Skip to main content

हर कण की मर्ज़ी थी आत्महत्या. यह देर-सवेर सबका अपना-अपना समवेत निर्णय था.


गांव आने के बाद सब कुछ नया नया लग रहा था। नया नया गांव लग रहा था। गांव भी नया-नया ही लग रहा था। नीले आसमान में कहीं कहीं ठहरे हुए उजले बादलों का थक्का तो पुराना था लेकिन उससे रूई की तरह एक-एक टुकड़े का छूटना नया था। ज़मीन सामान्यतः समतल ही थी लेकिन कदमों को ढ़लान लगना नया था। उसमें छिछले भंवर बन चार मुठ्ठी पानी का जमाव का लगना नया था। पेड़ में लगे हुए पत्ते नए लग रहे थे। दोनों तरफ घास लगी हुई पतले से रास्ते पर पगडंडी भी नई लग रही थी। रास्तों से ज़रा सा पैर भटका तो पैर को खेत में आया हुआ पाया। पैर के साथ साथ शरीर भी खेत में आ गया। पैर पहले आया फिर शरीर आया। फिर नएपन का एहसास और ज्यादा आया। रबड़ के पेड़ के पत्ते छूने पर कुछ ऐसे लगे जैसे ये दो चार दिन पेड़ से टूट गिर भी जाएंगे तो बेजान नहीं लगेंगे। मटर की छीमियों के पेट चीरे तो गोल गोल दाने थे। कुछ छोटे छोटे दाने भी थो जो काग़ज़ पर एक मोटे बिन्दु की तरह लगते थे। अब मन भी नया हो आया था। मैं भी अपने आप को नया लग रहा रहा था। जैसे ही इस नएपन का यकीन हुआ तो अचानक यह यकीन खो बैठा। इस संदेह को दूर करने के लिए मन से सहसा इसे बोलने का इरादा किया। मुंह से बहुत तोड़ तोड़ कर कहा - नsss याsss आ आ आsssssss - न या आ आ। यह बोलना नए नए बोलना सीखे बच्चे जैसा था। अतः इसे बोलने पर नयापन और ज्यादा लगा। पीछे से हवा का एक तेज़ झोंका नयापन लिए आया। ऐसा लगा जैसे किसी ने एक लोटा हवा पीछे के बालों के हिस्से में ज़ोर से मार दी हो। इससे सिर के पिछले हिस्से में कुछ नए उजले रास्ते बन गए। यह वहां का नयापन था। 

परती खेत, बोए खेत और पानी भरे खेत, रास्ते, पगडंडी और ढ़लान, गाय - गाय और बकरी भी, नीम, शहतूत, कदंब, गुल्हड़ और साथ में सखुआ के पेड़। पेड़, छाया और कहीं-कहीं उनसे झांकती धूप। बोरिंग और पतले, लचीले तलवारों जैसे मक्के के पौधे, इतने सारे नए दृश्यों को महसूस कर यकीन फिर उग आया कि शायद आंखों पर हरे रंग का चश्मा निकल आया है। मन ने फिर इस यकीन को संदेह से दृष्टि से देखा। और संदेह है या यकीन इसे परखने के लिए आंख पर हाथ फेरी। एकबारगी हाथ झूठा लगा। और फिर पूरा शरीर ही झूठा लगने लगा। इस वक्त अगर वज़न नापा जाता तो सूई शून्य से आगे नहीं बढ़ती। इतने सारे नएपन से संदेह का यकीन गहराता गया। यकीन और संदेह में फर्क करना मुश्किल हो चला था। हर यकीन संदेह लगता फिर उस शक को मिटाने के लिए कि संदेह ही है या यकीन संदेहपूर्वक एक यकीन भरा कदम उठाया जाता। 

जहां आया था पूरी तरह नई दुनिया थी। नयापन कुछ इस तरह था कि दुनिया, दुनिया न होकर कल्पनालोक थी। कल्पनालोक की दुनिया थी जो इसी दुनिया में था। स्तब्धता हावी थी, भौंचक्के से जीभ ऐंठे हुए लगते थे। ऐसा लगना क्षणिक ही रहा क्योंकि पहले यह यकीन आया फिर संदेह आया। ऐसे में पहले जीभ को बाहर निकाला सूखे हुए होंठों पर फिराई और पहले यह यकीन दिलाई कि हां जीभ पर जगह पर है वरना स्थिति यह थी कि बिना जीभ की शरीर की कल्पना भी इस दुनिया में संभव था। संदेह पर यकीन के लिए जीभ को दांत से काटा गया। जीभ सुन्न। संदेह का पलड़ा भारी हो गया। अबकी ज़ोर से काटा गया तो जीभ लहुलुहान हो आया। जीभ का लहुलुहान होना शरीर का अपने में लौटना में वापस लौटना  था। अब जा यकीन हुआ कि वो संदेह ही था। 

संदेह जो यकीन हो गया था। अब जाकर फिर इसका यकीन हुआ। पर नई दुनिया में ही  हर यकीन पर संदेह होना और संदेह को यकीन मानना संभव था। 

आश्चर्य यह लगा कि नई दुनिया इसी दुनिया में थी लेकिन दिन ब दिन इस पर संदेह गहराता जा रहा था। यकीन का बहुत अंदर तक गहरा यकीन था। संदेह की पुष्टि तुरंत की जाने की कोशिश की जाती है। ऐसे में नज़र नई नहीं थी इस पर जब यकीन होने लगा तो  तो संदेह हुआ। तो एक नए यकीन का सामना हुआ जो अब सारे सामान्य यकीन पर संदेह का पर्दा डाल अंतिम यकीन से रू ब रू करवा रहा है। 

इसके बाद यह संदेह फिर से बलवती हो गई है कि क्या मैं बोलना जानता हूं। बोल कर देखता हूं नsss याsss आ आ आ आ आsssssssssssssss..........................

Comments

  1. रेत के गिरने में एकता नहीं थी. गिरना तय था लेकिन उसकी भी अपनी कोई शर्त नहीं थी

    ReplyDelete
  2. जब सबने ही गिरने को निश्चय कर लिया है तो।

    ReplyDelete
  3. जैसे एक अरसे बाद ज़िन्दगी से मिल कर विस्मित हो उठे... जीने की आदत छूट जाने के बाद जैसे साँसे नई नई लगें... संदेह भरा सच... मृगतृष्णा सा...

    ReplyDelete
  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति, आभार

    ReplyDelete
  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति, आभार

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार ...

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष...

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने  ...