हाय ! कैसे हो?
याद को वो पुराना सिलसिला इस प्रश्न से टूटा। मुझे लगा वो मेरे चेहरे पर विछोह के पड़ते फ्लैशेज़ कहीं देख न रही हो, सो जड़ता से लगभग टूटता हुआ मैं बोल पड़ा - हैलो, तुम कैसी हो।
एज़ यूजअल बढि़या। उसने ज़रा और आत्मविश्वास से खड़े होने की कोशिश की। बढि़या शब्द उसके मुंह से काफी माड्यूलेट होकर निकला जो मुस्कुराने और हंसने के बीच की अवस्था में कहीं फंसा था।
हम्मम..... - मैंने उसकी वर्तमान स्थिति से अवगत होते हुए कहा
मुझे कम बोलता देख उसने दूसरा रूख अपनाया जहां से मुझसे कुछ बुलवाया जा सकता था।
और तुम्हारे घर में सब ठीक? मम्मी, बुआ और मामाजी?
हां, वो सब भी बढि़या। दरअसल मैं इस अचानक के मिलने के संयोग को अब तक स्वीकार नहीं पाया था, सो बेहद सर्तकता से अपने शब्दों को चुन रहा था।
और मीता ? उसका क्या हाल है, इंटर में एडमिशन हो गया उसका?
आं... हां। हो गया।
सब्जेक्ट्स क्या लिए हैं उसने? - मैं हकबका गया। उसके अंदर अब भी उगलवाने की कला मौजूद थी। उसने भांप लिया था कि मैं बोलना नहीं चाहता। बरसों बाद कुछ खास किस्म के रिश्तों से जब हम टकरा ही जाते हैं तो उसके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना चाहते हैं।
ऐसा नहीं था कि मैं उसके बारे में नहीं जानना चाहता था मगर उसके बात को शुरू करने का सिलसिला खीझ बढ़ाने के साथ साथ दिलचस्पी का भी बायस था।
मैंने जानबूझ कर जवाब नहीं दिया। मैं देर से जवाब देना चाहता था। लेकिन उसमें धैर्य नहीं था।
पेट निकल आया है तुम्हारा, आं....? उसने फिर पिन मारी। मैंने खिड़की के बाहर से नज़र हटा कर उसकी ओर एक नज़र देखा। हमारी आंखें मिली। मुझे सही जगह चुभी। मैं तिलमिला कर रह गया।
बीच के वक्फे खाली गए। मेट्रो के ट्रैक पर सरसाने की आवाज़ उस खाली वक्फे पर सुपर इम्पोज हो गई।
लगता है, तुम बात करने के मूड में नहीं हो। चलो..... मैं चलती हूं। ओ. के.।
नहीं ऐसा नहीं है। मीता ने बाॅयो लिया है। बुआ जी अब बीमार ज्यादा रहती है। मामाजी घर छोड़ गए। और बांकी सब ठीक है।
मैंने गौर किया कि अक्सर कुछ लोग जो कम बोलते हैं, वो फट पड़ते हैं।
मैं सही मायने में अब लौटा था जो बातचीत में काॅपरेट न कर पाने के गिल्ट को अब ढांपना चाहता था।
बाहर रात गहरा रही थी। नीले रंग के शाम का जादू अब टूट रहा था। अंधेरा सघन हो रहा था।
याद को वो पुराना सिलसिला इस प्रश्न से टूटा। मुझे लगा वो मेरे चेहरे पर विछोह के पड़ते फ्लैशेज़ कहीं देख न रही हो, सो जड़ता से लगभग टूटता हुआ मैं बोल पड़ा - हैलो, तुम कैसी हो।
एज़ यूजअल बढि़या। उसने ज़रा और आत्मविश्वास से खड़े होने की कोशिश की। बढि़या शब्द उसके मुंह से काफी माड्यूलेट होकर निकला जो मुस्कुराने और हंसने के बीच की अवस्था में कहीं फंसा था।
हम्मम..... - मैंने उसकी वर्तमान स्थिति से अवगत होते हुए कहा
मुझे कम बोलता देख उसने दूसरा रूख अपनाया जहां से मुझसे कुछ बुलवाया जा सकता था।
और तुम्हारे घर में सब ठीक? मम्मी, बुआ और मामाजी?
हां, वो सब भी बढि़या। दरअसल मैं इस अचानक के मिलने के संयोग को अब तक स्वीकार नहीं पाया था, सो बेहद सर्तकता से अपने शब्दों को चुन रहा था।
और मीता ? उसका क्या हाल है, इंटर में एडमिशन हो गया उसका?
आं... हां। हो गया।
सब्जेक्ट्स क्या लिए हैं उसने? - मैं हकबका गया। उसके अंदर अब भी उगलवाने की कला मौजूद थी। उसने भांप लिया था कि मैं बोलना नहीं चाहता। बरसों बाद कुछ खास किस्म के रिश्तों से जब हम टकरा ही जाते हैं तो उसके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना चाहते हैं।
ऐसा नहीं था कि मैं उसके बारे में नहीं जानना चाहता था मगर उसके बात को शुरू करने का सिलसिला खीझ बढ़ाने के साथ साथ दिलचस्पी का भी बायस था।
मैंने जानबूझ कर जवाब नहीं दिया। मैं देर से जवाब देना चाहता था। लेकिन उसमें धैर्य नहीं था।
पेट निकल आया है तुम्हारा, आं....? उसने फिर पिन मारी। मैंने खिड़की के बाहर से नज़र हटा कर उसकी ओर एक नज़र देखा। हमारी आंखें मिली। मुझे सही जगह चुभी। मैं तिलमिला कर रह गया।
बीच के वक्फे खाली गए। मेट्रो के ट्रैक पर सरसाने की आवाज़ उस खाली वक्फे पर सुपर इम्पोज हो गई।
लगता है, तुम बात करने के मूड में नहीं हो। चलो..... मैं चलती हूं। ओ. के.।
नहीं ऐसा नहीं है। मीता ने बाॅयो लिया है। बुआ जी अब बीमार ज्यादा रहती है। मामाजी घर छोड़ गए। और बांकी सब ठीक है।
मैंने गौर किया कि अक्सर कुछ लोग जो कम बोलते हैं, वो फट पड़ते हैं।
मैं सही मायने में अब लौटा था जो बातचीत में काॅपरेट न कर पाने के गिल्ट को अब ढांपना चाहता था।
बाहर रात गहरा रही थी। नीले रंग के शाम का जादू अब टूट रहा था। अंधेरा सघन हो रहा था।
हम्म...
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