पुरानी झील का पानी हवा से इत्तेफाक रख रही थी। छोटी छोटी नावों में बैठे जोड़े हौले हौले पैडल मार रहे थे। मुहाने पर बांस को ज़वान होता पेड़ था। थोड़ी सी हवा लगने पर ही खिलखिला कर हंसा करता। एक डाली लरज कर पानी में गिर आई थी। जब हवा तेज़ चलती पानी से डाॅल्फिन की तरह निकलती और पास के बोट में बैठे जोड़े पर छींटा मार उसका स्वागत करती। बांस का पेड़ उभयचर बन गया था। जैसे मेंढ़क, मगर और कछुआ होता है। जल और ज़मीन दोनों पर रहने वाला। थोड़ा ऊपर अड़हुल का छोटा सा पौधा था। लेकिन कहने भर को छोटा। हुस्न टूट कर बरसा है उस पर। पत्तों से ज्यादा फूल खिले हैं। सुर्ख। हवा तेज़ होती। सब आपस में लड़ने लगते। ऐसा भी लगता जैसे किसी ने चुटकुला सुनाया हो और हँस हँस कर पेट दर्द हो रहा हो। कई बार ऐसा भी लगता एक ही घने पेड़ में ख्वाहिशों भरी कई कई पतंग फंसे हों। गोया पूरा नज़ारा ही ईश्क से फल फूल रहा हो।
और किले के ऊपरी खिड़की पर जहां से पूरा आसमान दिखता है और नीचे से सिर्फ खिड़की देखो तो एक आसमान का एक टुकड़ा दिखता है। एक संगत बैठती है। कुछ हस्सास तो कुछ कद्रदान की मंडली। शायर से पेशकश की जाती है। बहुत मान मनौव्वल के बाद वादी ताकते शायर के होंठ मटर की छीमियों से फटते हैं। होना तो नज़्म चाहिए था लेकिन मुआ शेर पढ़ता है। पढ़ने का अंदाज़ यों जुदा कि दो लाइन के एक शेर नाटक के तीन अंक में ढ़ल जाते। आसपास कई नौजवान फसाने बैठे थे जिन्हें कुछ समझाने की जद्दोजहद नहीं होनी थी।
मिसरे के पहले दो लफ्ज़ फसाने को बुलंद करते हुए वालिद की पालते पोषते से दिखते। साथ ही इनमें मुहब्बत, यार की गली, वस्ल, हिज्र, हस्सास लम्हें, दर्द के साज़, याद की रोशन शम्मा जलती हुई दिलचस्प रास्तों की ओर जाने का इशारा भी होता। शुरूआती महज़ दो लफ्ज़ एक बुनियाद भी होती और अपनी अपनी तरह से मंजिल पहुंचने की चाहत भी। लेकिन शायर को अपनी कहनी थी अपने बहाने सबकी कहनी थी। कहना कम में था लेकिन सबका ज्यादा कहना था। यह कहन पूरी जिंदगी, इश्क और एहसासात को जी लेने के बाद दिल के दरवाज़ों और खिड़की से निकलना था। जो खिड़की से निकलती वो घुटन का कहन होता। जो दरवाजों से निकलता वो सबके जीने की हक में दुआ होती।
शायर की कोशिश होती कि ग़ालिब, मीर, अदम, फि़राक, फैज़, जोश, मजाज़, जाफ़री वगैरह को पढ़ने के बाद जो शेर कही जाए वो एहसास का लिहाफ ओढ़े हालात, इंसानी मनोभाव और उसमें अपना एटिट्यूड भी समेटा जाए। शेर कहना बिछी हुई बिसात पर खुदा के साथ संगत करना था। कभी सजदा करना था तो कभी जुगलबंदी। कभी उसे चुनौती भी देना था।
पहली लाइन पूरी होती दूसरे को अधूरे पर बार-बार दोहराता। लोग तब तक जुड़ चुके होते। शायर तब कोई देवदूत या आवामी नेता लगने लगता। साथी पूरी रोचकता से सुनते और आखिर तुरूप का पत्ता फेंक दिया जाता। नाटक के तीनों अंक - आरंभ, मध्य और अंत संपन्न होते।
हमजुबां मिले तो शायर फट पड़ा। एक के बाद एक कई तीर छोड़े गए। कमोबेश सभी निशाने पर लगे। दर्दमंद यार-दोस्त मदमस्त हो गए। ढ़लती शाम के साए में पेचीदगीयों बादल जम कर आसान हो बरसे। पूरा शहर नहा उठा।
मैं भी उन्हीं यारों में से था। वहां से गुज़रते हुए जब ऊपर किले की खुली खिड़की देखता हूं तो एक टुकड़ा जुदा आसमान दिख्ता है। उस शाम की याद आज भी आती है। आंख बरबस सुख के आंसू से गीली हो जाती है।
जो आदमी के परे जाता है, ईश्वर का हो जाता है।
ReplyDeleteकभी गई तो नहीं वहाँ पर जाने क्यूँ लगता है इस पुरानी झील से कोई पुरानी जान पहचान है... वहीं झील किनारे बैठ के किसी शाम एक शायर से कुछ नज़्में सुनने कि ख़्वाहिश है... देखिये हमारे आसमां का वो टुकड़ा कब नसीब हो.....!
ReplyDeletesundar bhaavpoorn lekh...!
ReplyDelete***punam***
bas yun...hi..
tumhare liye...