सुख था। इतना कि लोग सुखरोग कहने लगे थे। उन सुखों को हाय लग गई। सुख था जब पापा प्रेस से चार बजे सुबह लौटते थे और मैं जागता हुआ, पापा और अखबार दोनों का इंतज़ार कर रहा होता था। सुबह सात बजे जब प्रसाद अंकल अपने गेट से अखबार उठाते हुए कहते - पता है सागर, आज के अखबार से ताज़ी कोई खबर और कल के अखबार से पुराना कोई अखबार नहीं, तो मेरे अंदर उनसे भी तीन घंटे पहले अखबार पढ़ जाने का सुख था। रात भर की जिज्ञासा के बाद दोस्तों को सबसे पहले शारजाह में सचिन का अपने जन्मदिन पर 143 रन बनाए जाने के समाचार सुनाने का सुख था।
सुख था कि मुहल्ले में मृदुला द्विवेदी के आए सात महीने हो गए थे और संवाद कायम के तमाम रास्ते नाकाम रहे थे तो अचानक एक सुबह द्विवेदी अंकल ने साहबजादी को मैट्रिक के सेंटर पर उसे साथ ले जाने को कहना, आश्चर्यजनक रूप से एक अप्रत्याशित सुख था। पापा का अपने अनुभव से यह कहना कि दुख नैसर्गिक है और लिखा है यह मान कर चलो और यदि ऐसे में सुख मिले तो उसे भी घी लगी दुख समझना, पापा के रूंधे गले से घुटी घुटी दोशीज़ा आवाज़ को यूं अंर्तमन में तब सहेजना भी सुख था। आज भी जब अकेलेपन में जिंदगी के कैसेट की साइड बी लगाता हूं तो भूरी भूरी चमकीली रील यहीं फंसती है।
हाथ से बनाए हुए टेबल लैम्प का अपनी बुनियाद से बार बार ढ़लक कर लुढ़क जाना सुख था। विविध भारती को ख्याल कर तब मन में स्टूडियो कहां उभरता था? सिरहाने रेडियो रख दस बजे छायागीत वाला एंकर गले में कोहरा भर बोलता था, उसकी आवाज़ शीत वाली सुबह में कारों के शीशे पर की नमी सी लगती थी कि जिसके कशिश में आप अपनी मनचाही माशुका नाम लिख तो अभी चमकने लगेगा। कम जानने में उत्सुकतावश कल्पना करते रहना, सुख था।
देहरी बुहार कर भांसो उठाते वक्त दोस्त के ना आए हुए चार दिन बीत का अनकहा शिकायत सुख था। बालिग होते दिनों में आम के बौर को पेड़ से तोड़ अपने ही कलाई और गाल पर सहलाने में दिलीप कुमार और मधुबाला को याद करने कर स्पर्श को समझने का सुख था। मई महीने की निचाट धूल भरे आंधी के बीच बगीचे में सायकिल सीखने का सुख था।
हां सातवीं जमात में पढ़ता हमारा ग्रुप रसायनशास्त्र में कमज़ोर था जिसकी वजह से एक बार दसवीं जमात से हम पोटेशियम परमैगनेट का अणुसूत्र नहीं बता पाए थे, सो हार गए। सो अगले ही दिन बारहवीं की कोचिंग कर सिंदूर तक के अणुसूत्र रट जाना हुआ। तो इस तरह हर बात को दिल पर ले लेने और जान लगा देने का सुख था।
बल्ला भांजते हुए स्वाभिमान देखने का सुख था। सुंदर के फेंके रिवर्स स्विंग गेंद को पांच खूबसूरत लैलाओं वाली छत पर रवाना करना सुख था। यदि मैच जीत जाने के बाद समोसे की दुकान पर विपक्षी टीम को बेइज्जत करना आनंद था तो किसी शाम हार कर अपमानित होना भी सुख था।
फूटते गले और लड़कियों का ख्याल आते ही पसीने पसीने हो जाने के दिनों में पड़ोस वाली आंटी का झुक कर उठने में हिम्मत कर पहली बार उनके उभार को देखना, पढ़ते वक्त प्रकार से विभिन्न कोण बनाते हुए उस उभार का बार बार उभरना, अपराध बोध से भर जाना, मन ही मन उनसे माफी मांगना और अपने को कभी माफ ना कर पाने का संकल्प करना। सरल रेखा खींचने की कोशिश में उसका वक्र हो जाना, अंर्तद्वंद्व से रात दिन यूं गुज़रना, सुख था।
डरते डरते होर्रर फिल्मों को देख जाना, सुख था। डरना, और फिर एक डरावनी फिल्म देखने की ईच्छा होना, सुख था। दादी को उल जूलूल तरीकों से कहानी को नया मोड़ देना, जितना वो सुनाए उसमें अपनी कल्पना की नमक मिर्च लगा कर और बढ़ा चढ़ा कर सोचना, सुख था।
सुख था कि बहुत सारी चीज़ों से अंजान थे और पहली बार गुज़र रहे थे सो उसका रद्दो अमल भी कंवारा था।
गांव में पापा की चिठ्ठी में अपनी जज्बाती शैली में सबसे पहला, दिखने में अधूरा मगर पूरा, चिरंजीव सागर पढ़ना, सुख था। सुख था कि गुलाबों के कलमें लगाना आता था। देर से आने पर की डांट थी, कहीं ना जाने की हांक थी, ये अधिकार सुख था।
आज सुख महज सुविधा का पर्यायवाची शब्द है। आॅनलाइन पैसे ट्रांसफर की सुविधा सुख है। बस स्टाॅप के ठीक सामने मेट्रो के होने की सुविधा, सुख है। भौतिकवाद और पूंजीवाद ने सुख की परिभाषा से खिलवाड़ कर लिया है। शब्दों में हेर फेर हो गया है। सुविधा से सुख को रिप्लेस कर दिया है।
दफ्तर से निकलने के बाद सारे रास्ते खुले हैं मगर कहीं जाने का दिल नहीं होता। घर में कैद रहते थे तो बड़ा जोश रहता था अब आज़ाद हैं तो हमेशा थके थके रहते हैं। अतीत में लौटने का रास्ता सिर्फ यादों में ही सीमित है। रेडियो था तो मन टीवी के लिए ललकता था अब कम्पयूटर है मगर स्विच आॅन करने से चिढ़न होती है।
शराब है, मगर कच्ची भांग का सुख था। कि अपनी गली के लौटते रास्तों में महुए की गंध है, रबड़ के पेड़ों से टपकते कच्चे गाढ़े दूध का टप टप गिरना है, पैरों में कई बनैले लिपटती झाडि़यां हैं, मदहोश कर देने वाली गंध है कि चौखट से पहले ही रास्तों को याद कर होश खोया जाता हूं।
हिचकियां आती हैं मगर सांस रूकती नहीं ।
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[एकदम इरादतन. पर हमारा दोष नहीं. नीरा के लिखे ने उकसाया. आभार उनका. ऐसी चीजों को लिखना और याद करना भी तो शिकायत श्रृंखला 'काहे को ब्याहे बिदेस' श्रेणी के अंतर्गत ही तो आता है. ऐसी शिकायत करते हुए हम भी स्त्री में बदल जाते हैं और ईश्वर से यही कहते हैं - 'काहे को ब्याहे बिदेस' ]
सुख की परिभाषा यूँ बदल गयी... आह!
ReplyDeleteबेहद सुन्दर यात्रा उस सुख तक... जिसे वर्तमान सन्दर्भ ने सुविधा से रिप्लेस कर दिया है!
आंधी में दिया जला हुआ है...मगर यादों की आंच इतनी तेज है कि हथेलियों की ओट करने में डर लगता है कि न केवल जल जाउंगी बल्कि आग की उस छुअन से शायद कुछ ऐसी हो जाउंगी कि अपना कुछ जिंदगी भर वापस नहीं मिलेगा. तुम जब ऐसे आम के बौर के मौसम में बौराए लिखते हो सागर न...तो वाकई लगता है गाँव में कुएं की मुंडेर पर बैठे किस्सा सुन रहे हैं.
ReplyDeleteतुम्हारी इन पोस्ट्स में एक खोया हुआ...बिसरा हुआ...अपना एक टुकड़ा बचपन पा लेना भी तो सुख है...तुम्हें पढ़ कर वो याद आता है जो समझ नहीं आता था.
और ऐसी ही किसी पोस्ट पर एकदम दिल से दुआ निकलती है तुम्हारे लिए...जियो!
कहने को बहुत कुछ इकठ्ठा हुआ जा रहा है...मगर बस इतना ही...हमारा सलाम आप तक पहुंचे सागर साहब!
अहा, बस कोई याद दिलाता रहे तो सुख बढ़ता रहता है, नहीं तो सुख बहती हवाओं सा निकल जाता है।
ReplyDeleteबहुत सच्चाई से लिखा है आपने.. मन को छू गई। और सोलह आने सही बात 'घर में कैद रहते थे तो बड़ा जोश रहता था अब आज़ाद हैं तो हमेशा थके थके रहते हैं।'
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ReplyDeleteअरे ओ बिदेसिया.. क्या क्या भूले बिसरे सुख याद दिला दिये रे ! पाप लगेगा.. कसम से :)
ReplyDeleteकैसी विडंबना है ज़िंदगी की कि बीता हुआ कल हमेशा आज से ज़्यादा खूबसूरत होता है...
जावेद अख्तर साहब की एक ग़ज़ल याद आ गयी -
मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं
जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं
इक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे रिश्ता तोड़ लिया
इक वो दिन दिन जब पेड़ की शाख़े बोझ हमारा सहती थीं
इक ये दिन जब लाखों ग़म और काल पड़ा है आँसू का
इक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थीं
इक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी रूठी लगती हैं
इक वो दिन जब 'आओ खेलें' सारी गलियाँ कहती थीं
इक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं
इक वो दिन जब शाख़ों की भी पलकें बोझल रहती थीं
इक ये दिन जब ज़हन में सारी अय्यारी की बातें हैं
इक वो दिन जब दिल में सारी भोली बातें रहती थीं
इक ये घर के जिसमें मेरा साज़-ओ-सामाँ रहता है
इक वो घर के जिसमें मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं
P.S. - आज की पोस्ट पर गाना बेहद खूबसूरत लगाया है... एक टीस सी उठा देता है मन में... आपके ज़रिये पहली बार सुना... किस फिल्म/एल्बम का है ?
1983 में एक फिल्म आई थी 'कालका' शत्रुघ्न सिन्हा मुख्य अभिनेता थे. ये फिल्म कोयला खदान में काम करने वाले मजदूरों पर आधारित था. इस फिल्म में संगीत जगजीत सिंह ने दिया था. इस गाने में भी उन्होंने ही अंतिम पैरा गाया है. प्रवासी मजदूरों पर ये गाना बहुत सटीक बैठता है.
Deleteआहा! सुख कहाँ गया वह? यह भौतिकवाद वाला सुख भाता नहीं है.. पर लोगों को इस भौतिकवाद में ज़बरदस्ती खुश देख कर दुःख और बढ़ता है..
ReplyDeleteकब रिप्लेस हो गया यह सुख पता नहीं चला पर हमारे लिए तो आज भी सुख वो सुबह ४:३० को शुरू होने वाला क्रिकेट मैच है.. सुख यादों की भेंट चढ़ गयी है लगता है..
सुखनामा....
ReplyDeleteजब तक आपकी पोस्ट पढ़ी, सुख ही सुख था. लग रहा था यूं ही लम्बी होती सुखों की बानगी, लेकिन पोस्ट ख़त्म होते ही वो सुख भी छूमंतर हो गया.
ReplyDeleteyadon ki chapat aapne wahan lagai.......jahan se gum bahar nahi hota...to khushi andar nahi aati.....
ReplyDeletesalam sagar sab'
बहुत सुन्दर प्रस्तुति| नवसंवत्सर २०६९ की हार्दिक शुभकामनाएँ|
ReplyDeleteसुखिया सब संसार है...
ReplyDeleteyando ka ek sisila sa chala aata hai.... koi hame yand hi nhi karta.... orr hame har koi yad aa jata hai! bidesiyaaaaa
ReplyDeleteजब भी बिदेसिया सुनता हूँ, आँखें नम हो जाती हैं... कुछ दर्द ही ऐसा है इस गाने में... गज्जब लिख डाले हैं कसम से.... :-/
ReplyDeleteगजब !
ReplyDeletesukh .....umda
ReplyDeleteसुख बांटा और वो पढ़ते -पढ़ते दुगना-चोगुना हो गया :-)
ReplyDeleteभाग्यशाली हैं वो जिन्हें सुख की शक्ल याद है और यादों के झरोकों से उसे उठा उसमें सांस फूंक देते है उनके दुर्भाग्य का क्या कहना जो सुविधा के मुख पर लगे सुख के नकली मुखोटे को गले लगाते हैं...