ऑफ स्टंप से चार ऊँगली दूर गुड लेंथ गेंद, पॉइंट में चौका मारने का प्रयास, बल्ले का बाहरी किनारा .... और गेंद स्लिपर के हाथ में!
सुबह साढ़े तीन बजे सोया और सवा नौ बजे उठना हुआ। फिर भी अभी नींद आ रही है। पलके आधी मूंदी हुई हैं और ऐसे में गौतमबुद्ध नगर से गाड़ी होती हुई दफ्तर आई। जाने कितना तो विशाल है भारत। कहीं दो सिलसिलेवार मकानों की लड़ी के बीच पार्क होता है जहां कोई बैठने वाला नहीं होता फिर भी माली दिल्ली विकास प्राधिकरण माली लगाते हैं जिनकी तनख्वाह चौदह हज़ार होती है तो कहीं मकानों का ऐसा जमात होता है जिनपर प्लास्तर नहीं चढ़ा होता। उनके बीच कीचड़ भरे रास्ते होते हैं। वो कीचड़ भी गहरा ज़ख्म लिए होता है कि पता चलता है काला पानी दूर तक छींटे के रूप में उड़ा होता है कि अभी अभी कोई ट्रैक्टर उनको रौंदता हुआ गया है। शहर को परखना इन्हीं अलसाए हुए पलों में होता है। शहर तभी चुपके से हमारी रगों में दाखिल हो जाता है। जहां पाॅश इलाकों के रास्तों पर कमर में हाथ डाले, जाॅगिंग करते फिरंगी टाइप लोग घूमते हैं। या बेदखल किए हुए बौद्धिक बुजुर्ग वहीं गंदी मकानों की श्रृंखला में जिंदगी सांस लेती है। सायकल के टायर घुमाते नंगे बच्चों की बाजियां हैं। एक मधुर टुन टुन सा संगीत है। मौसी का किरोसिन लाना है और फलाने का पोता आया है तो दो सेर दूध भिजवाने तक की चिंता है वहीं धनाढ्यों के बंगलों में एक सन्नाटा पसरा रहता है। कई कई मकानों की खिड़कियां महीनों नहीं खुलते। एक में झुकासो इनन अगर खुल भी जाता है तो दूसरा भी ग्राउंड फ्लोर पर आहूजा रिजेंसी खुलवा लेता है।
हम सभी अपने अपने लेवल के हिसाब से बाहर भागते हैं। कोई मधुबनी, सहरसा से पटना आता है। तो पटना वाला दिल्ली, मुंबई। दिल्ली वाले न्यूयार्क, आॅस्ट्रेलिया जाते हैं। सबके अपने बंटे हुए सरोकार हैं।
कितने तो पेड़ हैं, विलुप्त होते पक्षी हैं। आवाज़े हैं। राग है। भोर का गाढ़ा मेघ है। सारस की लम्बी चोंच है। दिन के हल्के नीले बादल हैं। साफ आसमान है उनमें फटे हुए दूध की तरह उजले उजले बादलों का फाहा है।
शहर को महसूस करने के लिए वहां इश्क होना बहुत लाजमी है। क्योंकि इश्क के बुखार में हर चेहरे में वही नज़र आता है और वही देखने के लिए हम मारे मारे फिरते हैं। इस गली से उस मोड़ तक। जाने कौन कौन से अनजाने और अनचीन्हे रास्तों पर भटकते हैं। जाने कहां कहां जाकर क्या क्या तलाश करते हैं। पता करते हैं कौन सी जगह सिगरेट फूंकने और दारू पीने के लिए मुफीद जगह रहेगी। कौन सा और किस जगह का पेड़ उनका नाम लिखने के लिए उपयुक्त रहेगा। अमरूद का स्वाद जीभ की नोक पर कैसा लगता है और तालु पर जाकर कितना हल्का हो जाता है। उनसे मिलकर आने पर धतूरा को फूल बैण्ड बाजे वाला का साजो सामान लगता है और उमस भरी दुपहरी में किसी काली मिट्टी वाले खेत में उतर कर लाल साग वाले खेत में डूब जाने का मन होता है। घर से थोड़ी दूर किसी झोपड़ी से आते विविध भारती, मुंबई से आती दिलकश आवाज़ें रह रह कर अटकती है और गुमां होता है कि जैसे उद्घोषक को हमारा हाले दिल मालूम हो। ऐसा लगता है वो हमारे लिए ही यह सब गाने बजा रहा हो। हम ट्यूशन पढ़ाते हैं, पैसे बचाते हैं और दूसरे महीने के वेतन से एक रेडियो ख्चारीद कर लाते हैं। फिर सुबह पांच - पचास के वंदे मातरम् से रात के ग्यारह दस तक का जय हिंद सुनते हैं। इस दौरान शहर मिलता है और परिवेश की आबोहवा में हमारा जिस्म सिचंता है। पोर पोर भींगता है। गोया यह कोई बूढ़ों प्यार थोड़े ही है कि बस पार्क में कुर्सी लगा कर बैठ किसी दूब के खिलने में प्रेम खोज रहे हैं ?
शहर यूं खड़ा होता है। ऐसे नहीं कि ढ़ाई बजे रात को रिज रोड पर के जंगल के पास उतार दिया जाए और लाॅरी वाले से मिन्नत कर उसमें पीछे बैठना पड़े और महसूस हो कि अप्रवासी भारतीय हों और गुलाम बना कर गुलामी करने माॅरीशस भेजा जा रहा हो।
हाय तुम्हारा ये शहर सागर...इससे तो किसी को भी प्यार हो जाए...हमको तो खैर हो ही गया.
ReplyDeleteकितनी लाइनों में अटके..खुद को ढूँढा और पाया भी. ऐसा खिला खिला शहर कितना जिया हुआ लगता है. पता है पटना में पहली बार जब रहने के लिए गए थे तो जुलाई का महीना था और बारिश के कारन हर तरफ पानी ही पानी...स्कूल के पीछे से गंगा के होने का आभास आता था...हिलोरें मारते हुए.
पहली बार में शहर बहुत गन्दा लगा था...पाटलिपुत्र में होने के बावजूद...पर शहर रगों में ऐसा बहने लगा कि आज तक मौजूद है...तुम एकदम सही कहते हो कि 'शहर को महसूस करने के लिए वहां इश्क होना बहुत लाजमी है।'
बहुत अच्छा लगा आपका ये आलेख। एक समय के अपने शहर को आपकी आँखों से देखना अच्छा लगा। 'एक समय का' इसलिए कि अब उससे वो इश्क़ नहीं रहा। कारण तो आप इंगित कर ही चुके हैं। मैं कभी पटना को इन नज़रों से नहीं देख पाया क्यूँकि ज़िदगी की असली ज़द्दोजहद किसी और शहर से शुरु हुई। ज़िदगी के वो पन्द्रह साल कबूतरखाने , बोरिंग व बेली रोड तक ही सिमट गए जिन्हें कभी यहाँ याद किया था।
ReplyDeleteख़ैर एक बात और बचपन के उन दिनों में रेडिओ के क्रिकेट कमेंट्रेटर होने का सपना देखा करता था इसलिए आपका शीर्षक तुरंत यहाँ खींच लाया। शीर्षक में 'स्लीपर' की जगह "स्लिपर' कर लें नहीं तो लोग क्रिकेट को सोने वालों का खेल समझ लेंगे।
सुंदर कोलाज सा.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सार्थक अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
ReplyDelete@ मनीष जी,
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया, 'स्लिपर' सुधार दिया गया है.
कसम से अपुन तो क्लीन बोल्ड हो गए ..."डक" पे
ReplyDeleteपढ़ते हुए कुछ गुम सा है....क्या मालूम नहीं .....शहर, लेखक, व्यक्ति एक लेकिन ..हर बार शख्सियत जुदा...इंसान की आधी उम्र खुद को समझने में और दूसरों को समझाने में जाती है .....वाकई अजीब हो सागर
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