Skip to main content

खुदा मिला ना विसाल-ए-सनम


पॉजिटिव बातें सुनने में बहुत अच्छी लगती हैं। इसलिए बहुत जरूरी है कि वे गा, गे, गी से भरी हों। गा, गे, गी का वाक्यों में लग जाना चार चांद के लग जाने के बराबर हैं। गा, गे, गी महज़ एक राग नहीं है बल्कि एक ख्वाब है। आदमी मुस्कुराने लगता है। जिंदगी में कुछ अच्छा हो ना हो  पॉजिटिव बातें आदमी को खुश रखती हैं। अब जैसे आज हमारे दफ्तर में लाईट नहीं है। एक स्पष्ट सा उत्तर है मरम्मत चल रहा है अतः शाम तक बिजली आएगी। लेकिन अगर आप यह बात कह दें तो बुरे नज़रों से देखे जाएंगे। यू डैम फूल, तुम्हें व्यावहारिकता अपनानी चाहिए और कहनी चाहिए कि एक घंटे में लाइन आ जाएगी। यह सुनने में अच्छा लगता है। अच्छा सुनना एक तरह का प्रवचन है जो आश्रम वाले साधु, सज्जन आपके डिमांड पर देते रहते हैं। आप सप्ताह भर घोषित रूप से गलत काम कर लें और इतवार को आश्रम जा कर मीठे बोल वचन सुन लें तो आपके दिल का बोझ हल्का हो जाता है। एंड यू विल डेफिनेटली फील रीलैक्ड। आपको अपनी नन्हीं नन्हीं आंखों में जीवन के सूक्ष्म मर्म नज़र आएंगे। आपको लगेगा कि आज हमने कुछ एचीव किया। यह रात तक आपको लगता रहेगा। और सोमवार से फिर आप बुरे काम के लिए नए सिरे से तैयार हो जाएंगे। हल्के दिल से भारी भारी बुरे काम करने की कुव्वत आती जाएगी। अगर पिछले सप्ताह दस हज़ार की रिश्वत खाई है तो इस सप्ताह बारह का जोखिम ले लेंगे। ऐसा नहीं है कि आपके अंदर से कोई आवाज़ नहीं आती लेकिन व्यवहारिकता, आध्यात्म पर थोड़ी हावी हो जाती है। एक वक्त ऐसा भी आता है जब हमारे अंदर का कमीना दिल कहता है यार इसके बारे में बाद में सोच लेंगे और सोच भर ही लेने से ही हम पापमुक्त हो जाते हैं हम गंगा नहाने से पापमुक्त हो जाने का चलन है।

गा, गे, गी दरअसल यहीं नहीं हर जगह फुसलाने का काम कर लेता है। वायदे करते समय, सपना दिखाते समय, चुनाव लड़ते समय, भविष्य का निवेश करते समय। जाने हम कैसे इतने आश्वस्त हो गए हैं कि हमारा भविष्य बहुत सुनहरा होगा इसलिए कि हम वत्र्तमान बिगाड़ रहे हैं या उसकी बुनियाद वत्र्तमान को बुरा बनाकर रखनी है।
गा, गे, गी लगे वाक्य आसानी से एक चमकते हुए मछली में तब्दील हो जाती है। सपने देख देख कर हम अघा गए हैं। लेकिन सपने देखना ऐसा लगता है जैसे प्रशंसा के समतुल्य कोई शब्द हो। साला सपनों की कभी हार नहीं होती और इंसान जीवन की वैतरणी पार करने के लिए जैसे कई घाट पर गाय की पूंछ पकड़ कर पार करता है वैसे ही सपना इस इहलोक की नैया पार लगाने का औज़ार बन गया है।

इन बातों को सुन कर मुझे निगेटिव कहा जा सकता है। आप मुझे दूरदर्शन में काम करने वाला कर्मचारी मत समझिए जो अतीत के गौरव की कहानी सुना और भविष्य के गा, गे, गी लपेट कर आपको ऐग राॅल खिलाऊंगा। इन्हीं फालतू के सपनों ने हमें काहिल बना दिया है और हम अपने आज के काम भी सही ढंग से नहीं कर पा रहे और सिर्फ सपने देखने में बिता रहे हैं। इसका मतलब यह भी नहीं कि सपने देखे ही ना जाएं लेकिन कहना ये कि आज़ादी के सपने देखने तक ठीक हैं लेकिन जब आज़ादी होगी तब हम नुक्कड़ पर जाकर जलेबी खाएंगे वाले सपनों में शरीक हो हम कामचोर हो जाते हैं।

जहां गा, गे, गी एक सुरक्षित निवेश है वहीं था, थे, थी एक गौरवपूर्ण उदासी भरा अतीत। दोनों ही आर्कषक हैं। दोनों ही आज मारता है। यही हमारा प्रेम, बचपन, यादें और जीवन भी है जिन्होंने हमारा बेड़ा गर्क कर रखा है।

नोट: गुस्से में हूं, जाने क्या क्या लिख गया हूं। आप इसमें से अपने लिए अच्छी अच्छी बातें (जोकि संभवतः नहीं ही होंगी), छांट लीजिएगा। अब देखिए यह उम्मीद बढ़ाने वाली अच्छी लाइन है तो मार्केट में इसी की दरकार है।
उम्मीद है अच्छा लगा होगा सुनने में ! (पुनः धृष्टता)

*****

सन्दर्भ : देश-दुनिया के मौजूदा हालात, प्रेम, जीवन का शतरंज, पूंजीवाद-समाजवाद- साम्यवाद, शोषण, आम आदमी की औकात, इमारत, मानसिकता, डालर प्रकरण, वातावरण, दफ्तर, मनेजमेंट, जीवनशैली, स्वेट मार्डन और शिव खेडा की दुकान ! 

आभार तो नहीं क्योंकि ये मुफ्त में मिला है, दे कर किसी ने एहसान नहीं किया.

Comments

  1. गुस्सा था तो बेहतर है निकल गया... परिस्थितियाँ किस कदर हमारी सोच पर हावी हो जाती है इस बात का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है की सोचालय पर ही कभी आपका लिखा हुआ पढ़ा था इस धरती पर जीवन चलने के लिए सपनों का होना बहुत जरुरी है..

    इस निगेटिविटी से जल्द बाहर आइये... उम्मीद है अगली बार कुछ पॉज़िटिव पढ़ने को मिलेगा...

    ReplyDelete
    Replies
    1. yahan Sandarbh doosra hai Richa Ji.

      Delete
    2. जानती हूँ सागर जी, सन्दर्भ भले ही दूसरा हो पर जीवन भी वही है और सपने भी... माफ़ कीजियेगा पर अभी भी आपकी पहले कही बात से ज़्यादा इत्तेफ़ाक रखती हूँ... इस धरती पर जीवन चलने के लिए सपनों का होना बहुत जरुरी है.. :)

      Delete
  2. अच्छा सुनना एक तरह का प्रवचन है जो आश्रम वाले साधु, सज्जन आपके डिमांड पर देते रहते हैं। आप सप्ताह भर घोषित रूप से गलत काम कर लें और इतवार को आश्रम जा कर मीठे बोल वचन सुन लें तो आपके दिल का बोझ हल्का हो जाता है।... क्या सूक्ष्म व्याख्या की है , बिल्कुल सही . व्यक्ति खुद को खुश रखने का वहम चाहता है और एक दिन के प्रवचन को खुद पर लागू कर गंगा नहा लेता है !

    ReplyDelete
  3. सोच का यह आलय है तो सच होगा सपन होगा
    खुश दिखता बहुत लेकिन गम भी तो दफ़न होगा।

    ReplyDelete
  4. कस्तूरी कुण्डल बसे...
    आनन्द शाब्दिक हो ही नहीं सकता..
    तथ्यों को जीना होता है, कतरा कतरा...

    ReplyDelete
  5. ख़ुदा भी मिले-गा और विसाल-ऐ-सनम भी हो-गा. ये मैं नहीं कहता, ये 'जीत आपकी' में लिखा है.
    और दीवान ऐ ग़ालिब में लिखा है ये ख्याल अच्छा है.
    सो, गो-गागा एंड बी पोइजनऐटिव आई मीन पोजिटिव. .... :-P

    ReplyDelete
  6. हमने आपकी गुस्से में कही बातें अपने मतलब के हिसाब से छांट लीं!
    आशा है भविष्य में वर्तमान भी अच्छा हुआ करेगा। :)

    ReplyDelete
  7. पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ, यह पहली पोस्ट पढ़ी और फिर आपका प्रोफाइल। लगता है इन 'इटी'से आपको खास लगाव है, पोस्ट में भी और प्रोफाइल में भी पॉजिटिविटी और निगेटिविटी की बातें.. वैसे आपका प्रोफाइल, प्रोफाइल कम कविता ज्यादा लगी। लेकिन शीर्षक 'अभागा' तो कुछ ज्यादा ही निगेटिविटी हो गई भई। लिखने की शैली बढ़िया है। आपकी बाकी पोस्टें भी पढ़ने की लिस्ट में डाल ली हैं।

    ReplyDelete
  8. सच्चाइयाँ परोसना आदत बन गई है सोचालय की ... उन्हे पचाने को हाजमा कहाँ से लायें?

    कठोर सत्य खूब समेटा है चंद शब्दों में... "जहां गा, गे, गी एक सुरक्षित निवेश है वहीं था, थे, थी एक गौरवपूर्ण उदासी भरा अतीत। दोनों ही आर्कषक हैं। दोनों ही आज मारता है।"

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार ...

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष...

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने  ...