दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक ज़ाऊँ उन को दिखला दूँ
उँगलियाँ फ़िगार अपनी ख़ामा ख़ूंचकां अपना
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ "ग़ालिब" दुश्मन आसमां अपना
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बू-ए-गुल, नाला-ए-दिल, दूद-ए-चिराग-ए-मेहफ़िल
जो तेरी बज़्म से निकला सो परेशाँ निकला. ----- चचा
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उंगलियों से उनका नाम दीवार पर लिखते रहे और दीवार था कि खुद उनका आशिक था। जिसकी दुआ थी बुत से इन्सा में बदल कर सांस लूं वो बस इक मेरा नाम लिखने से आमीन हुआ। लिखा जिनके नाम खत सुब्हों शाम सागर, वो खुद ही सोचा किये मेरे यार के मुताल्लिक। इश्क की पेंचदार गलियां हैं, किसी के हो जाने से पहले जिनसे कुर्बत की तमन्ना थी वो फिदा होने के बाद जि़ना कर गया। कहां सर फोड़े और अपनी जज्बातों की रूई धुना करें, आईए कहीं ज़ार ज़ार बैठ रोएं, दारू पिएं। पीएं के यह भी तय था हमने नहीं चाहा था। जो चाहा था वो भी अपना होना कब तय था। गर जिंदगी मुहब्बत है तो इसकी कोई वसीयत नहीं होती। अगर यह नफरत ही है तो इसका अंजाम मुझको मालूम है। नुक्श तो जहान में है काफिर फिर क्यों सोचता है सर खुजाते हुए आखिर। दिल उसी पर आया किया जो किसी और के हो चुके और जो बचे हैं उनके लब पर हां की कोई डाली नहीं झुकती। किस किस को दिल दिखाएं औ, फिर क्यूं दुखाएं, सबने दांत लगाए हैं खूं से लबरेज उस सेब में आखिर। हर सिम्त मगरिब है अपने हां, क्या करेंगे हम अपना अच्छे बनकर। अब क्या करोगे मिरे शदीद प्यास के किस्से सुनकर, लाजि़म ही था अशर्फी के बदले भी मुहब्बत का ना मिलना।
सागर कहां बैठ कर मर्सिया पढ़ें आज की रात] एक शम्मा जलाओ औ' रूह खाक कर दो। खुदाया होता ऐसा भी कि चिरागों को जलाने पर भी अंधेरा होता। दिल ही था मायूस तो उसका भी दिल रह जाता। तूने पूरा पूरा कुछ भी नहीं बनाया, मिला करता है हर कोई मुझे अधूरा क्यों। लेट कर देर तक छतों को तका करते हैं, मायूस हैं इंसानों की गुमां मिले हदों को लेकर। हमारे नाम भी कर दे निज़ाम कोई पेंशन की सहूलियत, कोहसारों से हम भी पर्चे उड़ाया करें। क्यों करें दुनियां को बदलने की दुआ अब सागर, जब अपना हां कुछ भी न रहा तो सामान समेटे चलिए। क्यों हाय हाय करें और किसके लिए करें, रोती है मेरी गली में इफ्तिखार की अम्मा भी।
कहां हम प्यार उड़ेलें अपने दिल का बेशुमार। एक ही इश्क था और महबूबा पराई हुई। रोटी ही नहीं है अब मसला जिंदगी में, आज़ादी के बाद दिल ज्यादा ज़हीन हुआ।
फिकरा ही कसा है ये होशो हवाश में, महज़ मतला है पूरी गज़ल है अभी औंधी पड़ी हुई।
वफ़ा कैसी, कहाँ का इश्क, जब सर फोड़ना ठहरा
ReplyDeleteतो फिर ऐ संग-दिल तेरा ही संग-ए-आस्तां क्यूँ हो -- चचा
सागर कहां बैठ कर मर्सिया पढ़ें आज की रात] एक शम्मा जलाओ औ' रूह खाक कर दो।
ReplyDeleteक्या बात है... यह तो पूरी पोस्ट ही एक नज्म लगी, बहती हुई सी।
बाज़ीचये अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे...
ReplyDeleteक्या कहूँ रे लड़के...आज की पोस्ट पर कुछ भी नहीं...वो जो दीवार भी उनका आशिक था न, उसे मेरा सलाम कहना!
निकलना खुंद से ग़ालिब का सुनते आये हैं लेकिन...
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