मैं
हमेशा से उसके उभारों के बारे में सोचता आया हूं। उससे संबंधित बहुत सारी
कल्पनाएं की हैं। मैं सोचता रहा कि आईने के सामने जब वह अनावृत होकर आती
होगी तो कैसी लगती होगी। उसके ये वक्ष कभी बासी और अलसाए हुए नीम नींद में
होते होंगे कभी ताज़े और जागे हुए सर्तक। स्वस्थ, लगभग गोल, गुदगुदे,
सख्ताई लिए मांसलता। कभी कभी जब जागे हुए मैं उन्हें अपने हथेलियों में
थामता तो बड़ा मुतमइन हो जाता। ज़िंदगी की चक्की में बीमा सुरक्षा, किराए
का कमरा, परचुन की दुकान से उधारी खाते पर रोज़ का आटा, दाल, चावल की कमी
से मुक्त महसूस करता। कुल मिलाकर कहूं तो मानसिक असुरक्षा से निकल आता।
मुझे लगता कि मैं किसी ऊंचे टीले पर बैठा हूं, तब ज़िंदगी एक किसी गोल्फ
कोर्स के हरे भरे मैदान सा लगता जिसमें पानी की चक्की से यहां वहां सिंचाई
चल रही हो। यह वैसा ही लगता जैसे आप पैंतीस से चालीस के उमर में हों, करियर
और जवानी अपनी पीक पर हो, बच्चे स्कूल जा रहे हों, घर की दीवारें हर
दीवाली पर पेंट हो जाती हों, साल-छह महीने में एक ड्राइंग रूम में कोई न
कोई फर्नीचर लग जाता हो, आनंद के लिए मार्केट में नई लांच हुई कंडोम
फ्लेवरों पर हाथ आजमाते हों, गर्लफ्रेंड को सेक्सी और रंग बिरंगी लिंगरी
में देखना चाहते हों, पांच सात सेविंग प्लान हो, रिटायरमेंट और पेंशन की
तैयारी कर ली गई हो, बच्चों के स्कूल की छुट्टियों में आप घूमने चले जाते
हों और वापस आकर अपने पड़ोसियों को मारीशस या अजरबैजान हो आने की सलाह
देते हों।
हालांकि इन दिनों उसका उभार थोड़ा ढ़लक गया है। लेकिन उतना
नहीं। अब भी अगर उन्हें थोड़ी देर तक प्यार किया जाए तो वे अनुभवी हाथों के
हुनर से अपने पर इतराकर और पक्के जलावन की आंच पर सिंकते धिपे हुए तवे पर
की रोटी सा फूलकर, मस्त उरोज़ों में तब्दील हो जाते हैं। तब जिंदगी बड़ी
स्वस्थ हुआ करती है और लगता है सिर किसी स्पंज वाले तकिए में दे रखा है।
*****
अस्पताल में बेड पर लेटा हुआ हूं। दवाईयां दोस्त बन गई हैं। अच्छा है दारू न सही कफ सीरप सही।
यहां
से दरभंगा हाऊस याद आ रहा है जहां कॉलेज के दिनों में तुम मेरे सीने पर
लरजी रहती थी। उन दिनों गुलमोहर और अमलतास पर फूल पेड़ों पर शहद पर के
मधुमख्खियों की तरह लधके हुए रहते। तुम मेरे सीने को विनोद मेहरा की खुले
सीने से तौलती। सीने के उन बालों में तुम्हारे उंगलियों के लम्स अब तक उलझे
हैं। उन दिनों तुम कहा करती ये मांझे हैं जिनसे मेरी उंगली कटती है। मैं
भी पतंग बन आसमान में उड़ती थी लेकिन तुम्हारे धागे पर लगे मरकरी के शीशे
की धार से तुम्हारे दामन में आ गिरी। आज मैं यहां से परवाज़ करती हूं। उस
समझ मुझे लगता कि बस इसी बरस अब इन फूलों के आमद की यह आखिरी खेप है। और
भाईसा होता है ऐसा कि जिस दिन हम हद से ज्यादा हंसते हैं अगले पर बुरी तरह
रोते हैं। यह भारत सरकार का कृषि मंत्रालय नहीं है जो हर बार हर फसल के
रिकॉर्ड उत्पादन का तमगा अपने ऊपर ले ले।
कितना मजबूर है आदमी, कैसी तरक्की की है? वर्तमान अतीत हो जाए तो हम आहें भरने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते।
आज
दरभंगा हाऊस के उन्हीं दिनों को याद करते हुए पुरानी
डायरी से कुछ अन्तरंग लाइन निकालकर लगा रहा हूं जो तब शेर थे. उम्मीद है
तुम पटना से इन्हें पढ़ोगी. कान बंद करने से अन्दर का शोर ख़त्म नहीं हो जाता. तुम
पढ़ो इन्हें शायद तुम्हें भी कुछ याद आए। ये मेरे लिखे वाक्यों
के ग्रामर की तरह कमज़ोर और बेतरतीब हैं लेकिन देखो ज़रा कि क्या टांग टूटे
भेड़ दूध नहीं देते ? या कि उनके ऊन में गर्माहट नहीं होती ? आखिर कैकुलेटर लेकर
प्यार तो नहीं हो पाता जानम।
हज़ार मंज़र हैं सागर प' ज़िक्र एक तसव्वुर का
सीना आसमान चूमता हो और तूने पैर मोड़ी हो
हज़ार मंज़र हैं सागर प' ज़िक्र एक तसव्वुर का
सीना आसमान चूमता हो और तूने पैर मोड़ी हो
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छूअन से ऑडियो ग्राफ की तरह उठता है तेरी पीठ पर तरंग
मेरी हथेलियों में तुम्हारी जांघ स्वस्थ बच्चा सा खिलखिलाता है
छूअन से ऑडियो ग्राफ की तरह उठता है तेरी पीठ पर तरंग
मेरी हथेलियों में तुम्हारी जांघ स्वस्थ बच्चा सा खिलखिलाता है
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जिस्मानी मुलाक़ात में और क्या होता होगा दोस्त
मैं तुममें उतरता जाता हूँ और तुम निकलती जाती हो
जिस्मानी मुलाक़ात में और क्या होता होगा दोस्त
मैं तुममें उतरता जाता हूँ और तुम निकलती जाती हो
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उँगलियाँ तीलियाँ है मेरी तुम्हारा बदन माचिस है
वक्त को तंदूर की तरह जलने दो, रोटियां पकने दो
उँगलियाँ तीलियाँ है मेरी तुम्हारा बदन माचिस है
वक्त को तंदूर की तरह जलने दो, रोटियां पकने दो
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ये एक आखिरी लिबास भी खींच लूँ तुम्हारे कमर के नीचे से
मैं बेहद प्यासा हूँ लेकिन आसमान भी गरजता है
ये एक आखिरी लिबास भी खींच लूँ तुम्हारे कमर के नीचे से
मैं बेहद प्यासा हूँ लेकिन आसमान भी गरजता है
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बिस्तर एक रास्ता रहा, चादर की सलवट जागती रही
पाले बदल-बदल कर हम घुड़सवार बनते रहे, घोड़े भी !
बिस्तर एक रास्ता रहा, चादर की सलवट जागती रही
पाले बदल-बदल कर हम घुड़सवार बनते रहे, घोड़े भी !
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चुप रहना भी तभी कारगर होता है महबूब
जब तसल्ली या बेचैनी से चार लबों को चुप करा दो
चुप रहना भी तभी कारगर होता है महबूब
जब तसल्ली या बेचैनी से चार लबों को चुप करा दो
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यूँ मसले को समझ जब भी तुमने लट कान के पीछे लगाई है
बस समझना हमने कोई बेहद पेचीदा तस्वीर बनायी है
यूँ मसले को समझ जब भी तुमने लट कान के पीछे लगाई है
बस समझना हमने कोई बेहद पेचीदा तस्वीर बनायी है
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पढो और आज अपने पति को जी भर कर प्यार करो.
बडा कातिल कांच है इस लेखन मांझे का!
ReplyDeleteजाने जिसके लिये ये लिखा गया है वो खुश्नसीब है य बदनसीब मगर कोई पुराना महबूब इस शिद्दत से याद करे ये बात दूसरी लडकियों के लिये जलन की वज़ह हो सकती है... और इसे पढकर एक ख़याल आता है कि क्या उसे भी मैं इस तरह याद आ सकती हूं??
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