इक तरफ ज़िन्दगी, इक तरफ तनहाई
दो औरतों के बीच लेटा हुआ हूं मैं
--- बशीर बद्र
*****
एक भयंकर ऊब और चिड़चिड़ापन, शरीर की मुद्रा किसी भी पोजीशन में सहज नहीं मगर मन अपने से बाहर जाए भी तो कहां ? भरी दुपहरी फुटबाल खेलने की ज़िद और आज्ञा न मिलने पर खुद को सज़ा देना जैसे खुदा जानता हो कि अब खेलने को नहीं मिला तो पढ़ने में या और भी जो तसल्लीबख्श काम हों उनमें मन लगेगा। तो जि़द बांधकर ज़मीन पर ही लोटने लगा।
/CUT TO:/
एक दृश्य, ज़मीन पर लोटने का
/CUT TO:/
दूसरा, बुखार में गर्म और सुस्त बदन माथे में अमृतांजन लगा पसीने पसीने हो तकिए में सर रगड़ना
... यातना और याचना के दो शदीद मंज़र।
कुछ ऐसा ही रेगिस्तान फैला होगा। यहां से वहां तक सुनहरे बदन लिए एक हसीन औरत, पूरा जिस्म खोले और रेत की टोलियां ऐसे कि समतल पेट पर नाभि का एहसास...कि जिस पर इंसानी ख्वाब चमकते हैं, कि जिस पर पानी का भी गुमां होता है कि जिस पर धोखा भी तैरता है।
सूरज का प्रकाश छल्ले से जब कट कर आता है तो घट रही कहानियों पर क्या प्रभाव पड़ता होगा ?
फफक कर रो ही लो तो कौन माथा सहलाता है ? आकाशवाणी होनी बंद हो गई। इसकी छोड़ो, कौन इस तरह हर चीज़ को समझने की ही कुव्वत रखता है? कुछ शब्दों मे ढ़ाल भर ही देने से कोई कुछ बांट तो नहीं लेता ? लिपटकर मां के साथ सोना याद आता है जिससे दुख छुपाते थे लेकिन उसके कलेजे से लगकर एक संबल मिलता था। उसका पैदा करने के बाद भी दर्द खींचना जारी रहा। खींचना ऐसे जैसे उसे लत हो, एक हुक्के की नली से गुड़ गुड़ करते हुए खींचना (कि सींचना ?) तुम जिसे फ़रियाद करना कहते हो तो ऐसे क्षितिज को देखकर गला ही फाड़ लो तो कौन सुनता है ?
... अजीब बात है वो शाइर कैसे फकीरों सी दुआ देता था। अपने चिथड़े पहनाकर घर भेजना चाहता था। बातों के वक्त ठुड्डी पर के दाढ़ी हिलते थे और जुबां से फलसफे गिरते थे।
...ये कैसे हो जाता है या खुदा! कि दरख्त गुम हुए जाते हैं मगर उसके पत्ते हरे रह गए
आज़ाद बदन के मुल्क में तुमने जीने के लिए इतनी शर्तें दीं कि हम ताउम्र गुलाम रहे.
...(चंद शाइरों के नाम)
शीर्षक : http://podcast.hindyugm.com/2009/07/gul-hui-jaati-hai-faiz-ahmed-faiz-abida.html
ReplyDeleteआज़ाद बदन के मुल्क में तुमने जीने के लिए इतनी शर्तें दीं कि हम ताउम्र गुलाम रहे.
ReplyDeleteजम गयी ये बात तो...
यातना और याचना के बीच फँसा अस्तित्व। बहुत खूब सागर साहब।
ReplyDeleteआज़ाद बदन के मुल्क में तुमने जीने के लिए इतनी शर्तें दीं कि हम ताउम्र गुलाम रहे...
ReplyDeleteज़ुबां से फलसफ़े गिरते हैं...
उफ़ सागर...किस पंक्ति को पसंद करूँ...क्या रहने दूँ. तुम ऐसा जब लिखते हो लगता है पूरी पोस्ट उठा कर कोट कर दूँ. '... अजीब बात है वो शाइर कैसे फकीरों सी दुआ देता था।' 'आज़ाद बदन के मुल्क में तुमने जीने के लिए इतनी शर्तें दीं कि हम ताउम्र गुलाम रहे.'
ReplyDeleteकिन शब्दों में तुम्हारी तारीफ करूँ. वापस आउंगी...कुछ शब्दों में लिखने कि पढ़ कर कैसा महसूस होता है.
बहुत अच्छा लिखा है...ये कहने से काम चल जाता काश!
@.ये कैसे हो जाता है या खुदा! कि दरख्त गुम हुए जाते हैं मगर उसके पत्ते हरे रह गए
ReplyDeleteऔर शब्द तैरते रहे आसमान में और सागर खो जाए....
कुछ लोग साहित्यकार टाईप हो रहे हैं.....ये सोच साहित्यकारों पे क्या बीतती होगी :)?
ReplyDeleteअगर पंख निकल आये तो बताना, उस्तुरा चलाने वाला कोर्स करने की सोच रहे हैं .....वैसे हमने तारीफ कि या बुराई ... एकदम ही कन्फ्यूजिया गए हैं.....ये शायरों की मिट्टी कहाँ मिलती हैं भाई .....एक शायर बनाना है
आपकी पोस्ट तो साग़र साहब गज़ब थी ही... वहाँ से गिरे तो प्रिया की टिप्पणी पर अटक गये... बड़ी देर से सोच में हैं कि आपने ऐसा क्या कह दिया पोस्ट में कि उन्हें उस्तरा चलाने की ज़रुरत आन पड़ी :) ख़ैर उनकी वो जाने.. आप तो संभल के रहियेगा... सुना है ये शायर / साहित्यकार टाइप लोग थोड़े सनकी भी होते हैं :):)
ReplyDeleteऔर हाँ ये साहित्यकार / शायर बनाने वाली मिट्टी कहीं मिलती है तो पता हमें भी बता दीजिये... इस वीकेंड पर फ्री हैं.. सोच रहे हैं हम भी कुछ बना ही डालें ख़ाली समय में :P
Beautiful expression .Thanks.
ReplyDelete