अप्रैल के यही दिन थे। वातावरण की हवा में अपनी इक उम्र पूरी करके पेड़ों से पत्ते अलग हो रहे थे। कुछ के अलग हो चुके थे। पॉश इलाके के उन ब्रांच रोडों में सन्नाटा इतना हुआ करता कि चलते हुए पैरों के नीचे आते पत्तों की कड़कड़ाहट सुनाई देती। मैं नाथू स्वीट्स से अपने जेब की रेज़गारी गिनता हुआ दो समोसे खरीदा करता और उसे मिस कॉल दिया करता। यह एक नियम था जब चौबीस घंटे के इन वक्त में दक्षिण एशिया के एक उपप्रायद्वीप के दो जुदा लोग एक दूसरे से जुड़ जाते थे। कभी कभी कितना सुखद लगता है न कि साल के इन्हीं दिनों में जब अप्रैल चल रहा हो, दिन भर उमस रहता हो और शाम की खुशनुमा हवा के झोंकों में हमारी अपनी अपनी जिंदगी के दो वक्त एक साथ कॉमन हो जाते हों। अपनी अपनी उम्र जीते हुए एक दूसरे के साझीदार। लगभग गर्व और सुख की तरह यह ख्याल आता है कि उन क्षणों में वो हमारे साथ था।
मैं पार्क में एक ज़मीन में धंस आए सिमेंटेड बेंच पर बैठ जाता, कंधे से अपना बैग उतार कर साइड में रखता। ब्राउन ठोंगे से एक समोसा निकाल उजली पॉलीथीन की सारी चटनी एक कोने में कर उसे भी समोसे की शक्ल में नुकीला कर पहले एक कट्टा समोसे काटता फिर चटनी की पॉलीथीन में नुकीले हिस्से पर हल्के से अपने दांत गड़ाता, चटनी की हल्की मीठी धार दो चार बाद चबाए हुए समोसे में घुल मिल आती और वे दोनों भी मेरे मुंह में साझीदार बन आते।
तभी मोबाइल स्क्रीन चमका करती और हम आपस में डूब जाते। पार्क लगभग सुनसान हुआ करता। कभी कभार कॉलोनी के एक्के दूक्के मेरी तरह आवारा कुत्ते वहां भटका करते। पार्क के ठीक बीचों बीच एक बहुत ऊंची लैम्पपोस्ट से पीली रोशनी झरती रहती जो ज़मीन तक आते आते और मद्धम पड़ जाती। पार्क में फूल पत्ती बहुत कम हुआ करते, खाली जगह ज्यादा होती। मैं अपने पैरों की सैंडिल खोल देता और उससे बातें करते हुए पैर की उंगलियों से दूब को टटोलता रहता। मेरा मन हमेशा ऐसे कामों में बहुत लगा है जिनका कोई औचित्य नहीं होता। जैसे बदन और बालों में मिट्टी लगाकर नहाना, घास को घंटों स्पर्श करते हुए महसूस करना, रबड़ के पेड़ के पत्तों को सहलाते हुए यह सोचना कि क्या पता कल को यह हमें छूने को भी न मिले। जब छोटा था तब अक्सर रबड़ के एक पत्ते को तोड़कर कोई मिट्टी का केन उसके नीचे लगा देता। रात भर उसका दूध टप टप करते उसमें उतरा करता। वक्त बदला लेता है आज मेरे ज़हन से रोज़ कोई न कोई पत्ता टूटा करता है और मैं टप टप रिसता रहता हूं।
हम बातें करते। उपन्यास की तरह। कभी मूर्त कभी अमूर्त। कभी सिर्फ व्यक्तिक। कभी प्रेम तो कभी दुनिया। हमारी बातें एक घर थी। घर में रहना ज्यादा था मगर खिड़की से भी बाहर झांक लिया करते। फोन हमारी खिड़की थी जिससे वो आवाज़ के मार्फत अंदर आ जाती। जब उसकी आवाज़ उन दिनों एक व्यसन था। अक्सर पान लगवाते वक्त मैं पान वाले को जर्दा ज्यादा डालने कहता। ज़र्दा मेरा जीभ काटता जो उसके तलब को काटने के काम आता। कुछ आवाज़ हमेशा जिंदा होते हैं। कुछ आवाज़ सिर्फ सपना। कुछ आवाज़ें भ्रमित करती हैं। मेरे साथ कुछ ऐसा था कि हर लंबी बातचीत के बाद मैं उसकी आवाज़ के गुण, पिच, आरोह-अवरोह तक भूल जाता। कई बार संदेह होता क्या हम जिससे बातें करते हैं वो दूसरी तरफ सचमुच होता है? याद जिर्फ इतनी ही क्यों रह जाती है कि उससे बात हुई थी और इन इन चीज़ों पर बात हुई थी ? आवाज़ पूर्णतः अपने जिंदा रूप में क्यों नहीं याद रह जाती? अगर ऐसा होता तो शायद हमें किसी से बिछड़ने का गम इतना नहीं सताया करता। क्यों उससे बात करना आंखें पर पहने गए चश्मे की याद दिलाता है जिसे हम वक्त बेवक्त साफ करने के दौरान उलट कर उसके शीशे पर अपने मुंह का भाप देकर नमी देते हैं और अगले ही पल वो गाइब हो जाती है।
कभी कभी जब वह व्यस्त होती और उसका फोन नहीं आता मेरे अंदर की खला जवान होने लगती। मैं बैग उसी बेंच पर छोड़ कर दौड़कर पार्क के चक्कर लगाने लगता। इतना थकता कि शरीर पेड़ पर टंगा किसी मेरे हुए सूखे सांप सा अकड़ जाए। कुरते के कोर कोर से पसीना पटकने लगता। मैं जिस्म को रोज़ थकाता हूं। चैन से सोने के लिए कौन कौन से रास्ते नहीं अख्तियार करता हूं। बेवक्त जिम जाता हूं। पुश-अप मारता हूं, हांफने लगता हूं। गर्लफ्रेंड रूम पर हो तो लगातार दो दो बार संभोग कर लेता हूं और नहीं रहे तो हस्तमैथुन करके थकने की कोशिश करता हूं। रात रात भर धीमे आवाज़ में रेडियो पर गुलाबी गाने बजाने वाले चैनल सुनता हूं। नींद इतने पर भी मुझे अक्सर दगा दे जाती है फिर मजबूर होकर नींद की गोलियां गटकता हूं। जानता हूं कि एक दिन इन गोलियों की भी आदत लग जाएगी और ये भी बेअसर होने लगेंगी। आप न जाने क्यों कहते हैं कि आत्महत्या एक अनैतिक कदम है।
उन रास्तों से अब नहीं गुज़रता। उसके बहाने सिलसिलेवार ढंग से वहां की मैगज़ीन वाली दुकान और छोटी वाली गोल्ड फ्लेक की याद आती है। और हर मीठी याद सूखे गले में शराब की पहली कड़वी घूंट है।
लालटेन पर का शीशा भी अपने अंदर जलते आंच के बायस चटखने से डरता है। इसलिए क्रोसड्रेसिंग करता है। साथ ही यह तर्क भी देता है इन लौ को बाहर की आंधी से बचाना होगा इसलिए यह प्रतिरोधक है।
अपने वजूद पर उन यादों की हमने वैसे ही कोटिंग कर रखी है जिससे एक्सट्रीम अंदर और बाहर तो आज़ाद हैं मगर बीच में हम बस गुलाम हैं।
अप्रैल के यही दिन हैं। वातावरण की सीमित हवा में अपनी इक उम्र पूरी करके पेड़ों से पत्ते अलग हो रहे हैं। कुछ के अलग हो चुके हैं। पॉश इलाके के उन ब्रांच रोडों में सन्नाटा इतना हुआ करता होगा कि चलते हुए पैरों के नीचे आते पत्तों की कड़कड़ाहट सुनाई देती होगी....
....मगर उन रास्तों से अब गुज़रना नहीं होता।
अपने वजूद पर उन यादों की हमने वैसे ही कोटिंग कर रखी है जिससे एक्सट्रीम अंदर और बाहर तो आज़ाद हैं मगर बीच में हम बस गुलाम हैं।
ReplyDeleteइस गुलामी से सभी अभिशप्त हैं और आज़ादी फूंकती रहती है जिन्दगी की साँसे .....
:(
ReplyDeleteपूँछ रहे, जीवन है कैसा,
ReplyDeleteयादों की ऐसी कठपुतली,
कहीं दूर पर उँगली चलती,
छम छम नाच रहे हम।
मेट्रो के कांच के उस पार से विदा किया है किसी को कभी? वो सामने होता है मगर छूटता हुआ, उसे देख सकते हैं पर छू नहीं सकते, उतरने की ख्वाहिश है पर ट्रेन चल चुकी है.
ReplyDeleteकि जब तक अगली ट्रेन पकड़ कर वापस इस मेट्रो स्टेशन पर आओगे, सब बदल चुका होगा और वो जा चुका होगा जिसे रोकने की खातिर तुम अपने रास्ते बदलने को तैयार थे,पीछे लौटने को तैयार थे.
किसी के होने को बहुत सुन्दर तरीके से लिखा है.जाने को भी. याद को भी.
सूखे गले में शराब की पहली कड़वी घूंट ........
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