Skip to main content

रेडियो बरक्स हिंदी फ़िल्मी गीत


सिगरेट की आदत तब तक नहीं लगती जब तक दोस्तों के बीच मुंह में धुंआ भर कर, जबरदस्ती खांसी रोककर, गले की नसें सूजाकर और आखों में उसकी जलन को रोककर लाल करते हैं। सिगरेट की आदत उस दिन लग जाती है जब आप सुबह के सात बजे खास तौर से खूंटी पर टंगी कमी़ज को उठा कर उसके दोनों हत्थे में सीढ़ी से उतरते हुए उन हत्थों में डालते हुए, गली में चलते हुए उनके बटन लगाते हुए नुक्कड़ पर की गुमटी पर पहुंच जाते हैं और सिर्फ एक अदद सिगरेट दुकानदार को देने बोलते हैं। उस दिन सिगरेट की आदत लग गई पक्की समझिए।

आज भी जो लिख रहा हूं वो भी कुछ ऐसा ही समझिए। बिस्तर पर था और एक बेचैनी थी, करवट काट रहा था। रहा नहीं गया तो उठ कर लिखने बैठ गया हूं। कोई तोप या धांसू चीज़ नहीं लिख रहा, न साहित्य रच रहा हूं। बस पिछली बार की तरह ही हिंदी फिल्मी गीतों के मुताल्लिक कुछ बातें हैं। जैसे जैसे मन में बातें आ रही हैं लिख रहा हूं।

पृष्ठभूमि में रेडियो चल रहा है और जो बात दिमाग में फिलहाल छन कर आ रही है वो ये कि हिन्दी फिल्मी गीतों में ख्य्याम का संगीत अजब कोमलता लिए हुए है। उनके संगीतबद्ध किए गीत जब सुनता हूं तो लगता है जैसे किसी कमसिन के सीने पर उसका दुपट्टा सरसरा रहा हो। या फिर ऊंचे गोल बिस्तर पर झीने परदे में कोई नाजनीन बैठी हो, जो इतनी छुपी हो कि दिमाग में बहुत ज्यादा रोशन हो रही हो।

ख्ययाम का संगीत यही है, इतना सिंपल कि कई बार लगता है उन्हें ये इल्म हो कि मुझे अपनी विद्वता दिखा कर गीत के बोलों को मारना नहीं बल्कि और उभारना है। आंचल कहां मैं कहा हूं, ये मुझे ही खबर नहीं, न जाने क्या हुआ जो तूने छू लिया, लता मंगेशकर का गाया यह गाना और ऐसे ही कई गीत शब्द प्रधान हो जाते हैं। उनकी पत्नी जगजीत कौर जो कि खुद बहुत अच्छा गाती हैं, उन्होंने बहुत कम मौके दिए। उनका गाया देख लो आज हमको जी भर के हृदय विदारक गीतों में से एक है और इसका संगीत कलेजा चीड़ देता है। कहते हैं टेक्स्ट अपनी आवाज़ खुद चुनता है। इस गीत के शब्द ने जैसे अपनी सही आवाज़ चुन एक मुकम्मल पनाह पा ली हो जैसे।

सवाल उठता है कि रेडियो कैसे सुना जाए। यकीन मानिए रेडियो सुनना आपमें संगीत की अच्छी समझ पैदा कर सकता है। रेडियो तेज़ आवाज़ में सुनने की कतई कोई चीज़ नहीं। इस पर गीत सुनने के दरम्यान सामान्य दर से हमेशा दो दर्जा नीचे रखिए। ऐसे में यह कल्पनाशक्ति तेज़ कर देता है। वो जो शब्द सुनने से छूट गया उस पर आपका दिमाग हाथ आजमाने लगता है और वहां शब्द फिर आप चुनने लगते हैं।

रेडियो नाटक खासकर जिसमें बेबसी के दृश्य ज्यादा हों उन्हें सुनने पर वो बेबसी हमारी हो जाती है। रेडियो से छन कर आती आवाज़ एक साबुत जिस्म हो जाता है दुर्योधन के पत्थर के बदन की तरह जिसकी जांघें अब भी सजीव हैं। एक रेडियो हममें कई एहसासात भर सकता है। मैं आजकल के एम एम चैनल्स की बात नहीं कर रहा, इससे मैं रत्ती भर प्रभावित नहीं हो पाता। इनमें सुर तो नहीं ही है अलबत्ता शोर बहुत है। खैर....

मैं बात कर रहा था गीतों से अपने याद की। शुरूआती दौर की बात है। हफ्ते में मुझे एक गीत गाना होता था पिताजी के सामने। तब रेडियो पर किशोर कुमार बहुत आसानी से समझ में आ जाते थे। खासकर राजेश खन्ना पर फिल्मांकित गीत। उन गीतों की फक्कड़ता, उनमें छुपी लापरवाही और दर्द जैसे कि अधिकांश हिंदुस्तानी ऐसे ही होते हैं, मुझे भी ये गीत खींचते थे, इन्हें कॉपी करना आसान था। रफी तब एकदम समझ नहीं आते थे। लेकिन जैसे जैसे समय गुज़रा रफी के आगे कोई नहीं टिक सका। रफी की आवाज़ एक साहित्यिक क्लास किस्म की आवाज़ है, जो बहुत पाक भी है। वो अपने गायन में डूबकर भी एक दूरी बनाए रखते हुए से प्रतीत होते हैं।

दर्द भरे गीतों के लिए मुकेश की आवाज़ एक अजीब किस्म की उदासी देती है। इसे सुनकर मैं अक्सर अवसाद में चला जाता हूं। मैं तो इक ख्वाब हूं, इस ख्वाब से तू प्यार न कर। जो राह में मिल जाओगे, सोचेंगे तुम्हें देखा ही नहीं। अभी तुमको मेरी जरूरत नहीं बहुत चाहने वाले मिल जाएंगे, अभी रूप का एक सागर हो तुम, कंवल जितने चाहोगी खिल जाएंगे या फिर मुझको इस रात की तन्हाई में आवाज़ न दो, दोस्त दोस्त न रहा या चांदी की दीवार न तोड़ी, प्यार भरा दिल तोड़ दिया। सुहानी चांदनी रातें हमें सोने नहीं देती। वक्त करता जो वफा आप हमारे होते, ऐसे कई गीत हैं जो जब किसी इतवार की दोपहर को सुनता हूं तो ये सिलसिला खत्म नहीं होता।

इसी दर्द और उदासी के क्रम में दस्तक फिल्म का वो गीत भूलाए नहीं भूल सकता जब मदनमोहन खुद अपनी जिगर चाक कर देने वाली आवाज़ में गाते हैं - माई री मैं का से कहूं पीर अपने जिया की। सोचता हूं क्या सोचकर गीतकार ऐसे गीत लिख जाता होगा। क्या खाते होंगे और इस गीत के शब्द रचने के दौरान कैसी मनःस्थिति होगी लिखने वाले की? ये उन गीतों में है जो सुनकर ये जलन होती है कि काश ऐसे हम भी लिख सकते!

जलन के इसी क्रम में मेरे महबूब फिल्म का वो गीत रफी ने गाया है - मेरे महबूब तुझे मेरे मुहब्बत की कसम। ये गीत अलहदा और बेमिसाल है। रफी ने इसे आवाज़ देकर मुझे लगता है अमर बना दिया है। संगीत को भूल जाईए। इस गीत का अगर प्रिंट आऊट लेकर अगर इस पर गौर किया जाए तो यह बेसिकली एक निहायत खूबसूरत कविता है जिसमें आदि, मध्य और अंत तीनों है। अपने उरूज पर जैसे जैसे यह पहुंचती जाती है बला हुई जाती। सामने आ कि बस यही मेरा इलाजे गमे तन्हाई है। उफ़, उफ़ और उफ़। इश्क में जीना और तभी ऐसा लिखना संभव है। ये ऐसा गीत है जो सुलाता भी है, रूलाता भी है और नींद से जगाता भी है। रफी की आवाज़ जैसे वीणा के तार उंगली काटते हैं।

वहीं कुछ गीत गायक और गायिका दोनों से गवाएं गए हैं। इनमें कुछ अच्छे हैं जैसे - तुम मुझे यूं भूला न पाओगे। लेकिन कुछ में ये प्रयोग फीका हो गया है जैसे मासूम फिल्म का गीत - तुमझे नाराज़ नहीं जिंदगी हैरान हूं मैं। लता की आवाज़ में ये गीत लोरी होते हुए लचर हो जाती है, ऐसे ही अंदाज फिल्म का ये गीत - जिंदगी एक सफर है सुहाना, फीमेल आवाज़ में यह बेअसर है।

कहते हैं शहनाई शादी का प्रतीक है। हुस्नलाल भगतराम द्वारा संगीतबद्ध और रफी का गाया ‘तकदीर का फसाना जाकर किसे सुनाऊं, मेरे दिल में जल रही है, अरमान की चिताएं' में शहनाई वादन सुनिए। या फिर राग गुनकली में उस्ताद बिस्मिल्लिा खां साहब द्वारा बजाई जादूई शहनाई - 'दिल का खिलौना हाय टूट गया,' सुनिए। खबरदार जिन्हें शहनाई से शादी याद आती हो ये पूर्वाग्रह तोड़ देगा।

Comments

  1. हम भी अक्सर येही ही सोचा करते हैं कि आप जानाब क्या खाकर लिखते हैं या क्या पीकर या कितना सारा पीकर ..
    हमे भी जलन होती है आपसे ..
    सच्ची ....

    ReplyDelete
    Replies
    1. हमारे हुस्न का हुक्का बुझ गया है,
      एक तुम्हीं हो जो गुडगुडाये जाते हो.

      Delete
  2. रेडियो सुन ने का आनंद न मोबाइल में है न टी वी में,इस लिए मैं तो संगीत रेडियो से ही सुनना पसंद करता हूँ.

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार ...

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष...

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने  ...