17.03.12 at 11:52 PM
आज अनजाने में ही ए का हाथ मेरे हाथ से छू गया। छुअन को लेकर मुझे लगता है कि हार्ड टच उनता अहम नहीं होता जितना किसी की त्वचा के साथ हमारे त्वचा के रोएं भर स्पर्श करें। इस सिलसिले में मुझे याद है तब मैं बारह की थी और सातवीं में पढ़ रही थी, लंच से ठीक पहले चौथे पीरियड में मृगांक ने एक लंबी गर्म सांस मेरी गर्दन पर छोड़ते हुए मेरे कान की लौ पर अपने नाक से एक धीमा सा स्पर्श कराया। मैं सिहर उठी थी। वो मेरी पहली सिहरन थी। छुअन का वो रोमांच मुझे आज तक याद है।
खैर......आज के इस स्पर्श से हमदोनों ही चौंक गए। हमने खुद को एक दूसरे से एक झटके से अलग किया। जब भी हमारी नज़र मिलती, हम एक दूसरे को तौलते, बैलेंस्ड बनने की कोशिश करते। फिर रिपोर्ट को समझते समझते मैंने बनावटी गुस्सा अख्तियार किया तो ए पूरी तरह सहम चुका था। मुझे उसका यूं डरना अच्छा लगा।
22.04.12 at 8: 47PM
कल शाम ऑफिस से जल्दी पैक अप हो गया। मैं हूमायूं के क़िले को चली गई। जाने क्या मन हुआ कि मैं किले के अंदर न जाकर बाहर पार्क में ही टहलने लगी। आसमान बहुत गहरा नीला था। नीती जैसे अपने कैनवस पर नीले रंग के ताज़े गीले कलर का इस्तेमाल करती है। मैंने देखा कि आसमान में किले का गुंबद अकेला है। शम्मी के पेड़ के पत्ते मेंहदी के रत्ती रत्ती की तरह बिखरे हुए हैं। पेड़ों के झुटपुटे में कालिमा बढ़ने लगी। एक पेड़ है जिसका नाम मैं नहीं जानती (वैसे तो बहुत से ऐसे पेड़ है जिसका नाम मैं नही जानती) इस पर शाम को कई बड़े पक्षी चील और गिद्ध कयाम करते हैं। ये पक्षी दिन भर जैसे अपने डैने आकाश में फैला कर उड़ते हैं रात को वैसे ही चुप्पा बनकर सिर झुकाए रहते हैं जैसे कोई शुर्तुमुर्ग रेत में अपना सर धंसाए रहता है। तब मुझे इनकी लघुता का एहसास होता है। कोई भी हर जगह बादशाह नहीं होता। मैं प्रकृति की खूबसूरती निहार ही रहती थी कि शाम का धुंधलका कब बढ़ आया पता नहीं चला। शाम रात में बदल गई।
मैं भी मैं कहां रही!
06.04.12 at 1:28 AM
सीसीडी में आज गर्ग ने अपना हाथ मेरे हाथ पर हिम्मत कर रख ही दिया। मैंने चाहा कि हटा दूं। सो इस दौरान हुए रिएक्शन में मैं हल्का सा कुनमुनाई मगर फिर रहने दिया। मुझे लगा कि मुझे गर्ग के इस टच को समझने की कोशिश करनी चाहिए। उन नज़रिए से नहीं जो मैं उसके बारे में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रखती आई हूं। उस एंगल से भी नहीं जिसके दायरे में वो मेरे लिए पहचाना है। मैंने उसके टच को गर्ग के अस्तित्व से आज़ाद कर महसूसने की कोशिश की। मुझे उसके टच में एहसास और आत्मीयता की वो ऊष्मा महसूस नहीं हुई। एंड देन आई रिअलाइज्ड कि गर्ग इज़ नॉट फार मी। ये भी लगा कि कई बार हम बस पहचान के लोगों के साथ, उसकी आंखों में अपने लिए इज्जत की खातिर, उसकी दोस्ती को तरजीह देते हुए हम उसके साथ सहानूभूति से पेश आते हैं, या फिर दयनीय नज़र से उस भावुक रिश्ते को देखते हैं। डोंट नो डैट मैं खुद को समझा पा रही हूं या नहीं मगर मेरा दिल कह रहा है कि इस चीज़ को जो मैं इस वक्त लिख नहीं पा रही हूं वो बस समझ रही हूं। मुख्तसर बात ये कि प्यार में हमें किसी पर एहसान नहीं करना चाहिए और साथी के साथ और स्पर्श को आज़ाद ख्याल से सुनना चाहिए। अपना मनोभाव उसमें मिक्स कर उस रिश्ते को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए।
22.05.12 at 4:12 PM
डियर डायरी!
या... या.... यप्प.....। आई नो। आई नो। लांग टाईम नॉट रिटेन। बट मिस्ड यू सो मच। तुम्हारी याद तब तक आती रहती है जब तक तुमसे भागती रहती हूं। और अब.... अब तो बस तुम्हें जी रही हूं। इससे पहले कि भूल जाऊं कुछ बिंदु लिख लूं।
- काग़ज़ कलम का क्या रिश्ता है? तौलकर बोलना क्या प्यार ?
- आखिरकार सबको अपने घर ही लौटना है। और
- मरती हुई मछली याद में ज़िंदा रह जाती है।
S
'आखिरकार सबको अपने घर ही लौटना है।'
ReplyDeleteसच है, लिख गया है "डियर डायरी" में, पढ़ा गया, अब याद रह जाएगा यह बिंदु, बिन्दुवत!