हां बाबूजी, पचास का नोट मैंने पूरा का पूरा बचा रखा है। बेशक दो दिन हो गए, मैंने अभी तक कुछ नहीं खाया है और अभी कम से कम तीन दिन इस बात की नौबत नहीं आने दूंगा कि इसके खुल्ले कराने पड़ जाएं। दिन के डेढ़ बज रहे हैं। और मैं ट्रेन के जनरल बोगी से लगे स्पीलर क्लास की बोगी से सटे बाथरूम के बाईं ओर दरवाज़े पर खड़ा हूं।
हवा लू के गर्म थपेड़े लगाते हुए उल्टी बह रही है। मेरे बालों की मांग रोजमर्रा के की गई कंघी से उलटे दिशा में हो गई है। मैं राॅड पकड़ कर झूल रहा हूं। थोड़ी थोड़ी देर पर चक्कर आते हैं और बहुत संभव है मैं गिर कर बेहोश भी हो जाऊं लेकिन मैं इस बात की यकीन दिला देना चाहता हूं कि बेशक मैं कहीं भी गिरूं, चाहे वो नदी हो, पहाड़ हो, पुल हो, बाड़ा हो, खाई हो, या जंगल हो मैं अपनी मुठ्ठी से यह पचास रूपए का नोट छूटने न दूंगा। यह मेरा अपने पर असीम भरोसा ही कह लो कि मैं इस मामले में अपनी जेब पर भी भरोसा नहीं कर रहा। जेब से जुड़े अपने खतरे हैं। कोई जेब मार सकता है। मेरे पैसे खुद-ब-खुद कहीं गिर सकते हैं लेकिन अगर कोई मेरे इस मुठ्ठी में बंधा पचास का नोट छीनना भी चाहेगा तो उसे पहले मुझसे लड़ना होगा। मेरे बाजू में अभी उतनी तो ताकत नहीं, हो सकता है कि मैं मारा भी जाऊं। लेकिन मेरी मौत के बाद भी अगर मेरे हाथ से वो नोट खींचेगा तो दो टूकड़े में होकर ही उसके पास आएंगे।
इससे पहले मैं आपको बता दूं कि मैंने यह मुंबई-कुर्ला एक्सप्रेस रेलगाड़ी पास के स्टेशन से नहीं बल्कि डेढ़ मील दूर वाले हाल्ट से पकड़ी। हालांकि वो हाल्ट है इस कारण वहां एक्सप्रेस गाडि़या नहीं रूकती अलबत्ता गाड़ी धीमे जरूर हो जाती है। रहा सहा काम बिना फाटक रेलवे क्रोसिंग पर थोड़ा थमकर चलने का ईशारा देते मेरे झंडे दिखाने वाले दोस्त ने कर दिया। यकीन जानो बाबूजी चलती ट्रेन से ज्यादा खतरनाक कोई विलेन नहीं होता। उसकी सीढि़यां कहीं भी सुविधाजनक नहीं होती। कई मीटर दौड़ने के बाद मैं उसका ऊपरी पायदान पकड़कर लटक गया। मेरे घुटने और जांघों पर उसके कस कर लिए गए चुंबन के निशान अब तक ताज़ा हैं और यह गहरे सुर्ख लिपस्टिक से भी ज्यादा लाल, रक्तिम और छलछलाई हुई हैं। और ताजादम इतना कि जैसे नदी के अभी-अभी पकड़ी गई मछली के गुलाबी-लाल गलफड़े।
कुल मिला कर मेरी अब तक की यात्रा बेहद सुरक्षित, सफल और आरामदायक रही है जैसा कि प्लेटफाॅर्म पर उद्घोषिका कामना करती रहती है। सेम टू सेम। यह सब मैं आपको इसी दरवाज़े की राॅड पकड़ कर इस पर लरज़ता हुआ सुना रहा हूं। यह कोई हसीन लम्हा सा लग रहा है ऐसा कि मैं अपने पहले प्यार में हूं और बड़ी कोशिशों के बाद आज जब प्रेमिका को प्रपोज किया तो वो पहले थोड़ा शरमा कर, फिर हंस कर मान गई हो और अब मैं जो जीता वही सिंकदर में आमिर खान की भांति पहला नशा, पहला खुमार के अंदाज़ में पेड़ की डाल पकड़ कर हवा में उड़ने की कोशिश वाले सीन की नकल कर रहा होऊं।
रह रह कर ट्रेन हिलती है। जैसा भूखा इंजन चलता है। जैसे बहुत ही खटारा बस या आॅटो लोगों के लदी हुई बिना नकली पेट्रोल और बिन मोबिल की चिकनाई सा चलता हो। एक पटरी को छोड़ कर दूसरे से जा मिलती है। रास्ते जि़ंदगी की नई राह खुलते जैसे चलते हैं। आप गौर से पटरियों को देखते रहो और अचानक से वो उस सिरे को छोड़ देती है। अभी आप इस किनारे यानी सबसे आखिरी लेन में चल रहे हो तो अगले ही पल अपने को पटरियों के मझधार में पाओगे, फिर एकदम बाईं तरफ। तय किए गए सफर को पीछे पलट कर देखो तो यह स्टेज पर खेले जा चुके नाटक के बाद गिरा हुआ ताजातरीन पर्दा लगता है।यह भारी सी मशीन बड़ी ज़ालिम सी चीज़ होती है बाबूजी! यह काॅमिक्स के किरदारों के दिमाग में अचानक से नया आईडिया आने जैसा लगता है। रेल आशिक है कई पटरियों के साथ बेवफाई करती चलती है। यह गोन विद दि विंड के टाइटल जैसी है, खुद मंजिल पर पहुंचने के चक्कर में बड़ी ही प्रैक्टिकल लेकिन सबको नोस्टोल्जिक करने वाली।
मुझे यह दिन सा प्रतीत हो रहा है कि मेरे चेहरे पर एक स्मित सी मुस्कान है। हालांकि मेरा गला सूख रहा है लेकिन मैं इस समय एक बेहद मीठा सपना देख रहा हूं। देख रहा हूं कि सड़क पर रहने, भूख पर विजय पाने और बेमतलब समंदर किनारे बेरोज़गार बैठे रहने के एक महीने बाद मुझे एक काम के एवज में बतौर एडवांस कुछ पैसे मिले हैं। मैं सदियो बाद ढ़ाबे के बाहर एक बेंच पर दोनों तरफ पैर लटकाए चाय बिस्कुट लिए बैठा हूं। खाने से ज्यादा उन दोनों को देखना हो रहा है। जि़दगी की रेलगाड़ी जाने किस प्लेटफाॅर्म पर ठहरी है कि गरीबी की सोहबत में पले बढ़े आदमी को ओबेराय होटल के सुईट न॰ 234 पर कहानी लिखने को मिला है।
मैं कुछ भी करूंगा बाबूजी। इस काम को भी उस पचास रूपए की तरह पकड़ लूंगा। हरगिज़ इसे हाथ से जाने न दूंगा। यह सीन बिल्कुल असली है। माना कि वक्त उस्ताद है और इस नाते वह वज़नी राग छेड़ डरा रहा है। लेकिन मैं भी जुगलबंदी कर दिखा दूंगा कि मैं भी तुमसे ज्यादा नहीं तो बराबर का उस्ताद हूं।
शीशे के ग्लास की अंतिम घूंट पी कर बेंच पर रख रहा हूं, काठ की बेंच पर ग्लास की गोलाई उभर आई है। एक लहजे के लिए लगता है, सरकार ने जो नई वाली एक रूपए का सिक्का चलाया है, रखा है। काश कि उठा सकता।
पर उतने में क्या मिलेगा, इसका वचन नहीं है।
ReplyDeleteरेल आशिक है कई पटरियों के साथ बेवफाई करती चलती है। यह गोन विद दि विंड के टाइटल जैसी है, खुद मंजिल पर पहुंचने के चक्कर में बड़ी ही प्रैक्टिकल लेकिन सबको नोस्टोल्जिक करने वाली।
ReplyDeleteAwesome Saagar Awesome...
..Entire Post !!
नये नये आईडिया ऐसे आते हैं !
ReplyDeleteमहेन के बाद तुम्हे पढ़ा ....शीर्षक अपीलिंग है.....उम्मीदे बढाता है ..चित्र भी उसके पेरेलल है क्वालिटी में ....अंत उतना ही क्लासिक है इस पोस्ट का ....तुम्हे पढता हूँ तो लगता है प्रमोद जी की तरह अपने आप को ब्लोगर बनाये रखने का कोई दबाव नहीं है तुम पर ......as darpan rightly said..Awesome Saagar Awesome...
ReplyDeleteआज फुरसत मिली पचास का नोट भूनाने की... ग्लास- बोतल, आशिक, आशकी, प्यार, बेवफाई, मुंबई की रेल, ओबेराय होटल का सुईट...सौदा मिला हजारों का...
ReplyDeleteवाह जी इस पचास के चक्कर ने तो खूब घुमाया आपको.. माया है माया.. हम सब इसका हिस्सा..
ReplyDeleteशुरुआती धुंध के साथ फिर यह पोस्ट भी आपकी रेल की तरह गति पकड़ती है और अपने गंतव्य पर सही सलामत पहुँचती है जैसा वो उद्घोषिका चाहती है..
बढ़िया है...