- कभी कभी लगता है मैंने उसे पहचानने में भूल कर दी।
- हो जाता है, हम कहां सारी जि़ंदगी किसी को सही सही समझ पाते हैं। पेशे में पड़ा डाॅक्टर, टीचर, वकील भी निजी जीवन में ऐसी गलती कर ही बैठते हैं।
- तुम मेरा काॅन्फिडेंस बढ़ाने के लिए ऐसा कह रहे हो? जबकि यह दुःख की बात है।
- मैं सिर्फ वो कह रहा हूं जो सच है, जैसा हो जाता है, हर किसी से
- नहीं, मुझे लगता है जैसे वो मेरे लिए थी
- मगर तुममें से किसी के पास ज्यादा समय नहीं था। बाई द वे, लेट हर फ्री नाऊ। तुमने काफी पी ली है ।
- न.... नहीं..... ज्यादा पीने में और कुछ नहीं होता.... मगर ऐसे में उसके रिएक्शन शाॅट्स याद आने की दर बढ़ जाती है।.... और फिर.... वो सब गैप भी जहां- जहां उसे हमने समझने में गलती की।
- क्या उसको लेकर तुम्हें कोई गिल्ट होता है ?
- फिर?
- गिल्ट नहीं, बस संदेह... खुद पर।
- संदेह? क्यों ?
- उन लोगों की बातचीत याद आती है जिसपर उसने मेरी नज़र में अपने परिचित स्वभाव से उलट प्रतिक्रिया दी थी। एक मिनट.... क्या प्रतिक्रिया से व्यक्ति का स्वभाव पता चलता है ?
- यही अभी मैं भी पूछने वाला था। मगर प्रतिक्रिया तो झूठी भी हो सकती है? यह परिस्थिति और व्यक्ति विशेष दोनों पर निर्भर करता है।
- हम कहां चले आते हैं नहीं? हमारे गांव में इस अवस्था को डगरे पर का बैंगन कहा जाता है।
- तुम प्रेम करते हो या लड़कियों की सच्चाई जुटाते फिरते हो?
- लड़कियां ही क्यों आदमी भी। वैसे प्यार के साथ यह अपने आप जुटता रहता है। क्या प्यार करना सच जानना नहीं है? गलत है कि प्यार अंधा होता है, मेरी उम्र, सिचुएशन और नज़र से देखो जहां तुम कोई भी स्टेप लेने में नाकाबिल रहते हो, यहां प्यार सब कुछ देखने लगता है। वह चमगादड़ की तरह रात में दीवार पर और पेड़ उल्टा लटकता है और उल्लू की तरह रात भर टकटकी लगाए ताकता रहता है।..... समझ नहीं आता कि इतना पीने के बाद मुझे चढ़ी है या कि अब होश आया है।
- ऐसे पलों में जब तुम इस तरह की बातें करते हो तो मुझे मुझे ऐसा लगता है कि उसको खोने का तुम्हें कोई पछतावा है......
- यह तुम्हारी बेहद मामूली और बेसिक रिएक्शन है.... हकीकत ये है कि तुम भी इसे पूछ कर जितना इस मामले को समझ नहीं रहे उससे ज्यादा बस अंदर से मजे ले रहे हो..... नहीं उस तरह नहीं....तुम मेरा कुछ बिगाड़ोगे नहीं.... मगर जानने का अपना एक आनंद होता है, एक उम्र के बाद तुममे उतनी सिम्पैथी नहीं बचती। तुम भाषा और भावनाओं के जानकार हो जाते हो, तुम उस फेज को टालना सीख जाते हो.... उसी तरह से.... और पछतावा तो माय फुट। लेकिन पता है क्या.... खुद से ईमानदार होना एक बहुत ही बुरी बीमारी और आदत है।
- यानि ईमानदारी संदेह करना सिखाती है और घटना हो चुकने के बाद खुद से ईमानदार होना बस अपने भर के लिए अच्छा है, इससे कोई बाहरी परिदृश्य नहीं बदलता है बल्कि बाहरी चीज़ें और बदल जाती हैं। बाई द वे लेट मी क्लियर यू ये ईमानदारी नहीं बस एक कन्फेशन है।
- तुम्हें पता है तुम्हें हर वो आदमी अच्छा लगा है जिसने तुम्हारी घाव पर नमक छींटा है। तुम्हें बुरी बातें कहीं हैं, तकलीफ दी है। तुम्हें प्यार की बातें कम याद रही हैं, उसके झगड़े ज्यादा याद रहे हैं। प्रेम कम याद रख पाते हो और उसकी हिंसा तुम्हारे यादों में अमर रह जाती है। इस ज़माने में जब तुम सारी दुनिया देख चुकने का दावा करते हो तब तक प्यार एक प्रतिस्पद्र्धा की तरह खड़ा हो चुका होता है और यह विभिन्न देशों के साथ हितों की तरह बदलता है। और यह भी गज़ब है कि उम्र के एक दहलीज पर आकर तुम यह कबूलने में भी शर्मसार होते हो कि तुम उसके साथ प्यार में रहे थे।
- असल में तुम प्यार में कोई तमाशा नहीं चाहते, बवेला नहीं चाहते, अगर तुम अकेले रह गए तो बस चुपचाप उसे भूखा मारने लगते हो। तुम्हें हर बात का जबाव चुप्पी में नज़र आता है। तुम एकांत ओढ़ लेते हो और अंततः एक संकोची आदमी में तब्दील हो जाते हो।
:)
ReplyDeleteham se majboor ka gussa bhi ajab baadal hai
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