जैसे खिजाब लगा कर तुम्हारे साथ इस उम्र में नाचने की गुज़ारिश की हो, एक लम्बा वक़्त बीता लेकिन हमारे बीच की खाई पर ये किसने कामगार लगाये ? हम कहने, दिखने और लगने को पति पत्नी हैं लेकिन तुम मुझसे बड़ी ही रह गयी, मैं खूँटी पर पर टंगा याचना ही करता रहा, एक आत्मसम्मानी भुक्तभोगी जिसने एक जीवन भर आत्मसम्मान लटका दिया, विवाह से सत्रह साल होने को आये लेकिन रास्ते में करबद्ध खड़ा एक स्वागत कर्मी लगता हूँ, मुद्रा प्रणाम की है लेकिन उसी में सबको रास्ता भी दिखाना हो रहा है, तुम्हारी पेंचदार जुल्फें नसीब हैं लेकिन किराए का लगता है. चूम सकता हूँ लेकिन पराया महसूस होता है. प्रतिक्रिया में कई बार वो कम्पन, वो सिसकारियां नहीं मिलती और तो और जब लम्बे प्रवास पर जाता हूँ तो आँखों में वो पुलकित और उमड़ता नेह भी नहीं दीखता.
एक ज़ालिम ज़माने से लड़ना क्या कम था, एक बे-इज्ज़त करता समाज क्या कम था जो पाँव तले नाव की पाट भी डगमगाती हुई लगती है ? खुद से बहुत ऊब कर और ग्लानि में कभी गले भी लगती हो तो समझता हूं कि इस तरह मिलना एक आदरपूर्वक गले लगना है। हद है कि मैं बनावट हमेशा कठोर चीजों की ही समझ पाया। कल्पना में हाथों में रूई होता था लेकिन हकीकत में कोई पत्थर। मैंने सपने देखना छोड़ा नहीं लेकिन जब सपना सिमटकर सिर्फ एक से जुड़ जाए तो वो ऐसे में क्या देखे ?
समय की आंच पर शिकायतों की हांडी उबलती रहती है और ज्यादा जोर मारकर जब खुद से आती है तो भी आखिरकार अपना ही बदन पकाती है। देखती हो होगी ही किचन में अक्सर जब हांडी उबलती होगी तो कैसे खौलता पानी बर्तन के चारों ओर से जलाता गिरता है।
तुम्हारे मौसम को कभी जी नहीं पाया, बेहतर होता यह शिकायत ना होती.
तो कुछ भी कहाँ होता ?
just superb
ReplyDeleteबेहतरीन से भी ज्यादा कुछ.
ReplyDeleteसागर तुम्हारा लिखना ..बाध्य करता है पढने के लिए और फिर टिपण्णी करने के लिए ... नए नए बिम्ब कहाँ से लाते हो अंतिम पंक्तियों ने ..मन में जगह बना ली
ReplyDeleteतेरे वादे पे जिए हम तो ए जान झूठ जाना
ReplyDeleteकि खुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता
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और...
दिल तो कर रहा है कि फ़राज़ की पूरी गज़ल उठा कर लगा दूँ...पर फ़िलहाल बस ये
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको ख़राब-हालों से
सो अपने आप को बर्बाद कर के देखते हैं
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पे इलज़ाम धर के देखते हैं
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तुम्हारे लेखन के तो हम कायल हैं. सोचती हूँ तारीफ सुन कर कहीं तुम्हारा दिमाग खराब न हो आये...पर बताओ ये भला और कौन लिख सकता था
'एक लम्बा वक़्त बीता लेकिन हमारे बीच की खाई पर ये किसने कामगार लगाये ?'
या कि फिर
' हद है कि मैं बनावट हमेशा कठोर चीजों की ही समझ पाया'
और आखिर का ये सागर मार्का साइन ऑफ तो जानलेवा है, कसम से...
'तुम्हारे मौसम को कभी जी नहीं पाया, बेहतर होता यह शिकायत ना होती.
तो कुछ भी कहाँ होता ?'
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खुदा आपकी लेखनी को बरकत बक्शे सागर साहब...हमारा सलाम कुबूल करें.
सागर..
ReplyDeleteनाम ही सार्थक है...!
आपकी कलम को सलाम..
***punam***
परत दर परत छील दिया हो सच को... लिखने वाले के ही नहीं पढने वालों की आत्मा पर छाले पड़ जाएँ...
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