Skip to main content

गुलाबी सुबह डिवाईडेड बाई चिलचिलाती धूप



साढ़े चार साल मेरे साथ रहते रहते वो ऊब चुकी थी। अब न प्यार में वो नयापन रहा था, न रोमांच। स्लेट पर ईश्क लिखते लिखते उसकी लकीरें मोटी होकर भद्दी लगने लगी थी। और तो और ई, श् और क आपस में मिलकर गुंथ गए थे। दूर से देखने पर यह शब्द सात बच्चे जन चुकने, तीन के सफाई और फिर से पेट फूली औरत की तरह अब बस एक बेडौल आकृति लगने लगी थी। कूल्हे भारी होकर कमर का साथ कब का छोड़ चुके थे। मगर था तो बदन का हिस्सा ही सो घिसटता जा रहा था। जैसे जीवन नीरस था स्लेट पर लिखा यह शब्द भी।

यह मेरी दूसरी बीवी है जो शुरू से बहुत डोमिनेटिंग रही है। शादी से पहले मुझे इसकी ये आदत अदा लगती थी। मैं इसके इसी खूबी का मुरीद था। आज सोचता हूं तो लगता है पता नहीं मुझे प्यार हुआ था या नहीं मगर तब इसके बोल में मुझे एक प्रेमवश अधिकार लगता था। एक अथाॅरिटी जैसे आपकी गर्लफ्रेंड कहे - खबरदार जो अपने जगह से हिले और आपको उसमें अपनी मां का प्यार भरा गुस्सा नज़र आए या तुतलाती आवाज़ में अपनी बेटी का आदेश महसूस हो आप वहीं के वहीं जड़ होकर खड़े रह जाएं।

मेरी पहली बीवी इसके ठीक उलट थी। इतनी गिरी हुई कि उससे प्यार नहीं पाता था। साली में बगावत नाम की कोई चीज़ ही नहीं थी। कठपुतली थी, कठपुतली। हमें प्यार में कठपुतली होना अच्छा लगता है कठपुतली बनाना नहीं। बिस्तर पर भी जिधर लिटा दो बस आंख बंद करके लेटी रहती। कभी सेक्स से न पहल करती न करने देती। उसकी बाॅडी लैंग्वेज देखकर ही संभोग की ईच्छा मर जाती। देवी जैसी लगती। मन मार कर सेक्स करता भी तो बदले में आह ऊह तक न करती और मेरा सारा जोश जाता रहता। गुस्से में कभी कह देता कि मार दूंगा तो गाल आगे करके आंख बंद कर लेती। कहने लगती - मारिए। मैं आपसे मार खाना चाहती हूं। मैं जब भी ऐसा सोचती हूं मुझे सुख मिलता है।

और मुझे कोई जवाब नहीं सूझता। मारे नफरत के मैं उसे लात से धक्के देकर अलग कर देता।

वहीं ये दूसरी बिस्तर पर कमाल थी। अक्सर मुझे पलट कर मेरी छाती पर चढ़ आती, बाल खोलकर मुझ पर झूल जाती। तब मुझे हाॅलीवुड फिल्म बेसिक इंस्टिक्ट की शेरेन स्टोन याद आती। उसके वक्ष मेरे आगे डोलते रहते। वह मेरे हाथों को कैद कर मुझ पर छा जाती और अपनी मादक काली-नीली आंखों से शोले निकालते हुए किसी बात का बदला लेने लगती। वह मेरे कमर पर भरपूर ताकत से कूदती और मेरा सर तकिए पर चार चार इंच तक उछल जाता। पूरा कमरा उसके शोर से भर जाता और मैं समय से पहले स्खलित हो जाता। 

लेकिन यह पहले की बात थी। पिछले चार सालों से मामला पूरा उलट गया। 

वैसे उसे मुझसे प्रत्यक्षतः कोई शिकायत नहीं थी। लेकिन शिकायत प्रत्यक्ष से ज्यादा अप्रत्यक्ष होता है। पड़ोसी कह देते थे कि वल्लाह क्या जोड़ी है! और यह सुनकर जहां उसके चेहरे पर थोड़ी हया आ जाती वहीं अंतर्मन में हम दोनों सोचने लगते कि क्या लोग अंधे होते हैं? लेकिन मन दोमंुहे बाल होते हैं साहब। और ऐसे में जब आसपास और कुछ न हो तो नर्म नर्म से चुभा करते हैं। हया का सच से कोई लेना देना नहीं होता। शर्म पहली स्वभाविक प्रतिक्रिया है और सच कुंडली मारकर बैठा अजगर। हया चेहरे पर की हवाईयां हैं जो क्षणिक होती हैं और उड़ जाती हैं लेकिन सच खाना खा लेने के बाद पोंछा मारने पर भी फर्श पर छूट गया पका हुआ चावल है जो आपके तलवों से लगकर आपके चिढ़न का बायस बनता है।

तब मैं आदतन थोड़ा और तल्ख होकर सोचने लगता कि कैसा चूतिया आदमी है जो अब तक रिश्तों में जुड़े आदमी को पढ़ना नहीं सीखा। क्या इसने अपने बाल नहीं उड़ाए? एक सरसरी निगाह देखने भर से आदमी भविष्यवाणियां कैसे कर देते हैं?

पहल किसी न किसी को तो करनी ही थी। एक दिन मैंने ही की और कहा देखो बुरा मत मानना लेकिन अगर हम अपने बची कुछ अच्छा महसूस नहीं कर रहे हैं तो तुम क्यों नहीं..... कुछ...... सो....च....सोच.... । और मैं इसके आगे कह नहीं पाया। 

लेकिन मैं दावे से कहता हूं कि वह मेरे कहने का मतलब समझ गई थी। लेकिन फितरत साहब, फितरत। आप जिंदगी में समस्या सुलझाने की कोशिश कीजिए और यह आपको ज़लील करने का मौके नहीं छोड़ती। उसके चेहरे पर के भाव को मैंने पढ़ा, वो चैंकी नहीं, वो ऐसा था जैसे उसे इसका इंतज़ार हो। एक लोमड़ी किस्म की कुटिल मुस्कान कि जैसे देख लो अब तुमसे ये भी नहीं निभ रहा और तुम इस हद तक उतर आए। फिर वह भोली बनती हुई चैंकते हुए बोली - क्या मतलब ? मैं समझी नहीं। ज़रा फिर से कहो। 

अबकी बार मैं कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। उसके डोमिनेटिंग आदत के चक्कर में मैं आ ही जाता हूं सो अबकी भी आया। मैं एक बहुत ही कमज़ोर दिल वाला आदमी हूं। अच्छे समाधान की तलाश में मैंने जब भी कुछ डेयरिंग फैसले लेने की ईमानदार कोशिश की सामने वाले ने मैं बुरी तरह धरा गया, मेरा गर्दन नाप लिया गया। 

मैं एक बुजदिल आदमी की तरह झटपट अपनी कही हुई बातों से सिरे से पलट गया। बातों को घुमाने के लिए यह मेरी खास पाॅलिसी है कि चूंकि मुझमें देर तक तर्कपूर्ण बहस करने और आत्मविश्वास की कमी और घुन्नेपन की आदत के कारण मैं मामले को हद से ज्यादा बिगड़ने से पहले ही यह चाल चलता हूं कि अपने कहे से मैं साफ पलट जाता हूं। तब मैं बस यह चाहता हूं कि इसी बहस में यह मामला निकल जाए। ऐसे में ज्यादा से ज्यादा क्या होगा वो झूठा, मक्कार, दोगला भर ही तो कहेगी। लेकिन उन बुरे नतीज़ों से तो बच जाऊंगा। फिर इसमें मेरी मदद औरतों के ज्यादा बोलने वाले गुण भी करते हैं। जब वो भी बहुत मुझ पर बरस जाती है तो नाॅर्मल होने लगती है और तभी फिर मैं अपने बयानों को लचीला करना शुरू करता हूं। अंततः मैं मान भी लेता हूं कि मैंने ऐसा कहा था लेकिन मेरा मतलब वो नहीं था। तुम ही गलत समझी। 

अगर यहां मामला रफा दफा हो जाता तो जीतने के लिए मैं इस बात को पकड़ कर बैठ जाता कि तुम्हें तो हर बात को उल्टा समझने की आदत है। कहता आम हूं, सुनती ईमली और बोलती अमरूद हो। 

लेकिन यह सब पहले की बातें हैं। आज तो अपनी कही हुई बातों के पहलमात्र से ही मैं बुरी तरह चक्रव्यूह में फंस गया। उसने उसी को मुद्दा बनाया और छीछालेदार करना शुरू किया।  मैं अकबका गया। उसने हथेली फैला फैला कर मुझे धिक्कारना शुरू कर दिया जिससे सीधे सीधे मेरे ज़मीर पर चोट लगनी शुरू हुई। वह वितृष्णा से भर उठी। उसके चेहरे पर मेरे लिए घृणा देखने लायक थी। उसने मुझे कम से कम दो बाप की औलाद कहा।

फिर भी वह गुस्से में उफनती हुई मेरे ओर देखती हुई चीखती जा रही थी। मैं हिम्मत करके उसे एक दो बार देख लेता। आंखें मिलने पर वह और उग्र हो जाती। उसके द्वारा दी जाने वाली गालियां और मोटी होती गई। मुझे लगा यहीं मेरे कान के पास बम फूट रहे हैं। मैंने उसकी बातों को इग्नोर करते हुए अपनी खाल मोटे होने का संकेत देते हुए जब अपनी कनपटी छुई तो उंगली सुलग उठी। बस मेरी नज़र ठीक इसी समय उससे एक बार फिर मिल गई-

‘तेरी मां मुहल्ले भर के मर्दों से फंसी होगी।'

बस इसके आगे मेरे कान सुन्न हो गए। एकबारगी लगा कि सामने कोई सिनेमा का परदा है और उस पर मैं कोई म्यूट फिल्म देख रहा हूं जिसका एक कैरेक्टर हद दर्जे के गुस्से में पागलों की तरह चिल्ला रहा है।
तब मेरे सब्र का पारावार नहीं रहा और उस दिन हम पहली बार हमारे रिश्ते में हिंसा उतर आई थी। मैंने क्रोधवश उसे एक थप्पड़ मारा, वह क्षण को अवाक् हुई लेकिन स्वभाव से ही इतनी डोमिनेटिंग औरत कहां चुप रहने वाली थी। उसने मुझपर अपने लात घूंसे बरसाना शुरू कर दिए।

वैसे मैं भी पल में शोला और पल में शबनम बन जाता हूं। शुरूआत तो हर चीज़ की कर देता हूं पर कारगर अंत करना नहीं आता। मैंने हवा दी उसने मुझे राख कर दिया। मैंने एक थप्पड़ मारा और मैं इसी भर से संतुष्ट हो गया था मगर उसने इसे बेस बनाकर मेरा कचूमर निकाल दिया।

एक पुरूषप्रधान समाज में निम्नमध्यमवर्गीय लिजलिजा पति होकर अपनी दूसरी बीवी से बुरी तरह ज़लील होकर भरपूर पिटा हुआ मैं फिलहाल अपने आपको काफी तृप्त महसूस कर रहा हूं। 

आज हमारे साढ़े चार साल के बासी रिश्ते में कुछ नया और रोमांचक हुआ है और अगर ऐसा ही रहा तो आगे और भी रोमांचक होने की उम्मीद है।

तब किसी अल्हड़ सी लड़की ने सुबह की गुलाबी धूप में स्लेट पर ईश्क लिखा था आज चिलचिलाती धूप में जिं़दगी की मास्टरनी हाथ में बांस की कच्ची और लपलपाती छड़ी लेकर कोम्प्रोमाईज के मायने सिखला रही है।

Comments

  1. तुम क्या लिखते हो, क्यूँ लिखते हो, इसके बंधन से अलग होकर अगर मैं सोचता हूँ तो हर पोस्ट को हर तरह के छद्मावेश से मुक्त पाता हूँ... भले कई लोगों को ये लिखा न सुहाए लेकिन इन शब्दों में कोई झिझक नहीं है... @सागर तुम सच में तारीफ के काबिल हो... ये तारीफ सिर्फ तुम्हारी पोस्ट के लिए नहीं बल्कि मुबारकबाद है तुम्हें कि तुम बेझिझक ऐसा लिखते हो...

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार ...

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष...

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने  ...