Skip to main content

144, हरि नगर, आश्रम


डियर सर,

जो एक गुमनाम चिठ्ठी आज सुबह लेटर बाॅक्स की अंदरूनी दीवार से होकर नीचे गिरी है, उस पर धुंधली सी अर्द्धचंद्रकार मुहर बताती है कि वह जंगपुरा डाकघर को कल दोपहर प्राप्त हुई है, जैसा कि रिवाज़ और कहावत है कि लिफाफा देखकर ही खत का मजमून जान लेते हैं तो प्रथम दृष्ट्या अनुमान यह लगता है कि यह चिठ्ठी आपके किसी जानने वाले ने ही आपको भेजी है, स्पष्ट है कि प्रेषक का नाम इसमें कहीं नहीं लिखा जो कि जानबूझ कर किया गया लगता है, लेकिन जोड़ना चाहूंगा कि ऐसा कर प्रेषक अक्सर यह समझते हैं कि वे पहचान में नहीं आएंगे लेकिन होता इसका उल्टा है। बस फ्राॅम वाले काॅलम में घसीटे हुए अक्षर में एम का इनिशियल लिखा है जो आगे चलकर आर में बदल गया है। लेकिन सर, मैं जानता हूं कि हम भारत में हैं और आप जेम्स बांड नहीं हैं जिससे यह ज्ञात हो कि यह खत आपके बाॅस का है। वैसे भी आपकी बाॅस आपको खत भेजकर बुलाने से रही (वो आपको आधी रात निक्कर में ही आपको अपनी गाड़ी में उठाकर आॅफिस लाने का माद्दा रखती है)

पीले रंग की लिफाफे में जोकि अंदर से प्लास्टिक कोटेड है जो यह बताता है कि कोई ऐसे अक्षर उनमें लिखे हैं जिसे कि बारिश-पानी से बचाए जाने की चाहत रखी गई है। चूंकि मैंने चारों तरफ से मोड़ से देख लिया है और इसमें कोई नुकीली चीज़ मसलन उनका झुमका तो नहीं ही हो सकता है। अंदर ब्राउन कलर का एक और बेहद पतला लिफाफा है जो सुरक्षा की लचर परत बनाती है, बहुत संभव है कि भेजने वाला या वाली थोड़े डरपोक किस्म का है, मेरा मतलब बहुत एहतियाती। इससे यह भी साफ हो जाता है कि अगर यह किसी लड़की ने लिखा हो और वह अब तक आपसे अपनी दोस्ती का दम भरती है तो बहुत हद तक उसने अपने खत की शुरूआत दोस्ती की बुनियाद, उसकी जरूरत, जिंदगी में उसका भरोसा आपसे हुई आत्मीयता के पल आदि की यात्रा से होते हुए एक ऐसे कोण पर समाप्त हुई होगी कि जहां यह साफ परिलक्षित होता होगा कि आप उसके दिल में घर तो नहीं कर चुके पर उस दहलीज पर हैं जहां उसे थोड़ा इंतज़ार कराना अच्छा भी लग रहा होगा और आप चले ना जाएं यह अंदेशा भी सता रहा होगा।

अंतिम पैरे में यह एक कबड्डी का खेल होगा जहां प्यार और गहरे अनुभूतियों में पगे शब्दों और दिल से काढ़े हुए अक्षरें अपनी सांस की अंतिम बाजी लगा कर भी कबड्डी- कबड्डी कर रही होगी। आपको उन पंक्तियों को पढ़कर ऐसा लगेगा कि पंक्ति प्यार के स्वीकार के लिए जीवित बची है या...... लेकिन हर शब्द संशय और उम्मीद से लबरेज़ होगा, इसी कारण संतुलित भी, इसी कारण आपके दिल की धड़कन बढ़ाती हुई भी और इसी कारण आपके चेहरे पर एक खिसियानी मुस्कुराहट और हथेली में पसीने का बायस भी और.... और जब आप यह पढ़ रहे होंगे तो आप इसे कई तरह से पढ़ेंगे।

सबसे पहले तो दिलचस्पी और धुकधुकी में सरसरी निगाह से पूरी पढ़ जाएंगे। लेकिन आपको लगेगा कि कुछ रह गया, अतः फिर पढ़ेंगे। क्या मैंने सही समझा? यह सोच कर एक बार फिर पढ़ेंगे। इससे निष्कर्ष क्या निकला यह सोचकर एक बार फिर पढेंगे। आपकी हालत गर्मी के दिनों में हल्का सुषुम पानी पी लेने वाले जैसी होगी अतः आप उसे फिर फिर पढ़ेंगे।

इतने पर भी अगर मेरे जैसा आदमी हुआ तो उसे खैनी की डिबिया यानि चुनौटी की शक्ल में मोड़ कर अपने लुंगी के साथ कमर में बांध लेगा और घर लौटने के लिए लंबा रास्ता चुनेगा जिसमें यह इत्मीनान से यह सोच सके कि सार तहिने! खत लिखने में हम अपने को तोप समझते थे, लेकिन यह देखो इस खत ने जिसको नामालूम कौन अदना सा अमदी लिखा है लेकिन कैसी बारीकी से लिख गया, साला हमारे दिल से खेल गया। हमारे हम जोकि इस फन में उस्ताद थे, विशारद और मास्टर तक थे। इससे यह साबित होता है कि लिखना बस दिल से होना चाहिए जो हमारे दिल की धड़कनों और भाव को दुलरा दे। खैर...!

बहरहाल सर, खत की लिखावट देखकर लिखने का जो मन में चेहरा उभर रहा है वो यूं है कि वह बहुत भरी पूरी औरत है मगर आप जब से उसके जीवन में आए हैं वो किशोरावस्था की ओर लौट रही है, शायद उसने यह जीवन जिया ही नहीं था, अपने भारतीय समाज को देखते हुए यह बहुत हद तक संभव भी है, हमारे यहां ज्यादातर लड़कियां शादी के बाद जवान होती हैं

ऐसा भी लगता है कि लिखते समय उसकी हथेली का निचला हिस्सा और कनिष्ठा उंगली काग़ज़ पर ठीक से बैठ नहीं पाती है और इसलिए कुछ अक्षर पर अनामिका उंगली का जा़ेर दिखता है, इससे लिखने में उसका कच्चापन झलकता है। बहुत संभव है कि वह कागज़ कलम का इस्तेमाल नहीं करती हो। आप उसके लिखे शब्दों से कुछ अक्षरों को अलग अलग निकालकर मिलाईए मसलन 'त' और आकार की मात्रा। 'त' शब्द में जहां भी हो शब्द को बखूबी पकड़े रहता है लेकिन 'आ' की मात्रा लापरवाही से नाममात्र के लिए लगाई गई है। उसके दिमाग से बचपने का एहसास 'छ' के गोल छल्ले, 'ओ' की मात्रा और 'ख' के फैलाव से होता है

यह भी स्पष्ट है कि उसका मन आपके साथ होने और रहने को ज्यादा चाहता है यह खत मजबूरी में ही लिखी गई है। खतबाजी, रिश्तेदारी की तरह होती है, अगर एकतरफा हो तो इसका सिलसिला नहीं चलता। अतः यह सिलसिला लंबा नहीं चलेगा।

बाकी ब्लेसिंगस् और विसेज़ के कोई मायने नहीं नहीं है, बस जगह भरने के लिए खोखले जुमले हैं जिससे आप भलिभांति वाकिफ होंगे ही। हां अंत में खत के दाहिने तरफ जो उनका घसीटा हुआ सिग्नेचर वो अपने पूरे वजूद से साथ यहीं छूट गई लगती हैं। उसके नीचे खींची गई दो लकीरें बताती हैं कि वो भावुक के साथ साथ अपने होने को लगातार नकारती चलती हैं।

और यह प्यार में ही संभव होता है सर।

Comments

  1. बस भंगिमाओं से भाव भाँप लेते हैं..बहुत खूब..

    ReplyDelete
  2. हाहा .. क्या खूब जाँचा है ख़त को ..
    आप तो शरलॉक होम्स के भाई मालूम होते हैं :D

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ