सच बता निक्की, वो जानबूझ कर ऐसा करता होगा ना?
आखिर कितने दिन तुम किसी को अनदेखा कर सकती हो ? कभी, कभी तो, किसी भी पल, एक बार भी, थोड़ा सा भी, एक्को पैसा, एकदम रत्ती भर भी, कभी तो उसको लगता होगा कि हम उसके लिए मरे जा रहे हैं, क्या बार भी वो आंख भर के देख नहीं सकता है, और सबको तो देखता है, गली में शाम ढ़ले लाइन कटने पर बगल वाले बाउंड्री पर बैठ सबके साथ अंतराक्षरी खेलने का टाइम निकाल लेता है पर मेरे लिए समय नहीं है ! ऐसा कैसे हो सकता है यार?
साला बड़ा शाहरूख खान बना फिरता है। सिमरन ने पूछा - मेरी शादी में आओगे? बस आंख नचाकर बंदर सा मुंह बना कर कह दिया - उन्हूं और उल्टे कदम स्टाईल मार चलता बना। और हमलोग भी क्या फालतू चीज़ होते हैं यार ! यही इग्नोरेन्श पसंद आ जाता है कि साला सारी दुनिया के छोकरे बिछे रहते हैं, एक इशारा जिसे कर दूं तो शहर में चाकू निकल आए लेकिन हम हैं कि जो हमें हर्ट करेगा उसी से प्यार होगा।
अब उसी दिन की बात ले। बीच आंगन में मैं पानी का ग्लास दे रही हूं तो नहीं ले रहा। भाभी से लेगा, सुनीता से भी चाहे कोईयो और डोमिन, चमारिन रहे सबके हाथ से ले लेगा लेकिन हम देंगे तो नाह ! पहले तो आंख उठाके देखेगा तक नहीं, पैर और छाया से पहचान भी लेगा तो अब पियासे नहीं है, अभी अभी चाय पिए हैं दांत में लगेगा, पहले बड़े को पूछा जाता है, काकी को दो ना, जो दिन पड़ेगा उसी का व्रत लगा लेगा कि हम तो यह उपवास निराजली ही करते हैं। फिर सरक लेगा। हम कहते हैं निक्की कि भले पानी ना पिए पर ऐसे बहाने बनाता हुआ भी सामने बैठा रहे तो क्या चला चाएगा। लेकिन नहीं, हमारे सामने बहाने से भी बैठने का टाइम नहीं है ऐसे लुक्खागिरी करता रहेगा। हर समय शक्ल चोर जैसा बनाए रहेगा जैसे बस अभी अभी कोई कॉलर पकड़ लेगा।
एक दिन मंझले पापा वाले कमरे में मिल गया। था तो दिन ही, हम पलंग के नीचे से आलू निकाल कर निकले ही थे कि वो गाने गाते घुसा। एकदम से दोनों आमने सामने! मुंह ऐसा हो गया जैसे किसी का हत्या किया हो। अब बोलो ऐसे में क्या किसी से बात करें। लेकिन सारी गलती अपनी ही क्यों माने। मन ही दिमाग दौड़ाया कि घर में कौन हो सकता है। रंभा की मधुश्रावणी थी सो सब वहां गए थे, उसको भी याद आया। बस अब मसखरी शुरू। लगा हें हें हें हें करने। वो अपने में होता है तो उसपर कितना प्यार आता है यार! मजबूरी है उसकी भी, हमीं नहीं समझते। पर हम समझते तो हैं निक्की मेरा मन नहीं समझ पाता। मैं अपने मन को समझा नहीं पाती रे। रोटी बेलते बेलते रोना आ जाता है, और वो गोल नहीं हो पाता। जानता है कि रात का खाना मैं पकाती हूं, तारीफ एक दिन नहीं करेगा लेकिन किसी दिन नमक तेज़ पड़ा नहीं कि सबसे पहले चीखेगा। मुझसे नमक ज्यादा पड़ता नहीं उसी को सोच के रोती हूं उसी से सब्जी खारा लगता होगा। आदमी समझदार हो तो चूड़ी बजने की आवाज़ में बदलाव और नजरअंदाज़ करने के तरीके से भी पकड़ में आ जाता है।
सच निक्की इतना चूहा मर्द किसी की जि़ंदगी में नहीं होगा। अकेले में उसे कहीं भागने की जल्दी नहीं होती। गलती का एहसास तो उसको होता ही है, तभी सूनापन पाकर एक दिन गले लगाकर यूं भींचा कि मेरी बीच की सारी हड्डी बज गई। मेरा भी मन बावरा सा हो उठा दिल किया कि अपनी हथेली उसके गाल के नीचे रखूं लेकिन हिम्मत न कर पाई। इन लड़कों को कितना कुछ करने का मन होता है लेकिन देख हम कस कर उसकी कलाई भी पकड़ पाते। फिर मेरी आंखों में गहरे झांका जैसे कह रहा हो नज़रअंदाज़ करने के लिए कितनी ताकत चाहिए तू जानती है? फिर मेरे कंधे पर ब्रा के उल्टे हो आए स्ट्रेप्स में उंगली डाल उसे घिसते हुए और सीधा करते हुए बोला - "हमारा कहीं घर नहीं हो सकेगा। हम ऐसे ही मिलेंगे इसी दुनिया में कई अपनी छोटी छोटी दुनिया बनाकर।"
तू ही बोल निक्की, मैं कितने दिन हूं यहां रे ? मैं कहां मन लगाऊं ? जिस दिन एक नज़र देख लेता है उस दिन दूगने जोश से चापाकल का हैंडिल चलाती हूं पानी इतना गिरता है कि लगता है तिगुना जोर से वो हंसा है। और पानी भी कैसा... तो एकदम मीठा! उसे तो जाने कित्ते काम ! खेत खलिहान, अड्डा बगीचा, यार दोस्त, चौपाल-संगीत, सब जगह मिलेगा वो भी पूरी तसल्ली से... ऐसा खेल कैसे कर लेता है रे ? कैसे किया जाता है, और क्या मिलता है इससे ? लेकिन मेरी... मेरी तो दुनिया ही वही रे ! जितना वो उतनी मैं, फिर भी कैसे उसके कोई काम नहीं रूकते और मैं जैसे वहीं उसी से बंधी हूं। गाय हो गई हूं सारी परिधि उसी से बनती है । क्या करूं निक्की, क्या करूं आखिर मैं, ये बेगानापन बर्दाश्त नहीं होता मुझसे ? अपने हाथों जान से मार ही क्यों नहीं देता वो मुझे ?
(निक्की की ठुड्डी उठाकर नायिका पूछती है। रोना तेज़ होता है। एक सिसकारी उसमें और घुल रही होती है। धीरे-धीरे पूरा माहौल ही सुबकने लगता है।)
(निक्की की ठुड्डी उठाकर नायिका पूछती है। रोना तेज़ होता है। एक सिसकारी उसमें और घुल रही होती है। धीरे-धीरे पूरा माहौल ही सुबकने लगता है।)
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अजीब-अजीब बीमारी हो गयी है मुझको भी
जिसमें ये याद भी शामिल है तुम्हें भूल गया हूँ.
हेयरबैंड पहन कर सोने लगा हूँ रातों में
बाल अलबत्ता कोई समेटने नहीं आता.
आधी रात रेंग के चढ़ता है कोई लम्स
मुझे ये लगे कि कोई दूसरी है.
हर 'मूव ऑन' के बाद लगे कि वहीँ हैं अभी
तुम्हारी जुल्फों में गिरफ्तार, तुम्हारी बदन में गुम
जब भी वहम हुआ है कि
चलो अच्छा है कि भूल गया तुमको
एक ही रंग दिखाता है सात रंग भी.
फिर मेरी आंखों में गहरे झांका जैसे कह रहा हो नज़रअंदाज़ करने के लिए कितनी ताकत चाहिए तू जानती है?
ReplyDelete--
पोस्ट को कई बार पढ़ते हुए बचपन के दिन याद आये...पटना में छत पर की गयी सहेलियों से अनगिन बातें याद आयीं...हाल हाल तक का रोना बिलखना याद आया...तडपना...सहमना याद आया...मन के अंदर जिस लड़की को गला घोंट कर मार दिए थे वो फिर से सामने आ कर खड़ी हो गयी और अनगिन लड़कों के नाम गिनाने लगी.
तुम जब ऐसा लिखते हो...समय का पहिया उल्टा घूमने लगता है...जिन गलियों को छोड़ बड़ी मुश्किल से दिल्ली का रोना रोना शुरू किये हैं वो किसी पुराने घाव जैसा दुखने लगता है.
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ऐसा मत लिखा करो सागर.
accha likhe ho.
ReplyDeleteनज़रअंदाज़ करने के लिए कितनी ताकत चाहिए तू जानती है?
ReplyDeleteबहुत वज़नदार बात!
प्लीज़ हमारी पूजा को मत रुलाया करो वज़नदार बातों के दबाव से!
:)
Deleteपता है नीरा...अक्सर सागर को पढ़ते हैं तो समझ नहीं आता कि लेखन की तारीफ करें या लेखक के लिए परेशान हों.
और खुद का जो हाल होता है वो तो इस माथापच्ची में पड़ना भी नहीं चाहता.
और तब
ReplyDeleteनिरक्षर लिखता है पहला अक्षर...
स से सागर.