परदा उठता है।
नफासत भरी चाल में मलमल का कुरता डाले एक आदमकद आकृति मंच पर उभरती है। देह में लोच, मुख पर विनम्रता और नमस्कार की मुद्रा धारण किए माननीय संगीतकार नंगे पैर मंच पर बढ़े चले आ रहे हैं। एकबारगी लगता है जैसे मंच रूपी धरा ही कृतार्थ हो रही है। पके हुए बालों में शाइनिंग लिए हुए, पीतांबरी कुरते से एक दिव्य आभा का प्रस्फुटित हो रही है। कस्तूरी की महक आ रही है लगता है मृग यहीं आसपास है और कुचालें भर रहा है। कलाकार के कुरते के तीन बटन खुले हुए हैं जिसमें सोने की पतली सिकरी औंधे लेटे हुए है। यूं इस तरह सुनहली चेन का बाहर झांकना उनके पावन और विराट रूप को और दिव्य बना रहा है। हल्का पीलापन लिए उनके देह पर कुरता फिसल फिसल जा रहा है। कई बार लगता है कुरता नहीं कोट है और यह पतली देह उसके असहनीय भार को धारण नहीं कर पा रही और अभी अभी शरीर पर पिघलकर तार तार होकर बह उठेगी। कह सकते हैं कि संगीतकार का क्लीवेज दिख रहा है लेकिन न...न... (जीभ काटते हुए) संगीतकार हैं तो ऐसा बोलना पाप होगा।
संगीतकार के चेहरे पर हिन्दी में कहें तो तेज़ है, मुख देदीप्यमान है। आंखों से ज्ञान का प्रकाशपुंज निकल रहा है। इस ज्योति से सरासर जगत में जीवन रस फूट पड़ा है। सृष्टि सत्, चित्त, आनंद हो उठती है। श्याम बरन के कन्हैया नाच उठे हैं। आज पृथ्वी पर कला अपना शंखनाद करेगी। रंभा, उर्वशी, मेनका और तिलोत्तमा सामूहिक नृत्य में सहयोग करेंगी। यह अपनी तरह का जुगबंदी का विलक्षण और सर्वोत्त्म प्रदर्शन होगा। सत्य की विजय का उद्घोष होगा। सृष्टि राग, रंग, रस से सराबोर हो जाएगी।
उर्दू में कहे तो फनकार के हूनर का नूर है गोया उनके चेहरे के मसाम मसाम से रौनक बरस रहा है, ज़र्रे ज़र्रे पर आफताब चमक रहा है। लगता है मंच के बीचोंबीच जो दीपशिला है अगर वह उस पर अपना चेहरे से स्पर्श भर कर देंगे तो मंच पर रखा वह तुच्छ और निर्जीव दीया जल उठ्ठेगा। शमा के रोशन होने से नित्य नीरस संध्या अनुगृहीत हो जल उठेगी। सामने दर्शक दीर्घा में बैठी सारे हुस्नो जमाल जो अब ज़ाहिर हैं, फीकी हो जाएगी।
मंच के किनारे ज्यादा वोल्टेज पाली पीली रोशनी की चुभन से उनके माथे पर पसीने की नन्हीं नन्हीं बूदें चमक रही हैं। अगर आप अपने आंखों का कैमरा जूम करके देखें तो वे बूंदें आपको भारी होकर गोल-गोल घूमती नज़र आएंगी और उसमें वातावरण का रंगीन प्रतिबिंब दिखाई देगा। और उनके मुखमुद्रा की यह भंगिमा देखकर आप कह उठेंगे कि कलाकार के माथे पर संपूर्ण ब्रह्मांड नृत्य कर रहा है। कह सकते हैं कि आदरणीय संगीतकार पौव्वा तो नहीं बीयर चढ़ा कर जरूर आए हैं लेकिन... न.... न.... (जीभ काटते हुए) संगीतकार पर ऐसा सोचना भारी जुलुम लगता है।
उनके नन्हें- नन्हें, गोरे -सलोने पांव रूई के नर्म नर्म फाहों जैसे हैं। उनके उवाचने का पिच इतना धीमा है जो फुसफुसाने की हद को शर्मिंदा कर देता है। तीव्रता से कदाचित उनका परिचय नहीं। उतावलापन उन्हें भाया नहीं। उनकी नज़र में जो ऐसा करता है वह उचक्का है, मानवोचित गुणों से च्चुत है अतः मनुष्य रूप में बिना पूंछ का पशु है, वह कला से हीन है। ग्रह नक्षत्रों, पल-विपल के नृत्य और सूक्ष्म कला से पूर्णतः अनभिज्ञ है।
पुरूष अधीर होते हैं सो उनके कला का दर्शन मात्र कर अपने को धन्य समझते हैं मगर उनके धीमे बात करने की सुविख्यात अदा का एक अतिरिक्त लाभ उन्हें यह भी मिलता है कि प्रशंसिकाएं लगभग सांसों को सुन सकने वाली नज़दीकी की हद तक उनके पास आ जाती हैं। कह सकते हैं कि इन स्वास्थ्य लाभरूपी व्यायाम से मैं उनके सिताररूपी हृदय तरंगों को सुन लेता हूं लेकिन.... न... न.... (जीभ काटते हुए) एक संगीतकार के बारे में ऐसा कहना गुनाह है क्योंकि वह हमारी धड़कनें सुनकर अपने वाद्य्ययंत्रों पर हू ब हू ध्वनित कर देता है।
औपचारिक दीप प्रज्ज्वलन के बाद उनके स्वागत हेतु दो शब्द के बहाने वक्तारूपी मंत्री महोदय उनके कशीदे इस तरह पढ़ने लगते हैं गोया किसी लेफ्टिस्ट को वामपंथ पर लेख लिखने दे दिया गया हो। भारत की शस्यशामला धरा पर कला की हो रही दुगर्ति की तुलना वह समकालीन सिनेमा में ‘स्त्री - एक देह प्रदर्शन’ मुद्दे से जोड़ देते हैं। सचिव के कई बार उनके पाजामे खींच कर याद दिलाने पर वह अपनी तकरीर अंत वे ललित निबंध के इस गुर से करते हैं कि अंत आशावान शब्दों में होना चाहिए, अतः श्री मंत्री उवाच् -
इन सबके बावजूद ऐसा नहीं है कि हमारा देश कला के मामले में आत्मनिर्भर नहीं है। बाहर से कलाकारों को आयात करने की आवश्कता नहीं है। हम इस मामले मे आत्मनिर्भर हैं कि हमारे यहां हर गली में कलाकार हैं (भाषण के दौरान उनकी नज़र अग्रिम पंक्ति में लाल और काली छींट वाली साड़ी और स्लीवलेस ब्लाउज पहने एक महिला से मिल चुकी है जो जिस पर वह अपनी हर पंक्ति के दो छह शब्द के दृश्य उस पर न्योछावर कर दे रहे हैं। पटकथा के लहजे में कहूं तो यहां आॅडियो, वीडियो को सपोर्ट नहीं कर रहा है) मैं अपने दोस्तों और उनकी सहेलियों से अनुरोध करूंगा कि वे अच्छे फनकार पैदा करें ताकि हमें अपने पड़ोसी देशों से कलाकार बुलाने की आवश्यकता न पड़े और हमारे देश के फनकार अपनी कला के बूते अच्छी जीवनशैली बसर कर सकें। माता शारदा उनको.....
सचित घबराकर फिर उनका पाजामा खींचता है। मंत्री महोदय घड़ी और उस महिला को एक बार फिर देखते हैं। श्रोताओं से जबरदस्ती ताली बजवाते हैं। मंच छोड़ने से पहले उक्त महिला पर सर से पांव तक अंतिम गहरी हृदयवेधी दृष्टिपात करते हैं। और मंच से उतर जाते हैं।
मंच पर पहले से बैठे हुए कलाकार के रूप की आंच अब हल्की मद्धम पर चुकी है। वे इरिटेट हो गए हैं। जुगलबंदी के लिए उनके साथी कलाकार अब तक नहीं आए हैं। बहरहाल वे तबले पर थाप देते हैं। और भीड़ को साधने की कोशिश करते हैं। इस मामले में वे युवा हास्य कवियों जैसे हैं जो वरिष्ठ हास्य कवि के आने तक श्रोताओं की हूटिंग से बचने के लिए दो टके की कविता सुनाते हैं। हां तो लाइव टू मंच से पहला कलाकार -
तबले पर थाप से पहले वे अपनी हथेली पर रा...धा... रा.... धा... उच्चारते हैं। यह उनकी देवी को स्मरण करने की अदा है। वे अपनी पूज्य को इस रिदम से मंच पर साकार करते हैं।
पब्लिक साथ जुड़ती है। जोरदार बेसुरे तरीके से जबाव आता है - राधा.... राधा....
कलाकार कनखी से प्रोग्राम के संचालनकर्ता को साथी कलाकार द्वारा आने में किए जा रहे देरी को नोटिस करवाता है। पर भीड़ को इंगेज रखने के लिए राधा आलाप खैंचने लगता है।
रा....धा.... रा....धा.... रा....धा....
धा...धा.....धा...... धा......धा......
धिगिर धा..... धिगिर धा.....
रा....धा.... रा....धा.... रा....धा....
जुगलबंदी पब्लिक पर छोड़ी जाती है। भीड़ बेचारी ऐसी लय कहां से लाए! वो सिर्फ राधा राधा..... रा...... रा..... रा...... रा..... रा...... रा..... रा...... रा..... धा...धा....धा...धा....धा...धा....धा...धा....धा...धा.... राधा... राधा... राधा जबाव देती है।
कलाकार का मन भीड़ के प्रति घृणा से भर जाता है, वह थूकना चाहते हैं मगर थूकने का पात्र जोकि पीतल का है, संलाचनकर्ता रखना भूल गए हैं।
अगले ही पल उन्हें लगता है वे कितने श्रेष्ठ हैं जो इस बावली भीड़ को हांक रहे हैं। क्या अजब और गजब होती है संगीत की शब्दावली जो भीड़ मस्त नागिन की तरह फन काढ़े बस सर झूमाए डोलती रहती है!
सहसा... पब्लिक ताली बजाती है। पहले कलाकार चैंकते हैं फिर देखते हैं मंच पर दूसरी आभा प्रस्फुटित हो चुकी है। उलझे और बिगड़े बालों में गंधाए हुए, पसीने में तर-ब-तर दूसरा संगीतकार मंच पर विद्यमान है। चेहरे पर कई रातों की रूठी हुई नींद पर परछाईं है। उंगलियों में कई लपेटी हुई नाजुक पट्टी है जैसे मैदान पर फील्डर के होते हैं और कैच छोड़ने के बाद कैमरा खिलाड़ी के अफसोस के बाद उसकी उंगली पर जूम इन करता है। कह सकते हैं कि संगीतकार मारे टेंशन के कई सिगरेट फूंक कर आया है लेकिन न...न... (जीभ काटते हुए) संगीतकार हैं तो ऐसा सोचना भी... हें...हें...हें.. हें....
पहला कलाकार नाराज़ है। दूसरे के बारे में सोचता है - लगता है साला कहीं और से परफाॅर्म करके आ रहा है। मेरे से जूनियर है, मेरे सामने पैदा हुआ, सा, रे, ग, म सीखा और आजकल हर जगह मेरा ही पत्ता काटता फिरता है। पहला कलाकार यह सब सोचता हुआ उसका नमस्कार कर अभिवादन करता है।
दूसरा कलाकार सोचता है कि इसका प्रदर्शन आजकल इतना गिरा हुआ क्यों है, अब समझा। यह साला रिहर्सल में भी गायब रहता था। माल कमाने के जुगाड़ में ज्यादा रहता है। ऐसा सोचता हुआ वह नमस्कार का जबाव विनम्रता से सिर को चाइनीज मार्शल आर्ट वाले ‘हो’ लहजे में बहुत ज्यादा झुका कर देता है।
पब्लिक अपने पर शर्म महसूस करती है। सोचती है - इनकी दुनिया कितनी विराट है! हम जैसे तुच्छ लोग हमपेशा लोग भाई- भाई होकर लड़ते-मरते हैं। इन लोगों में कितनी विनम्रता है! भीड़ अपने पर लानत भेजती है।
पहले कलाकार ने तबले पर जोरदार थाप दी। उंगलियों की कोर से कसे, मढ़े हुए चमड़े पर जब चोट पड़ी तो वह पगडंडी से भटके भेंड की तरह वापस ट्रैक पर आ गई। संगत करते हुए दूसरे कलाकार ने पखावज को जड़ से हिला डाला। पब्लिक में एक रोंगटे खड़े कर देने वाला रोमांच जागा। भीड़ आह्लादित हो उठी। संगीत की सुरलहरियों से आसमान भी झंकृत हो उठा। कई बुजुर्ग महिलाओं ने तो से मंच पर यह दिव्य समागम देख अश्रुपूरित नेत्रों से खुद को गदगद फील किया।
कि अचानक दूसरे कलाकार की भृकुटी में पहले तनाव आया तत्पश्चात् वह टेढ़ी होकर ऊपर की ओर उठी। उठी और थोड़ी देर तक लगा हवा में ही टंग गई। लेकिन फिर गिरी। पहले कलाकार ने जोकि तबला बजा रहा था रिहर्सल के बाहर जाकर राग छेड़ दिया। दूसरे कलाकार को यह बीट खटका कि यह तो रिहर्सल में था ही नहीं! इतना समझते ही वह निश्चिंत हो गया और यह सोचते हुए कि साला अपनी औकात पर आ गया, वह खुद भी कुछ का कुछ बजाना लगा।
हमारी आम जनता सीधी है। रोजी रोटी से थक कर आती है तो उसे यह भी सुरीला लगा।
सो तब से बेसुरों में सुर तलाशकर उसमें सुख और सुकून खोजना आज भी ज़ारी है।
पब्लिक सुर नहीं शोर सुन रही है। भैंस की तरह संगीतकार पगुरा रहें हैं, नागिन की तरह आम जनता उस बीन की तान पर झूम रही है।
जुगलबंदी ज़ारी है।
परदा अभी गिरा नहीं है।
waah
ReplyDeleteवाह बहुत खूब लेखन | ज़बरदस्त |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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