ऐसे ही नहीं बनी जिंदगी। परिशिष्ट मिला कर 159 पृष्ठ। उसी में भूमिका भी। प्रकाशक और अनुवादक की ओर से कहा गया भी। विषयवार क्रम भी। फलाना आॅफसेट छपाई सेंटर, शहादरा, नई दिल्ली वाला पेज भी। इत्ता ही नहीं गुज़रा था जीवन। 159 पृष्ठों जितना। साॅरी 140 पृष्ठों जितना।
कई बार संभोग के बाद पैदा करने का ख्याल आया था। फिर बहुत कम तो आठ महीने लगे ही होंगे धरती पर आने में। इस दौरान कितने जागते सोते सपने ! प्रसव पीड़ा के बाद हफ्ते दस दिन तक तो मां के शरीर में जान ही नहीं। पीली पड़ गई थी। कैसी बिस्तर पर पड़ी पड़ी थकी रहती थी। फिर भी खुश ? काहे भाई ? तो बगल के पालने में एक संतोष लेटा है। और बहुत सारी संतुष्टि होंठो पर एक ढीली किंतु मुस्कान खींच लाने में सफल हो ही जाती थी। हर बार पालना डोलता तो कतरा कतरा बढ़ना होता। फिर भी यह गौण हो गया।
एक अरब दुःख सहे तो कुछ एक पैराग्राफ लिखा गया। कई साल गुज़रे तो उसे एक हाइकू में तब्दील कर दिया गया। कुछ अपने लिए जुटा कर रखा गया तो दिलदारी इतनी कि उसे दूसरों को याद करते हुए कुर्बान कर दिया।
जैसे बड़ा लज़ीज़ व्यंजन था। मौर्या लोक पे एक अलग अलग शहरों से कामगार दोस्त एक करवट बदलती शाम मिले थे और दुकान वाले को टाईट ग्रेवी वाली मेनचूरियन बनाने को कहा था। कितने तो प्याज थे, भूने हुए उसमें, चटख रंग था। प्लेट में डालो तो तिरछा करने पर भी धीरे धीरे ग्रेवी लरज़ती थी। बस वही स्वाद था। जिं़दगी थी। बाकी सब नेपत्थ्य से आती आवाजे़। सामने विवेकानंद की आदमकद मूर्ति उसके नीचे लिखा - उठो, जाओ और अपने लक्ष्य को प्राप्त करो से आंख बचाते हुए, इग्नोर करता। पल पल बढ़ता अवसाद भी था लेकिन धीरे धीरे यह इल्म होने लगा कि अपने ही अंदर एक ड्रम भी है जहां यह जमा होता जाएगा। खेल जो खेला जा रहा था परदे पर बस उसी की अहमियत थी। उसी ने ज्यादा से ज्यादा पृष्ठ लिए।
कुछ देने के लिए जीवन भर प्रयासरत रहता। एक प्रयास यह भी कि देखें इसे कितने लोग पकड़ रहे हैं और लोग इन चीजों को खोज कर इसके पीछे आएं, मेरे पीछे नहीं। थेसिस, शोध-पत्र सब। बस कुछ ही पन्नों में सिमटा हुआ। चाहा जा सकता तो किताब बड़ी हो सकती थी लेकिन यहां भी जीवन का दर्शन वही। बस एक इशारा। सिग्नल पकड़ सकते हो तो पकड़ लो। लापरवाही में एक परवाह। अपने को नकारते हुए एक महान उद्देश्य का ज्ञान।
देखते ही देखते सजल आंखों में एक बांध बनता है और सामने नदी तैयार हो जाती है। सेतु बनाने में व्यस्त कलाकार फिर नहीं रहता। रहती है - 159 पृष्ठों की एक बेहद मामूली किताब। इस कमज़ोर इशारा। जैसा कि एक लेखक ने लिखा है - पत्ते को छुपाने की सबसे अच्छी जगह है जंगल।
शब्द ढ़ाढस दे पाता न रूमाल आंसू पोंछ पाता।
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