फिर बुखार...!
बस उठ कर कुर्सी पर बैठा हूँ। बैठा कुर्सी पर हूँ लेकिन खुद को बिस्तर पर ही सजीव पा रहा हूँ। आखिर बीमार क्या है दिमाग या शरीर ? अभी-अभी ऐसे में उसे प्यार करके उठा हूँ। बिस्तर की सलवट मेरी ही बूढ़ी झुर्रीदार, नर्म, सिकुड़ी हुयी त्वचा की तरह लग रही है। पैर में ताकत नहीं है, अंदर से खोखला महसूस कर रहा हूँ लेकिन अब भी उसे प्यार करने का मन है।
ढीली सी चादर ने उसे यूं लपेट रखा है कि उसका रंग और अल्हड़ सा हो आया है। ऐसा लगता है जैसे उसने अपने अंगों की खूबसूरती का दसवां हिस्सा चादर को दे दिया है और जबकि उसके और चादर के बीच कुछ नहीं है लेकिन खुद उसकी कमर ही कुछ अलंघ्य रेखाएं खींच रही है। चादर कोई प्यासा बेबस सा प्रेमी बन आया है जिसे उसकी कमर अपनी हिलारों से थोड़ा थोड़ा भिगो उसकी प्यास अपनी मर्जी से बुझाती है।
कैसी दो गोरी गुदाज़ बाँहें खुली हैं! आधी नींद में लरज़तीं, पास जाओ तो वो किसी दुधमुंहें बच्चे की तरह अंगूठा चूसने में लीन हो जायें। वो बाँहें और पैर मुझे ऐसे ही घेरते हैं। वो बाँहें जो अपने रौ में हों तो पूरे का पूरा मुझे ही लील जायें और यूं आधी कच्ची पक्की नींद में हों तो जिनका सौंदर्य अपने आकर्षण के चरम पर हो।
यह कैसी वासना है ? एक मिनट रूकिए, क्या यह वासना है ? आपको क्यों लगता है कि यह वासना है ? वासना होती तो दस मिनट बाद भी लिपटे रहने का मन नहीं होता। मेरी हालत तो तीसरे माले पर रस्सी से चढ़ते मनी प्लांट सी है जिसे छोड़ दो तो लगे अपनी ही रीढ़ की हड्डी से सीझे हुए मछली की तरह अलग हुआ है।
सच है माशूका, भारी हो आए सरसों तेल की तरह तुम्हारे तांबई पीठ पर फिसला हूं। गर्दन और कंधे के जोड़ पर हौले हौले मुक्के से वर्जिश कर तुम्हें मदहोश किया है। तुम्हारे बदन को मानचित्र मान मैं नाविक बन सोने चांदी से भरे द्वीप, नए नए प्रदेशों की खोज की है तो कभी चुनौती मान सैनिक की तरह उन पहाड़ों की चढ़ाई की है। इस दरम्यान जो फूंका है वो है अपना फेफड़ा, जो सुलगाया है वो है अपना होंठ। मैं तो खनिज संपन्न क्षेत्र में होठों से माचिस मारता बाकी आग गर्भ में दबी प्यास खुद ब खुद पकड़ लेती।
अब मैं कुर्सी पर बैठा हूँ और सलवट पड़ा यह बिस्तर अब भी किसी सक्रिय ज्वालामुखी सा धधक रहा है।
सूकून कहाँ है? जिसे देह में आदमी खोजता रहता है लेकिन वहाँ भी नहीं ठहर पाता, हमेशा के लिए टिक भी जाए तो कोई बात हो। वहाँ बार बार स्खलन के बाद फिर से प्यार करने को मन होना क्या बार बार मरकर जीने के मन जैसा नहीं होता।
अपनी जिंदगी की प्यास बुझाने में मैं भी खुद को ऐसा ही बेबस पाता हूँ।
अपनी जिंदगी की प्यास बुझाने में मैं भी खुद को ऐसा ही बेबस पाता हूँ।...
ReplyDeleteतृष्णा का कोई अंत नहीं, चाहना की कोई सीमा नहीं. मर-मरकर फिर जीते हैं हम, फिर से मरने के लिए...
ये तुम्हारी खासियत है कि बात को कहाँ से उठाकर कहाँ पहुँचा देते हो. प्रेम में सराबोर तुम्हारा लिखा उदास क्यों कर जाता है हर बार ?
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - बामुलिहाज़ा होशियार …101 …अप शताब्दी बुलेट एक्सप्रेस पधार रही है
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