ए
तुम्हारे शहर में कोई और लड़की देखना अपने आप में क्या कुछ है। समझौता, मजबूरी, गुस्सा, बदला या कि तुमको फिर से तलाश करना। रिडिस्कवरी। दो गुदाज बाहें जब नंगी हथेलियों में थरथराए, तेज़ तेज़ सांसों का उतार चढ़ाव से ज्यादा हो, चढ़ाव इसलिए कि उतार एकाग्र हो, चढ़ाव इसलिए कि उतार में खत्म होना हो, चढ़ाव इसलिए कि उतार को जी सकें, प्यास बुझा सकें। बेकाबू धड़कनों का आरोह अवरोह किसी सनकी खूनी के तरह दलदल में चमकीले खंज़र लेकर उतर आए तो सीने पर उठता गिरता चांदी का चेन जिस जिस उलझन टकराता हो। इससे इतर तुम्हारे बगैर सोचना क्या है ? बिना गुलमोहर के पाटलीपुत्रा की कल्पना, बिना बेलपत्र महाशिवरात्रि का दिन या कि बिना भांग के होली।
एल
ठंढ़ी बहुत ठंढ़ी... कोई बर्फ का टुकड़ा स्मृति में फूटता, बारिश वाले दिन में ढ़लान भरी बिजली के तारों पर ढ़कलती चमकीली बूंद, कहीं पलते हुए जब हम बड़े होते हैं अमुक अमुक स्थान के कारण वो शहर हमें याद नहीं होता बल्कि अपने बेतरतीब ढलानों में भी सौंदर्य छिपाए होता है। अपना शहर कोई तीर्थ स्थल नहीं होता जो स्थान विशेष के कारण याद रहे। वहां विपरीत दिशा से आ रही आॅटो में दो लड़कियों के बीच बैठी महबूबा की भवहों की मुस्कुराहट पहचान में आ जाती है।
आई
ऐसे तस्वीर की कल्पना तुममें हरगिज हरगिज नहीं की जा सकती है। छाया भर बस पड़ सकती है। सांझ ढ़ले घर से अलग स्टोर रूम में डरते हुए बस दीया दिखाने भर जैसा। पत्थर की बड़ी सी सिल्ली पर एक कदम रख रौशनी को वहां महसूस भर करने जैसा। एक संजीदा छाया। किसी नमाज़ की वाजिब रूह लेकिन जुदा शक्ल होगी तुम। हू ब हू वैसा नहीं हो सकती हो जैसी तस्वीर में कल्पना की गई है। थोड़ा शार्ट दुपट्टा में थोड़ी दूर का संतुलन, एक टिंच बैलेंस रिश्ते और आकर्षण का।
ई
कायनात पर फैली चांदनी अपने खूबसूरती के शबाब में भी अकेला है। इस कदर अमीर जैसे सबसे गरीब। कोई सानी नहीं, मगर कोई मानी भी नहीं। बस इतना कि चमकते सूरज का ताप रेगिस्तान के हर रेत को सुलगा रहा है। लेकिन वहां पांव पकते हैं यहां तुम पर तरस आता है। पूछना कभी देर रात जब नींद ना आए कि शिखर पर अकेले बैठने में क्या कुछ खोना पड़ा और यहां तक पहुंचाने में हमें क्या कुछ चुकाना पड़ा। सारे जवाब तुम्हारे अंतर्मन ही देंगे। हम क्या आज हैं, कल कहीं, परसों नहीं।
एन
इश्क पर गालिब का मुकम्मल सा शेर किंतु मेरे में अपाहिज सा बचा हुआ - ''देखना मेरे बाद यह बला कितनों के घर जाएगा।'' हम उन पर हंसते हैं जो खुद वही काम देर सवेर करते हैं। खून बहाने का उदाहरण भी उन्हीं में से एक था। रूमाल आज भी तह कर के रखी है और हाथ का कड़ा छह साल में लचीला हो चला है। इश्क का रेशा, गांठ बन चुका है। अब तो कांटों पर साल दर साल एक धागा चढ़ा कर स्वेटर बुन लेते हैं।
कितना मारते हो अपने आप को कि चोट हड्डियों में लग आई है। जो जितना पाक है खून से लथपथ है। यह कैसी गलतफहमी है कि चुपचाप किनारा कर लेना रक्तरंजित अंत नहीं कहलाता ?
(डायरी-अंश)
धूप बयानी, छाँव बयानी...अंजुली में गंगाजल लेकर संकल्प करने जैसा.
ReplyDeleteतुम्हारा ये रंग सागर...उफ़.
शीर्षक पर फ़िदा हो के रह गए
ReplyDeleteजी चाहता है इल्जाम लगा दूं "आपको तारीफ सुनने की बुरी आदत है" :-)
ReplyDeleteहाँ! सहमत हैं हम पूजा से... शीर्षक में मगजमारी की या फिर एवे ही ?
kis khayaal mein likhte ho ..jo apne saath padhne wale ko bhi usi khayalo ki duniyaa mein le jaate ho ...इश्क का रेशा, गांठ बन चुका है। shaayad isi gaanth mein bandh kar rah gaye hai
ReplyDeleteक़त्ल..
ReplyDeleteइस गुम जाति को सागर जैसे ही ढूंढ कर ला सकते हैं...
ReplyDelete@ प्रिया,
ReplyDeleteकुछ ख़ास मगजमारी नहीं करनी पड़ी. फिर भी इसने ९०-९५ सेकेण्ड का समय तो लिया ही. पहले शीर्षक : "अमलतास, गुलमोहर और चाँद के देस में एक संथाल परगना" रखने वाला था.
बहुत ही सरल-सहज ढंग से ह्रदय के गहनतम भावों की अभिव्यक्ति......
ReplyDeleteसब तारीफ़ कर रहा है उससे चैन नहीं पड़ा तुमको? जो खुद भी अपनी तारीफ़ करने बैठ गए?
ReplyDeleteकुछ कह नहीं पा रही हूँ....ऐसा लिखना कितना कठिन होता होगा ! मगर तुम्हारी लेखनी से मक्खन की तरह निकलता है! तीन बार पढ़ चुकी हूँ पर मन भरा सा नहीं लग रहा है!
ReplyDeleteकिन गलियों में ले जाकर कहाँ छोड़ दिया, वापस घर पहुँचने में समय लग रहा है।
ReplyDelete"अमलतास, गुलमोहर और चाँद के देस में गुम एक जाति"
ReplyDeleteजैसे ये उन्वान ही अपने आप में सब कुछ था..... बाकी तो बोनस में पढने को मिला. दमदार रचना
टाईटल वाली बात पे हम पूजा और प्रिया, दोनों से ही सहमत है.. लास्ट वाली तस्वीर का इम्पैक्ट पूरा पूरा है..
ReplyDeleteदेख रहा हूँ कि सोचालय में जान आ रही है.. सागरी अंश पे दिल लट्टू है जनाब
जी नहीं भरा...और..और...!
ReplyDeleteइतने दिन बाद पढूँ तो और..और... की प्यास तो रहती ही है !