दोपहर आज अपने जिस्म में नहीं थी। घर की बनी रोटी ढ़ाबे पर सख्त आटे से बना तंदूरी रोटी सा लगता रहा जिसे बनने के चार घंटे बाद खा रहा हूं। खाने के कौर खाए नहीं चबाये जा रहे थे। लगता था कुछ शापित सा समय जबड़ों में फंसा था जो छूटता नहीं था। एक एक निवाला नतीजे पर पहुंचने की तलाश में जानबूझ कर ज्यादा चबाया गया था लेकिन फिर भी हलक में अटक जाता। कई बार ऐसा भी लगा जैसे थाली में चूइंगम परोसा हो।
उन ऊबाउ से कुछ घंटों में वक्त ठहर गया था। पहाड़ हो गया था या यों कहें महासागर हो गया था। प्यास बहुत लगती थी और घूंट-घूंट पानी गटकते हुए दीवार और छत के मिलन स्थल को देखा करता रहा। हथेली यूं गीली हो जाती जैसे क्लास से भाग कर सिनेमा हाॅल में बैठे हों और हाथ में साइकिल के पार्किंग का मुड़ा-तुड़ा छोटा सा रसीद हो।
कमरे के इस कोने से उस कोने तक ठीक बीचोंबीच एक रस्सी तनी थी। वो हमारे रिश्तों के तनाव जैसा प्रतीत होता रहा। अगर उंगली रख कर छोड़ दो तो थोड़ी देर कंपन के साथ हिलता रहता। यह तनाव जड़ी रस्सी लोगों के अंदेशों और अंदाजे के बोझ को उठाया करती। कमरे के दोनों दीवारों में धंसे हम उन दो कील जैसे थे जिसमें हमारे रिश्ते की रस्सी उमेठ कर लपेटी गई थी। हम एक हो नहीं सकते थे। किसी आमदकद के टहलने पर रस्सी उसके माथे, कान गले से टकरा बार-बार टकराती। कितने सारे काम बिखरे थे कि उठकर शहर भर के लोगों से मिला जा सकता था, टी. वी. देखा जा सकता था और तो और कल जो उसने झेंपते हुए अपना हेयर बैंड खींच कर मुझ पर मारा था उसमें उंगलियां फंसा कर मुलायम प्रदेश की सैर की जा सकती थी। ऐसे में फिर जाने कैसे होंठ के कोने का एक किनारा बगावत करता और बेबहर शेर छलकते...
सुब्ह से जुदा तुम्हारा चेहरा अच्छा लगा
दोपहर की ऊब में तुम्हारा होना सच्चा लगा
क्या हिज्र के महज़ दो बरस और आठ मौसम गुज़रे ?
बाद मुद्दत एस. एम. एस. में उसका नाम लिखना अच्छा लगा
गैस पर चढ़ी चावल में सीटी लगता रहा
इतना पका कि सारा खाना कच्चा लगा
किससे हम क्या पूछें कि कौन जवाब देगा
इसी उम्र में तजुर्बे इतने कि हर आदमी बच्चा लगा
लेकिन अंदर से अनिच्छा इस कदर थक कर बलवान हुई कि................
आखिर आमने-सामने होकर दूर दूर होना एक खिंची रस्सी के तनाव सा ही होता है। और दोनों तरफ कील जब एक एक दिल रखता हो प्यार इसी रस्सी पर नकली दाढ़ी मूंछ बना बनाकर करतब दिखाते हुए दिल्लगी करता है।
आखिर आमने-सामने होकर दूर दूर होना एक खिंची रस्सी के तनाव सा ही होता है। और दोनों तरफ कील जब एक एक दिल रखता हो प्यार इसी रस्सी पर नकली दाढ़ी मूंछ बना बनाकर करतब दिखाते हुए दिल्लगी करता है।
ReplyDeleteपोस्ट के बारे में कुछ कहने का दिल नहीं हो रहा बस ये ग़ज़ल बरबस याद आ गयी सो सुन रही हूँ... आप भी सुनिए... http://www.youtube.com/watch?v=fnnl6nHTA7Q
क्या बात है! बड़बड़ाहट भी सुंदर हो सकती है..
ReplyDeleteऊब पर कितने ही बिम्ब ठोंक दीजिये, ऊब रोचक होने वाली नहीं...
ReplyDeleteइस पोस्ट के आयामों व सन्दर्भों से मैं मुक्त भाव में हूँ , शब्द चयन आकर्षक हैं , अच्छा लगा
ReplyDeleteकविता पसंद आई।
ReplyDelete