के आखिरी दृष्टि के बाद भी अंधेरा। रोशनी में सांस लेते बस यही दोनों होते। लालटेन, डिबिया नहीं था जो हवा से लड़ते हुए जलता, लालटेन तटस्थ था, गंदले शीशे की आवरण से ढं़का निर्विकार जला जा रहा था। सन्नाटे का अकेलापन बढ़ता तो अपने की आवाज़ सुनने के लिए किसी लड़ाई की खोज की जाती। भाई अप्र्याप्त रोशनी का बहाना बहना लालटेन का हत्था बहन की तरफ कर देता। बहन भी कम रोशनी का तर्क दे हत्थे को दूसरी यानि भाई की तरफ गिरा देती। यह फेंकाफेंकी शुरू होती और इस पर बहस बढ़ता तो मां बेलन लिए रसाई से आती और दोनों को एक-एक बेलन लगा, कुछ आंचलिक गाली देकर, लालटेन के कड़ी को बीच में कर देती। लालटेन कर हत्था टीन का था अपने पेंच में टाईट फंसता था। अब उसे बीच में कर दिया गया जहां से वो हवा में आसमान की ओर मुंह किए रहता। अंधेरे से डर कर किसी अपने को आवाज़ लगाने की इस क्रिया पर इस प्रकार रोक लग जाती।
शिलिंग फैन का पेंट उखड़ गया है। पूजा रूम के दीवार के किनारे का जाला जंगली वैजंती की तरह आगे बढ़ता जा रहा है। जवानी की मुहांसों के बीच लिखे प्रेम भरे खत छज्जे पर रखे काॅर्टून के नीचे रखा जाता। अब वहां उंगली डाल कर उन खतों को टटोलकर खोजने में डर लगता है। कहीं बिच्छू ना डंक मार ले। यह दूसरी दफा होगा लेकिन राहत यह कि अबकी उंगली पर ही होगा। पहला डंक तो विद इन फोर्टी डेज़ में ही दिल पर लगा था।
पुराने घर जाओ तो याद कैसे मारती है कहना मुश्किल है। जीने के लिए नायाब तरीके ईजाद किए जाते। अभाव का दिन अपनों को बड़ा करीब रखता है। यह पराए शहर में भी आजमाई हुई बात है जब हम जिया सराय में रहते और महीने के अखिरी दिनों में एक दूसरे को संभालते। एक फोन पूरे कमरे का हो जाता। एक जोड़ा चप्पल भी जूतों का अल्टरनेट बन जाता। फिर जब सुख यानि सैलरी आती सबकी नई दुनिया बस जाती। सभी अपने अपने मन मुताबिक रेस्तरां में जा फ्राइड राईस, डोसा, उत्तपाम और नाॅन वेज थाली खाते।
याद मारती है तकिए में धंसा कर, चुपचाप। किसी अधेड़ उम्र के महिला की कमज़ोर बूढी हाथों से गुंथे आटे की रोटी खाओ और खाते वक्त उसमें बाल और कंकड़ भी मिले तो अपने अपराध बोध और अतीत की यादों का सिरा नहीं टूटता।
यह किसी धारदार चाकू से अपना गला रेत, अपनी पीठ पर पत्थर बांध दरिया में कूद जाने से भी बदतर हालत में ले जाती है। आश्चर्य यह कि यह सब इतने के बाद भी सुख की अनुभूति देता है।
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विडियो फिर से...
ऐसे ही अनकहे संवादों में जीवन बीत जाता है।
ReplyDeleteयादों की बौछारों से जब पलकें भीगने लगती हैं
ReplyDeleteकितनी सौंधी लगती है तब माज़ी की रुसवाई भी
यादों की इस सौंधी सी बयार में जाने कहाँ उड़ चला मन...
P.S. - कुल्हड़ वाली चाय जल्दी से पेश की जाय नहीं तो फिज़ूल की बातें झेलने के लिये आप भी तैयार रहिये साग़र साहब... आपको क्या लगता है एक बस आप ही पाठकों को पका सकते हैं :)
इसे पढ़ कर एक लम्बी खामोश बहुत करीब आ गई है...
ReplyDeleteइस दफ़ा घर से काफ़ी कुछ ले आये :)
ReplyDeleteयह किसी धारदार चाकू से अपना गला रेत, अपनी पीठ पर पत्थर बांध दरिया में कूद जाने से भी बदतर हालत में ले जाती है। आश्चर्य यह कि यह सब इतने के बाद भी सुख की अनुभूति देता है।
ReplyDeleteUltimate..!!!