Skip to main content

शॉट डीविज़न


डॉक्टर ने कहा है कि तुम्हारे शरीर में डब्ल्यू. बी. सी. (white blood cells) की कमी हो गई है और इसकी कमी से शरीर में रोग प्रतिरोधक घटती है। बिस्तर पर पड़े पड़े और रम के सोहबत में सारा दिन जो कुछ इस ख्याल से गुज़रा वो यूं है कि बेहिसाब तनहाई  है। इसे काटने के लिए क्या कुछ नहीं किया। कई अलग अलग वाली टेस्ट वाली सिनेमा देखने की कोशिश की, इसी तर्ज पर कई किताबों में सर दिया। मगर मैं इतना स्वार्थी हूं कि सब कुछ ताक पर रखकर इन चीज़ों में नहीं खो सकता। बिस्तर पर बैठे बैठे और मूड खुश रहे तो सब जंचता है मगर कई बार जो ख्याल दिल में है मन उससे नहीं उबर पाता।

मैं खुश रहने के लिए काम नहीं करता। न काम करके खुश होता हूं। काम करता हूं इसलिए कि अपने दिन के 12 घंटे काट सकूं। कई बार उमग कर, हुलस कर और कई बार मजबूर होकर फोन उठाया। बुखार में जब कमज़ोरी से कमर टूट रही हो तो क्या संभाला जाए ? जीभ पर जब कोई स्वाद न लगता हो, होंठ बार बार खुश्क हो जाते हों, और उसे लपलपाई जीभ से बार बार गीला करना पड़े और कई लोगों ने लगभग मिन्नत करना पड़ जाए कि 'प्लीज़ मुझसे एक मिनट बात कर लो'।

जी में कई तरह का ख्याल हो आया। जैसे कि मैं एक औरत हूं, अस्पताल के बेड पर पड़ी हूं और कई सारे बच्चों को छोड़कर जा रही हूं। बच्चे जोकि अभी इस उम्र के हैं जो समझते नहीं कि मरना क्या होता है, सो वो मेरे सामने मुझसे बेखब खेल रहे हैं, अपने भाई बहनों से झगड़ रहे हैं, मेरे पास उनको देने के लिए कोई संदेश नहीं है, क्योंकि इसका कोई मतलब नहीं है।

कुछ बार ऐसा लगा कि जैसे गला और जीभ जैसे किसी चीज़ की प्यासी है। लगा कि हवा में अभी इस पल कुछ है जो पी ली जाए। रजाई ओढ़ ली। थोड़ी ही देर में पसीने से नहा उठा। स्पंज वाले तकिए से पसीना यूं चूने लगा जैसे बाल्टी भर पानी में डूबाकर निकाला हो। लगा शरीर जैसे किसी देह की प्यासी है। फिर तो तांडव ही होने लगा। इस ख्याल से ही पसीने की मात्रा तिगुनी हो गई। सांसे गर्म होकर ब्लोअर बन गई। आग के भभके से निकलने लगे। मन जैसे यह सोच बैठा कि होंठ किसी केले के थम्ब जैसी चिकनी जांघों पर फिसल रहा हो। अंगारों के थक्के उड़ने लगे। हम पीसने में कागज़ की मानिंद गल रहे थे। लगता था जैसे वजूद पर कोई बिना स्टाम्प का टिकट लगा जो अब खुद-ब-खुद लिफाफे से टिकट को अगला देगा। उसकी पीठ जैसे नदी थी और मैं उसमें सुनहरी मछली खोज रहा था। उसने मेरे सीने पर की पसीने की बूंदें पी ली। मैंने उसके माथे पर के पसीने को चखा। लगा जैसे पसीने की ही प्यास थी।

जिंदगी का कास्ट डायरेक्टर बुरा होते हुए भी अच्छा है। मूल्यांकन का तराजू वाला न्याय की तरह अंधा है। अपनी जिंदगी का शॉट डीविज़न करता हूं तो पाता हूं बहुत मिसकास्टिंग है मगर एक तुम्हारे नाम का वज़न रख दिया जाता है तो पलड़ा इस ओर झुक आता है। मिट्टी के चूल्हे पर सिंके हुए राख की सौंधी महक आती गोल-गोल रोटी की तरह।

Comments

  1. और मुझसे एक दोस्त ने फोन पर पूछा कि प्यार क्या होता है? कलम में ज़ोर नहीं है तुम्हारे जो कह न बयां न कर सको एहसासों को.... लिखना भावुक काम नहीं निर्दयता का काम है। तुमने सुना तो होगा एक समुद्री डाकू के बारे में....

    मैं की हुई खून की ताज़ा उल्टी को हाजि़र नाजि़र जान कह रहा हूं यही होता है - प्यार।

    ReplyDelete
  2. बहुत शुक्रिया राहुल सिंह जी.

    ReplyDelete
  3. जीवन को आनन्द मान कर जियें या दुख का अम्बार मान कर, जीना तो पड़ेगा ही। आत्महन्ता मनोवृत्ति कभी नहीं सुहायी है, बार बार स्वयं से फूट कर बाहर निकल आने की इच्छा होती है।

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ