एस: धूप में खेलते बच्चे, टाट की झीनी पर्दों से आती रोशनी, आंगन में चलते चापाकल की आवाज़ ?
वी: ना... ना... दरिया के बढ़ते पानी में कूदे डूबते बच्चे, मन भर गेहूं का ढेर, बीच खेत कमर भर पानी में लगा मचान।
एस: अच्छा ठीक, पुरखों की ज़मीन से निकले कलसी को सहलाना, कुलदेवी के लिए सात घाट का पानी और पुरानी घाट पर के संगमरमर को आंखों से सहलाना ?
वी: ना... ना... साफ पानी के ठीक दो इंच नीचे करवट लेती मछली, शर्मीला टैगोर जैसी आंखों वाली हिरण की कुचांले और अरहल की दाल को देसी घी में हल्के भूनने की महक...
एस: सहमत यानि कि ऊपरी अधरों को चूमना छोड़ उभारों के बीच का सीना और पतली कमर में गिटार का अक्स, श्वेत श्याम रंग में उभरे हुए कूल्हे यानी आमंत्रण देता कटा सेब और.... और....
(बात काट कर... )
वी: हां अबकी बिल्कुल ठीक, यानि वो नहीं जो होना ही हो बल्कि...
(क्राॅस करता हुआ एस)
एस: बल्कि हो ही जाने में एक अनजान डगर जो हो जाने को रोमांचक, अर्थपूर्ण, विस्तृत और अंत में अनुभव का विशद पुराण के बाद सारगर्भित कहलाए।
एस एंड वी: हंसी
(फिर इक्को)
http://www.youtube.com/watch?v=EwyXMvJtwEU
ReplyDeleteफिर इको...वाह...क्या कहूँ लाजवाब कर देते हैं आप...
ReplyDeleteनीरज
आपका ब्लॉग टाइटल हमेशा 'शौचालय' जैसा भ्रम पैदा करता है !
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