पूरे कूचा नटवा मार्किट में बाबूलाल का कोई जोर नहीं। आप लाकर दिखा दीजिए। बल्लीमारान के बड़े बड़े तुर्रमखां सूरमा अपनी कई मंजिला दुकान आपके नाम लिख देंगे। ऐसा मैं नहीं उस दुकान का मालिक भी कबूलते हैं जिसके यहां बाबूलाल काम करते हैं।
बाबूलाल पांच फीट चार इंच का अजूबा! थोड़ा मोटा होने से ठिगना दिखता है। अपने को कश्मीरी बताता है । एकदम गोरा। इतना गोरा कि ज़रा सा चिढ़ता भी तो शक्ल बता जाती। चेहरा अपमान में जैसे लाल हो जाता। चेहरे के आईने पर कोई भाव नहीं छुपते उसके लेकिन दिल्ली आकर मोटे व्यापारियों की चिकनी खाल के संगत में बाबूलाल खुद को काफी बदला भी। लेकिन वो साहिर कहते हैं न कि खून को हम अरजां न कर सके, जौहरों को नुमाया न कर सके। ऊपर से सख्त दिखने वाला यह बाबूलाल ज़बान का भी उतना ही नफासत भरा है लेकिन जरूरत पड़ते पर कैंची सा तेज़ भी चलता है। दिल का ठहरा कलाकार आदमी। अब तक की जिंदगी में बाबूलाल ने सिर्फ अपने नफीस काम से शोहरत ही बटोरी है जिसकी तूती लाल किले से गांधीनगर होते हुए कमलानगर मार्केट तक बोलती है।
बाबूलाल की चढ़ी आंखों में बस काम का नशा ही दिखता है। अनसंभार काम करने की इस आदत ने अपनी कीमत भी वसूल की है उससे। लहंगा बेचने का स्पेशलिस्ट बाबूलाल शारीरिक हाव भाव से भी औरताना हो गया है। यानि शरीर के हाव भाव में स्त्रैण गुण रखने वाला। इससे यार दोस्त उसकी नकल उतार कर उसे छेड़ते भी हैं लेकिन सभी जानते हैं वो बाबूलाल की लाख नकल उतार लें ग्राहक को पटाने में जो महारथ और बारीकी बाबूलाल को है वो उसे सात जनम में भी नहीं हासिल होगी।
लोग कहते हैं बाबूलाल पैदायशी ही लहंगा का इतना जानकार है। जैसे कवि, लेखक, पेंटर, अभिनेता और अन्य कलाकार होते हैं। दिन भर में कुछ बीड़ी, दो चाय और एक बार खाना खाने के बाद जो समय है वो बाबूलाल सफेद गद्दे पर दीवार से तकिया लगा ग्राहकों को लहंगा दिखाने में ही बिताता है। यह भी एक रिकोर्ड है कि किस्मत से जो भी बाबूलाल के सामने आज तक बैठा वो खुशी खुशी लहंगा खरीदकर ही उठा। अब अगर ऐसा ही हो कि किसी के जेब में पैसा ही न हो और वो मजाक करने उसके सामने बैठ जाए तो बात अलग है। बाबूलाल को तो याद नहीं पड़ता कि पिछले सोलह साल में किसी भी ग्राहक उसके सामने से खाली हाथ उठना पड़ा हो। तुर्रा यह कि उसे इस बात का कोई घमंड भी नहीं।
बीड़ी वह कवि मुक्तिबोध की तरह पीता जैसे जूस के ग्लास में नीचे कुछ काजूओं के बीच रस बचा रह गया हो और वो उनके बीच पाइप डाल कर रहा सहा जूस भी खींच लेना चाहता हो। जैसे एक तलाश हो उसे और उसे खोज कर पी जाना हो। अक्सर आधी बूझी बीड़ी उसके दाहिने कान के पीछे रखी रहती और फिर भी वो बीड़ी खोजता रहता। बाबूलाल एक ऐसा आदमी जिसके कहने के चार मतलब होते। जो वो कहता वो ऐसे भी ठीक था, वैसे भी। गौर करें तो दाई ओर से भी और बाई पर तो फिट थी ही। मसलन बीड़ी खोजते वक्त वह बुदबुदाता - चीजें सब सामने पड़ी हैं बस समय से मिलती नहीं हैं। पिछली बार वाला पूरा नहीं कर पाया और अब नये को सुलगाना होगा। जाने ऐसे कितनी ही बीड़ी है जो अधूरी रह गई।
बाबूलाल की अपनी एक खास अदा थी। लंहगा बेचने में वो मार्किट अपडेट से लैस रहता। कौन नया माल ला रहा है, किस कंपनी से है, वहां वो माल कहां से आता है, क्या मिलावट है, कैसे बना है, जड़ी का काम कहां कहां किया हुआ है, वह कितनी मात्रा में है, जड़ी कितना टिकाऊ है, डिजाइन कहां हुआ है, कितने लोगों की मेहनत है, कपड़ा कितना खरा है, उसमें रेशम की मात्रा कितनी है, गोया कि लहंगे से जुड़ी पूरी मालूमात वो पहले हासिल कर लेता और ग्राहक के सामने सिलसिलेवार रूप से अपने ही दिलफरेब अंदाज से परोसता।
मन मोहने की सारी कलाएं उसे आती और खराब से खराब लहंगे को भी अपनी बोलने और दिखाने की अदा से उसे बहुत तोप चीज़ बता सकने वाला बाबूलाल कभी खराब लहंगे दिखाता ही नहीं था। कभी कभी जब मालिक द्वारा दिए एक सेल टार्गेट को अन्य कर्मचारी जब पूरा नहीं कर पाते तो मालिक से उन्हें यह झिड़की मिलती कि खाली समय में कुछ सीखो बाबूलाल से। सिर्फ ग्राहक के सामने नौकरों को सीढ़ी पर चढ़ाकर खुद सफेद गद्दे पर तकिया लगा कर, तोंद पसार कर चैंती नंबर और अड़ती नंबर उतार को हुकुम देने से सेल नहीं होती।
कर्मचारी डांट तो खाते मगर बाबूलाल के पास पहुंचते ही उसकी पेट छूते और उससे बीड़ी निकलवाने लगते। उसकी स्त्रैण प्रतिक्रियाओं पर मजे लेते। कुछ तो उस पर उड़ते हुए चुम्बन फेंकते, उसके सीने को सहलाते और कुछ उसे कहते कि बाबूलाल कसम के अगर तू सही में माल होती तो मैंने तेरे से ही मैरेज करना था। दूसरा कहता मेरे को तो इसी तरह की तीखी और मीठी मिरच चाहिए थी। खाते जाओ औरह सी सी करते जाओ।
इस तरह मसखरी तो सभी कर लेते मगर उससे वो गुर नहीं सीखते या सीखने तो आते पर भटक जाते।
लेकिन अबकी महीने बकौल उनके ही - मालिक ने सबकी खडे खड़े ले ली, मां बहन एक कर दी। फिर अपना गिल्ट छुपाने के लिए कुछ तथ्य से वाकिफ कराने लगे - साला एक तो आॅफ सीजन चल रहा है। इन सेठों को इस आॅफ सीजन में भी शादी वाले महीने जैसी सेल चाहिए। शेर के मुंह में एक बार खून लगा दो तो उसे हर समय मीट चाहिए। एक तो ये बहनचोद गर्मी हद से ज्यादा है। एक एक ग्राहक को निपटाने में घंटा डेढ़ घंटा लग जाता है। कभी कभी तो लगता है जैसे हम लंहगा नहीं अपना शरीर का सौदा करने बैठे हैं। इन मां के जनो का मुंह किसी हाल सीधा ही नहीं होता। सब सेट हो जाएगा तो वही मिडिल क्लास वाली बीमारी पैसे पर चिक चिक करने बैठ जाएंगे। लंहगा जैसी चीज खरीदने के लिए लगता है महीने भर की छुट्टी लेकर आते हैं। साला कोई जल्दी ही नहीं रहती। एक तो ये कूचा नटवा की दुकानें। साला सब खानदानी दुकाने हैं। मालिक भी इनके लिए चाय, ठंडा मंगाने लगते हैं। ऐसे में इतनी गर्मी में कौन उठे और दूसरी दुकान जाए। ए सी में बैठकर साले सब हर लंहगे में मीन मेख निकालते रहते हैं। लंहगों की समझ सालों को खाक नहीं है। जिंदगी में एक बार ही पहनना है लेकिन बतियाएंगे ऐसे जैसे मां ने पैदा करके इन्हें आंत बोटी से नहीं लंहगे से ही अलग किया था।
(ज़ारी...)
लहँगे जैसे मँहगे विषय में हम शान्त रहना बेहतर समझते हैं।
ReplyDeleteBahut rochak likhte hain!
ReplyDeleteबाबू के चरित्र हनन आई मीन चरित्र चित्रण से आगे बढ़े कथा तो कुछ कहें । :-P :-D
ReplyDeleteआपकी ऐसी ही एक कथा दो तीन भागों के बाद अपने अंत बिना ही अंत को प्राप्त हो गयी । शायद किसी मुहल्ले की कहानी थी । डी वी डी के दुकानदार वाली । वैसे मुझे अधूरी कहानियों के लेखक से बड़ा लेखकिय अपनापन लगता है । अग़र आप ये पूरी कर पाएँ तो अपने ड्राफ्ट की चाबी आपको सौंप दूँगा । आख़िर कमलेश्वर और मोहन राकेश वाली दोस्ती है । पैर तले की ज़मीन आप पूरी करना ।
;-)
अहा दर्पण,
Deleteएक अरसे बाद मुझे कुछ अच्छा कमेन्ट मिला है... दाद देनी होगी आपके यादाश्त की भी... लेकिन में कहानी कहाँ लिखता हूँ ? सोचालय आइडिया को मंज़रनाम बना कर रखता है बस.... सोचालय एक मूड स्विंग है... इसके आड़ में ये अयोग्यता भी बैठी है कि कहानी लिखनी मुझे नहीं आती (वैसे तो कुछ भी नहीं आता, ध्यान रहे) लेकिन कहानी लिखने के लिए जो धैर्य, शैली, मनोभाव, उतर चढ़ाव, शुरुआत, मध्य और अंत, क्लाइमेक्स चाहिए उन सब से अनभिज्ञ हूँ... ये बहुत अनुशासन का काम लगता है...
अलबत्ता ये आईडिया जब वाकई गंभीरता से री-राईट किये जायेंगे तो बहुत बदलाव होगा. अभी तो बस मगर यूँ ही मामला है.
कई बार लगता है कि मैं निरा गधा हूँ चार साल में तो बेकार से बेकार भी अच्छी रेंज हासिल कर लेते हैं.. कुछ कहना सीख जाते हैं.. किसी विधा को अपना लेते हैं मैं अब तक आवेगों पर लिख रहा हूँ...
"वैसे मुझे अधूरी कहानियों के लेखक से बड़ा लेखकिय अपनापन लगता है "
आपकी ये बात सौ प्रतिशत सही है.... मुझे लगता है इन्ही अधूरेपन को हम दिल से निकालते हैं, इसके बाद तो ऐयारी है.
इस मामले में आप मुझसे कहीं ज्यादा ऊँचे हैं. सो मैं आपके ड्राफ्ट कि चाभियों का सही चयन नहीं... हाँ मुझे इतने में मज़ा आता है कि प्लाट पर मिल कर लिखें...
कमलेश्वर और मोहन राकेश वाली "दोस्ती" है.