Skip to main content

जन्मदिन पर एकांत कोरस




तुम्हीं कहो आज तुम्हारे जन्मदिन पर क्या लिखा जाए? क्या नाम किया जाए तुम्हारे ? कम पड़ती ऊंगलियों के खानों पर तुम्हारे एहसान गिन कर पल्ला झाड़ लूं या कि किसी दीवार के सहारे पीठ टिकाकर अतीत का कोई दुख भरा दिन याद कर लूं। औपचारिकताएं तो मुझसे होंगी नहीं सो बेहतर है कि तुम मेरे बिना जीना सीख लो। आंख मत मूंदो कि हम हमेशा साथ रहेंगे। सच तुम्हें भी पता है लेकिन मैं जानता हूं कि लड़कियां थोड़ी अंधविश्वासी होती हैं और उनकी समझ में यही रहता है कि क्या बुरा है अगर कुछ करने या मान लेने से उसके मन का वहम बना रहता हो। आखिरकार सभी तरह के खटकरम लोग अपने चैन के लिए ही तो लोग करते हैं।

इस बार कुछ ज्यादा ही अलग और अजीब तरीके से तुम्हारा जन्मदिन आया है। मुझे खुद नहीं पता मैं ऐसा कैसे हो गया। मैं ऐसा हुआ या दुनिया ही बदल गई। भद्र पुरूष किसे कहते हैं। उसका पैमाना क्या है और मेरे कथन इतने निर्दयी कैसे हो गए। ऐसा क्या था मेरे और दुनिया के बीच जो नहीं बदल सका। पोल्ट्री फॉर्म में घुटने भर रेत में अंडे तो पड़े थे। दुनिया ने मुर्गी बन उसी डैने से वही आबो हवा मुझे भी दिया। फिर क्या था जो रह गया और सही तरीके से मेरा निषेचन नहीं हो पाया ?

लो तुम्हारे जन्म दिन पर मैं अपनी ही बकवास लेकर बैठ गया और अपने बारे में ही बताने लगा। क्रोस वर्ड की तरह सुंदर शब्दों की लाइन तो लगा दूं पर वो लिखना नहीं चाहता। दिमाग के सारे खाने खाली हैं और क्लोजअप देता हूं तो नज़र आता है छत पर ईंट के टुकड़े से खींचा चौकोर  खाना जिसमें तुम ‘कित-कित‘ खेलती नज़र आती हो। और अंतिम खाने पर जाने के बाद तुम्हें पूरी तरह से पलटना होता है। ऐसा कई बार होता है कि जीने और जीतने के लिए अपने को पूरी तरह बदलना होता है। वक्त के साथ चलना होता है। कई बार चाहकर भी कई बार घसीटे जाने पर भी। कई बार हम बदलते हुए भी मन में हारे होते हैं। लेकिन यह गलाकाट प्रतियोगिता का युग है। टूटता हुआ घमंड रात के अंधेरे के लिए बचा कर रखना होता है और दिन भर अकड़ कर रहना होता है।

चलो ऐसा करते हैं कि हम दोनों दो अलग अलग कमरों में बंद हो, अंधेरे में एक दूसरे को आवाज़ दें। सभी इंद्रियों की सारी चेतना तुम्हारे आवाज़ की लोच की ओर मोड़ दें। कान अपनी आंखें खोले हैरान सा एकटक देखे अंधरे से आती हमारे नाम की पुकार को। अब सब कुछ इतना देख लिया है कि सब कुछ अंधेरे में देखने का मन होता है। दृश्य नए नहीं लगते।

ऐसे कई पेड़ हैं जिनके नाम मुझे नहीं मालूम। एक ऐसा ही पेड़ देखा था जब हम गले में थर्मस लटकाए स्कूल से रास्ते भर किसी गिट्टी को पैर से मारते मारते लौटते थे, पाटलीपुत्रा में किसी मकान के अहाते में एक पेड़ है सालों भर हरा रहने वाला, बिखरे हुए महीन पत्तों वाला एक छरहरा पेड़, चिकने फर्श पर लगने वाला फूलझाड़ू सा उदास...

यह हकीकत है कि अब 'जन्मदिन मुबारक हो' कहना बस एक हवाई जुमला भर लगता है। .... आखिरकार कोई रीत हम कहां तक ढोएं...

काश तुम्हारे साथ फिर से वहीं से जी पाता। कमर भर बाढ़ के पानी में दवाई लाता हुआ और तुम सर्दी की किसी आधी को अपना चप्पल मुझे दे देती। फिर तुम्हारे चेहरे पर संतोष की एक परछाई देखता।

मैं जानता हूँ यह पतंग कोई नहीं काट सकेगा पर इसके मांझे हुए धागों से ही ऊँगली कटते हैं.

Comments

  1. आजकल जो लहकते हुए गुलमोहर का रंग तुम्हारी आँखों में दिखता है...खुदा उसकी आग को बचाए रखे. ए मेरे खुशकिस्मत दोस्त...सच में रश्क होता है तुम्हारी कलम से...कि कैसे तो खुशनसीब लोग होते होंगे जिनकी कलम से तुम लिखते हो :)
    कभी तुमसे मिली तो दवात में डुबा के लिखने वाली कलम गिफ्ट करुँगी तुम्हें...अब तुम उसमें सियाही भरो या अपनी आत्मा का उजाला...कितना सुन्दर लिखते हो सागर...कितना सुन्दर!

    ReplyDelete
  2. सागर साहब,
    मै आपके उन प्रशंसको में से हूँ, जो चुप चुप कर आपके सारे कृत्य का लुत्फ़ उठाते है, किन्तु लिख कर प्रशंसा के दो शब्द नहीं छोड़ते!

    सच बताऊ तो, आपको पढ़ने के बाद....सारी इन्द्रिय शुन्य पड़ जाती है.....जैसे मरने वक्त होता होगा, काम की लालसा पूरी करने के बाद होती है, या फिर जैसे सर्दियों के मौसम में अचानक से बहुत ही जोड़ की चोट जब लगती है....ठीक वैसे......समझ ही नहीं आता, की कौन से शब्द सटीक बैठेंगे आपके प्रशंसा में, कही कम तो नहीं पड़ेंगे...मैंने आपकी पहली रचना से आखरी तक पढ़ी है....!! जब से आपको पढ़ना शुरू किया, तक़रीबन डेढ़ साल पहले...तब से मैंने लिखना बंद कर दिया है!

    मुझे नहीं पता आप जीने के लिए क्या काम करते है....जो भी करते हो.....मै आपकी प्रकाशित कृत्य पढ़ने का इक्षुक हू.....और मुझे ऐसे लगता है....की आप जैसे लोग...हिंदी को वापस उस स्थान पे ले आयेंगे, जो इसका अधिकार है!

    हिंदी के प्रति मेरे बढे हुए रुझान में आपका काफी बड़ा हाथ है...

    लिखते रहिये.....

    किसी दिन आप से मिलने की इक्षा है.....एक व्हिस्की की बोतल, थोड़े से बर्फ क्यूब्स, पटना के गोल घर वाला चिनिया बेदाम, और एक पैकेट क्लास्सिक रेगुलर.... गम ऐसे ही अच्छे लगते है, गीले मसालेदार, नशीली और धुए जैसी....!

    Rajeev Ranjan

    ReplyDelete
  3. भाई सब ये बताइए ये काश आता कहाँ से हैं...?
    कमबख्त जब देखो तब हाजिर....
    कोई काम वाम नहीं है क्या इसको..
    जिन्दगी के हर मोड़ पर इन्तेजार करता मिलता है...
    ''काश'' बोर करता है लेकिन सच्चा साथी है...

    ReplyDelete
  4. @ राजीव रंजन सरकार,

    आपने तो खुद बेहतरीन बिम्ब के केंचुल उतार दी है. इतनी तारीफ़ का भागी नहीं लेकिन इस आत्मीयता के लिए शुक्रिया तो नहीं कहूँगा. और भाई आप भी लिखो. मेरा पढ़ कर अपने पर यूँ ज़ुल्म मत कीजिये. हमारी वजह से हिंदी में रुझान बढा इस पर तो गले लग जाओ.

    मेरी हिंदी खुद कमज़ोर है. घनघोर व्याकरणिक गलतियाँ करता हूँ. लेकिन इसे मैं कम करने कि कोशिश कर रहा हूँ पिछले ३ साल से (जैसे इंग्लिश सीखने कि कोशिश पिछले नौ साल से हो रही है और आज भी माशाल्लाह है ) ये ताकत अहमद फ़राज़ ने दी है जो कहते थे "अगर आपको कहना तो वो ज़ज्बात अपना फॉर्मेट खुद ढूंढ़ लेता है"

    रही मिलने कि बात तो... अंमित पैरा में तो आप खुद गजब ढा रहे हैं. हमारी प्यास का ख्याल रखा तो इसका शुक्रिया बनता है.

    ReplyDelete
  5. बहुत कम जगहें हैं ब्लॉग जगत में जहाँ पढ़ कर सोचना पड़ता है...आपके लेखन ने हमेशा कायल किया है...इस बार भी कोई अपवाद नहीं है...आप लिखते नहीं कमाल करते हैं...बधाई स्वीकारें.

    नीरज

    ReplyDelete
  6. सागर साहब,

    एक आप ही नही है हमारी उदासी का सबब
    और भी बहुत है दिल के करीब...!
    आपको पढना किस तरह की सवेंदना की चासनी मे डुबा देता है उसको ब्यां नही किया जा सकता...बस दिल की धडकन आपको पढते-पढते बढती चली जाती और ऊकडू बैठकर....अतीत का चलचित्र देखने लगता हूँ।
    उम्दा,बेहतरीन,लाजवाब लेखन...अब शायद हम भी किसी के जन्म दिन पर आपकी इस पोस्ट का लिंक मेल कर दें...

    आमीन

    डॉ.अजीत

    ReplyDelete
  7. एक खुबसुरत सौगात की तरह है यह पोस्ट... इसकी गहराइयों में फिसल कर और ऊँचाइयों को छू कर मन खामोशी पहन सतह पर डूबते हुए आकाश छू लेता है ...

    ReplyDelete
  8. आंख मत मूंदो कि हम हमेशा साथ रहेंगे। सच तुम्हें भी पता है लेकिन मैं जानता हूं कि लड़कियां थोड़ी अंधविश्वासी होती हैं और उनकी समझ में यही रहता है कि क्या बुरा है अगर कुछ करने या मान लेने से उसके मन का वहम बना रहता हो।काफ़ी जानते हो..:)
    अच्छा जन्मदिन किसका है?
    टिप्पणियां पढ़ के खुश तो बहुत हो...
    PS:BTW लिख क्या रहे हो आज-कल ?

    ReplyDelete
  9. बात सही या गलत हिंदी लिखने की नहीं...आपकी लेखनी....कम से कम उस परिवेश से आये लोगो को अपनापन देती है, लगता है जैसे हम ही महसूस कर रहे हो......और आपकी रचनाये तो उन्हें खूब लुभाती है....जिन्होंने प्रेम किया हो, या कम से कम, इसकी परिकल्पना की हो.....!!!

    कभी नखरों और झगडो के सेहर दिल्ली आना हो....तो जरुर बताइयेगा.....आपसे मिलके अच्छा लगेगा....अगर अभी भी पटना में रहते हो ....तो मालदा आम जरुर लेते आइयेगा....हाहहाहा

    irajman@gmail.com
    http://bharatmelange.blogspot.com

    ReplyDelete
  10. अभी याद आया, शायद आप भी इसी शहर में रहते है......अपना तो इस शहर में बिहार से एक ही संपर्क रह गया है......बिहार शब्द विहार से आया और मै मयूर विहार में रहता हू

    हाहा

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार ...

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष...

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने  ...