वो पार्क वहीं है, और आज मेरा मन भी सुबह से वहीं है। पार्क स्थिर किंतु मैं अस्थिर। पार्क में बदलाव बस इतना हुआ है कि वो आजकल सुबह और शाम धुंध के घेरे में रहती है। यों पार्क का बदन भी देखा जाए तो वो भी तुम्हारे जिस्म सा ही लगता है। बहुत हरा भरा पर खाली। हरी हरी दूब जैसे भरा पूरा तुम्हारा शरीर। पार्क के बीचों बीच एक लंबा लैम्पपोस्ट जैसे तुम्हारे मस्तिष्क रूपी ज्ञानेंद्रिय। थोड़ी थोड़ी दूर पर दो सरमाएदार पेड़ जैसे तुम्हारे उभार। चारों ओर नीम, अशोक, शीशम, गंधराज और रातरानी के पेड जैसे तुम्हारे आंख, नाक, जीभ और त्वचा जैसी ़ सभी इतने संवेदनशील।
किनारे पर कुछ सीमेंट के टेढ़े बेंच भी बने हैं जहां तुमसे घंटों बातें करते हुए मेरी कमर में दर्द हो उठता था मगर अब उनपर लगातार बैठने वाला कोई नहीं। सभी कुछ क्षणों के खुदगर्ज। रात साढ़े आठ बजे उस पार्क को अक्सर बस से देखता हूं। एक सिनेमाई स्लो मोशन में ज़हन वहां से गुज़रता है। आकाश से शीत बरस रहा है। बीचोंबीच के लैम्पपोस्ट की पीली रोशनी एक गर्द से भरी है जो तिरछे होकर दूर तक जाती हुई ज़मीन को छूती है। तुम्हारा अक्स बहुत उदास उदास किसी की याद में तिरता, कोई दर्द जीता, किसी दुःख में जीता लगता है जैसे सारी दुनिया का शीत किसी याद या दर्द की तरह बरस रहा है और तुम पर चादर का घेरा डाले बैठा है।
तुम किसी यातना में डूबी, आग का लहक अपने चेहरे पर लिए, घर से निकाली गई, खुले आसमान के नीचे चुपचाप समाज का दण्ड सहती लगती हो।
क्या हमारी दृष्टि में मनःस्थिति समाहित होती है या हमारा मन हमारी दृष्टि पर राज करता है? यह क्या है कि हर दृश्य के हज़ारों रंग होते हैं? रात में सहस्त्रों सालों से बेलगाम बरसता ओस अपरिमित वियोग की कहानी कहता प्रतीत होता है जबकि सुबह वही क्षणिक बूंद सा सृष्टि के सातों रंग को प्रतिबिंबित करता है।
क्यों ना कहूं तुम्हें उस पार्क जैसा हर सुबह इतना कुछ गुज़रने के बाद फिर तुम उतनी ही ताज़ी हो जाती हो जैसे सारे दूबों पर एक ओस की बूंद ठहरी होती है और उनसे हज़ारों हजार छवियां प्रतिबिंबित होती हैं।
काश कि ऐसे में तुम्हारी आवाज़ की दीवार मिल जाती तो मैं टटोलता हुआ टेक लगाता फिर से खड़ा हो जाता। सालों बाद कोई खोज खबर लेने के लिए, एक तंज़ ही मारना चाहता हूं कि तुम्हारी कोई प्रतिक्रिया आए। क्यों न तुम्हारे निर्णय या प्यार पर ही उंगली उठा दूं, शायद तब तुम तड़प कर अपनी चुप्पी तोड़ दो और तुम्हारी आवाज़ से मेरे बेचैन दिल को सुकून नसीब हो। लेकिन मैं जानता हूं जो रिश्तो और प्यार में इतनी दूर तक निकल गया हो वो अब कभी, किसी कदर भी चैनो-आराम नहीं पाएगा। मेरे पास लौटने का कोई रास्ता नहीं है। तुम्हारा ख्याल बढ़ने नहीं देता और अपना स्वभाव लौटने नहीं देता।
पार्क पल रहा है मेरे अंदर, तुम्हारी तरह। तुम होगी तो पार्क भी होगा। पार्क जैसे सदियों पुराना, कोई वीरान हवेली और बासी होता नित नया। प्रतिपल।
बहुत गहन कल्पना का परिणाम है यह तुलना।
ReplyDelete'....मगर अब उनपर लगातार बैठने वाला कोई नहीं। सभी कुछ क्षणों के खुदगर्ज।'
ReplyDeleteगहरी बात है और सच भी!
सभी कुछ क्षणों के खुदगर्ज।'...सच ... कहाँ कोई घंटों बैठता है , कमर के अकड़ जाने तक !
ReplyDelete...एक तंज़ ही मारना चाहता हूं कि तुम्हारी कोई प्रतिक्रिया आए।
ReplyDeleteHar line khud se jodti huyi... aur ye line to khaaskar kai chehro ki jhalak dikhati huyi.. :)
गवाह है कई बनते बिगड़ते आदमियों के
ReplyDeleteलेकिन मैं जानता हूं जो रिश्तो और प्यार में इतनी दूर तक निकल गया हो वो अब कभी, किसी कदर भी चैनो-आराम नहीं पाएगा। मेरे पास लौटने का कोई रास्ता नहीं है। तुम्हारा ख्याल बढ़ने नहीं देता और अपना स्वभाव लौटने नहीं देता।
ReplyDeleteaur sab apnee-apnee jagah tatsth.......
ऐसे ही लोग दूर चले जाते है ना लौटने के लिए ...
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