पूअर काॅन्शनट्रेशन का शिकार हो गए हो तुम। कि जब एक पूरी कविता तुम्हारी सामने खड़ी होती है तो तुम कभी उसके होंठ देखते हो कभी आंखें। डूब कर देख पाने का तुममें वो आत्मविश्वास जाता रहा है। ऐसा नहीं है कि वो अब तुम्हारे सामने झुकती नहीं लेकिन तुमने अपने जिंदगी को ही कुछ इस कदर उलझा और जंजालों के भरा बना लिया है कि उसके उभारों के कटाव को देर तक नहीं पाते। बेशक तुम वही देखने की कामना लिए फिरते हो लेकिन तुम्हारा दिमाग यंत्रवत हो गया है। तालाब में उतरते हो लेकिन डूब नहीं पाते, तुमने झुकना बंद कर दिया है। घुटने मोड़ने से परहेज करते हो और इस यंत्रवत दिमाग में संदर्भों से भरा उदाहरण है जो अब मौलिकता पर काबिज हो रही है। करना तो तुम्हें यह चाहिए कि... छोड़ो मैं क्या बताऊं तुम्हें, तुम्हें खुद यह पता है।
पर प्रभु लौटना भी तो इसी जनम में होता है न? आखिर किसी के भटकते रहने की अधिकतम उम्र क्या डिसाइड कर रखी है आपने ? खासकर तब जब सभी सामने से अपने रस्ते जा रहे हों। भले ही वो सभी अच्छे इंसान हैं मगर ऐसा क्यों लगता है कि नए घर में घुसने से ठीक पहले वो मुझे ठेंगा दिखा जाते हैं ? यह क्या होता है ? क्या सेटल हो जाने का संतोष ?
तुम्हीं तो आम के बौर बन जाना चाहते हो ? अपनी खूशबू परले मुहल्ले तक फेंक आना चाहते हो ! जब तुम स्वस्थ महसूस करते हो (जो कि तुम्हारे अपने हिसाब की परिभाषा है) तो सच कहो कि क्या नहीं देखना चाहते केसर के खेत, कोमल से ठंडल पर हल्की हवा में हिलती, थरथराती सरसों का फूल और मोटे ठंडल पर गर्दन में उठे दर्द की तरह धीरे धीरे सुरज के साथ मुंह मिलाते पूरब से पश्चिम हो जाते हुए सूरजमुखी?
दास्तोएवस्की ने कहा था ''तुम अपनी समस्याओं में लिथड़े हुए हो।'' मगर तुम सिर्फ नहाना चाहते हो। मुझे इस कथन में थोड़े संशोधन की जरूरत है। इसे ऐसे कहो कि तुम सिर्फ अपना बदन भीगाना चाहते हो। किसी कुंए में चढ़ आए पानी में बस ऊपर की राॅड पकड़ कर शरीर गीला करने का नित्य कर्म भर का कर्मकांड। एक स्वांग। और इसके बाद शिकायत लिए बैठ जाते हो कि तुमने बहुत कुछ किया।
तो यह कहां का लिख्खा है कि हर छोटी से छोटी चीज को पाने के लिए हर बार सब कुछ दांव पर लगाना ही होगा ? मसलन एक अमरूद खाना हो तो हाथ तोड़ कर पाया जाए, शेविंग करनी हो तो ब्लेड हर बार कुछ खून बेसिन के हवाले करे ?
जीने से जुड़ी और जीने में बहुत सारे उलझन हैं। एक फालतू सोचता हुआ दिमाग ना होता तो अपने लिए भी दिन एचीव करने जैसा और रात एन्जाॅय करने के लिए होती। शिव खेड़ा और स्वेड माॅर्डन के मुखारविंद से झरते कथनों में जीवन का सच्चा स्वार्गिक आनंद नज़र आता और मुंबईया फिल्मों की तर्ज पर प्रेम के टूटने की सालगिरह नए कपड़े पहन, बुके लिए हाथ में गिटार लिए मनाते।
तो यह तय रहा न कि वो सचमुच समझदार है जिन्हें पता है कि उन्हें जीवन से क्या चाहिए? तो फिर हम जैसा चूतिया क्यों बनाया ? महज इंसानी रिचर्स के लिए या फिर जब जाना हो तो ताल्लुक में रहे लोग सामने एक समझदार चुप्पी, पीठ पीछे एक कुटिल मुस्कान के साथ इन्वर्टेड कोमा में अनेक शब्दों का एक शब्द और चले जाने के बाद याद करके आह च्च ! जैसी ध्वनि निकाला करें।
* बच्चा पूछता है। बच्चा परेशान है। अम्मी ने कल देर रात उसके हाफ शर्ट में कोई चमकदार अठन्नी जैसा विक्टोरिया का सिक्का दिया था। इसके बावजूद रो कर सोया था। इतना रोया कि दिमागी मांसपेशियां थक गई और जैसे चिंता करते हुए नींद आती है वैसे ही रोते रोते सो गया। सुबह गोली खेलते हुए वो सिक्का किसी सुराख में गिर गया। गिर गया और बुलबुला तक नहीं फूटा। मां को बकवास तो सुनाई जा सकती है लेकिन कई सवालों को जवाब उसके पास भी नहीं होता। एक शीतल सा ठौर होता है कि वो अपनी बांहों में उदास आंखों के उलट उम्मीद भरी बात करती बच्चे को अपने ही जैसा पाते हुए छुपा लेती है।
अब हमारे सहारे की आदत ही कहिए कि अभी ना सिक्का पास में है ना मां तो बच्चा प्रभु को लपेट रहा है। तकलीफ इतनी कि साला कुछ इंसान इतना भरा हुआ क्यों पाया जाता है ?
महज़ छाती भर ही नहीं, ना पसली का पिंजरा ही, अन्दर एक विला है
सुक्कर बाज़ार का हाट है, सौदा बिके ना बिके चीख जरूर लेता है.
महज इंसानी *रिचर्स के लिए या फिर जब जाना
ReplyDelete*रिसर्च
हिज्जे सुधार लो...
पसलियों के बीच विला,
ReplyDeleteनकलियों के बीच गिला।
आपको गोवर्धन व अन्नकूट पर्व की हार्दिक मंगल कामनाएं,
ReplyDeletehmmm..
ReplyDeleteपन्नो से भरा विला है.... हर पन्ने पर एक ही प्रश्न... जीवन से क्या चाहिए?
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