Skip to main content

शहनाई की छोटी-छोटी, तीखी धुनें-1


लौटना पहले भी हुआ था जब उसका पीछा करते करते उसके घर पहुंचा था, ग्रिल को पकड के उसे एक मौन आवाज़ दी थी. लड़की तब भी नहीं पलटी थी. करना तो प्यार था, लेकिन शुरुआत दोस्ती से भी हो जाए तो क्या बुरा है. मगर ये कहने में ही चेहरा लाल हो आया. भरे बाज़ार जब हाथ में एक कागज़ ले कर यह कहा तो चेहरे पर की आग से हाथ के कागज़ पिघल गए. हाथ के कागज़ प्यार के ख़त थे लेकिन इस वक्त किसी थर्ड क्लास सिनेमाघर की बेहद सस्ती सी टिकट लग रहे थे जो हथेली के पसीने में ही गल जाते हैं. 

सबसे महान प्रेम सबसे सस्ते तरीके से शुरू हो रहा था. 

XXXXX

उस सदी में पटना की सड़क पर ऑटो हिचकोले खाते हुए चलते. बोरिंग रोड पर के मुहाने पर के रेस्तरां में लड़का पहली बार डेट पर था. टिप से वास्ता ना था लेकिन दोस्त ने बताया था की कुछ पैसे प्लेट में छोड़ देना. बहरहाल दोनों ने आंचलिक भाषा में बात करते हुए विश्व कवियों की भाषा को मात दी. छोड़ना वो कुछ भी नहीं चाहते थे मगर सब छूट रहा था. सीट पर लड़की के कुल्हे की गर्माहट से लेकर, वेटर को दिया गया ऑर्डर तक... 

उस सदी का फलता हुआ इतिहास, भूगोल जब अब इतिहास है. 

XXXXX

हिचकोले खाते सड़क पर दोनों की वापसी थी. रुढ़िवादी समाज में दिखाए गए साहस और बिताये गए कुछ खुशनुमा पलों के बाद लड़के ने अधिकारवश लड़की का हाथ पकड़ लिया. कहना कुछ नहीं था, कहने को कुछ नहीं था. हवा का एक कतरा कहीं से बह निकला. शैम्पू किये हुए लड़की के दो खुले बाल लड़के के सूखे होंठों से चिपक गए. अब भी कहना कुछ नहीं था फिर भी कहने को कुछ था. उसने कहा - तुम्हे बालों का स्वाद अड़हुल फूल के पराग जैसा है. लड़की झट अपने बालों को खीच यों ही कहती है - तुम लड़के हर वक्त चांस मारने में रहते हो. 

हालांकि अब भी कहना कुछ नहीं था और कहने को कुछ नहीं था.

XXXXX

लड़की को सलमान खान बहुत पसंद था और पसंद में आग में घी का काम फिल्म - तेरे नाम ने कर डाला था. लड़का उसकी तारीफ़ सुन कर जल उठता. लड़की उस तरह के जूनून भरे प्यार को बहुत पसंद करती. लड़के ने यह तय किया की वो लड़की को सलमान खान से भी ज्यादा पसंदीदा बन कर दिखायेगा. कुछ महीने बाद जब लड़की की शादी हुई तो लड़के के जिस्म  पर बरगद की तरह झुरमुट उग आये थे. पिताजी किसान थे, एक रोज़ उसने सब्जी में डालने वाली कीटनाशक की पूरी बोतल पी गंगा में छलांग लगा दी. पानी कम था वो बच गया. फिर एक दिन उसने अपना सर दीवार पर दे मारा. अभी वो बिना सर के चलता है. 

अंतिम पंक्ति लिखे जाने तक लड़की को सलमान खान पसंद है.

XXXXX

Comments

  1. ye prem ka nahi blogger se upnyaskaar banne k beech ka raasta hai, jis par aap chal nikle hain...bahut accha likha hai, khas kar bold ki gayi har line....

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ