Symbolic Picture
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अंजन दीदी उम्र में मुझसे बहुत बड़ी होते हुए भी मेरी पक्की दोस्त थी। सुपारी खाने की शौकीन थी सो इसके बायस उसके दांतों में कस्से लगे हुए थे। हंसती तो चव्वे में लगे कस्से दिखाई देते। हर दो-चार दिन पर सरौते से एक कटोरी सुपारी काटती। मैं कई बार उससे कहता- एकदम ठकुराइन लगती हो। रौबदार जैसी। मेरी मां और उसमें भाभी-ननद का रिश्ता होने से एक दूसरे से छेड़छाड़ और आंचलिक गालियों का लेन देन होता रहता था। खासकर दीदी जो शुरू से गांव में रहने के कारण खांटी पकी हुई थी। वो मेरी मां को दृश्यात्मकता भरे गालियों से नहला देती। गालियां देने के उस मकाम पर मेरी मां भी उसके आगे नतमस्तक हो जाती। उसकी बेसुरी आवाज़ में वे आंचलिक गालियां और भी भद्दी हो जाती। ये मुझे बड़ा नागवार गुज़रता। एक बार मैंने दीदी से कहा भी कि मेरे पिताजी यानि अपने भैया, दादी के सामने तो तुम गाय बनी रहती हो लेकिन अकेले में ऐसी गंदी गंदी गालियां! उसने अपनी दोनों बांहें मेरे गले में डाल दिया। कुछ पल अपनी लाड़भरी आंखों से मुझे मुस्कुराते हुए घूरा। फिर कहा - शहर में रहने वाले मेरे बहुत पढ़निहार और अच्छे बच्चे! गालियों से उम्र बढ़ती है। सारे संकट टलते हैं। दुर्भाग्य कटते हैं। विपदा का समूल नाश हो जाता है। लेकिन उसके लिए भलमनसाहत चाहिए होती है। उदार होना पड़ता है। यह एक अधिकार भरा प्रेम है जो अपने आप दिल से छलक छलक आता है। बियाह शादी में इसलिए भी गालियों भरे गीत गाए जाते है। यह रिश्तों के मिठास को दर्शाता है। बात मुझे जम गई सो याद रख लिया।
अंजन दीदी की आवाज़ बेसुरी होकर भी बड़ी अलग सी थी। परिवार में शादी के उत्सव पर जब उसे कोई गीत उठाने को कहा जाता तो उसकी फटी हुई आवाज़ पर सब हंसते। औरतों का एक झुंड दरवाज़े के चौखट पर माथे पर पल्लू लिए बारातियों के लिए गाती- 'बहनचोद निकलो हमारे घर से। चावल भी खाया, दाल भी खाया। मिठाई को रखा पॉकिट में।' छोटे छोटे अंतरों वाले इन गानों को यदि विजुवलाइज़ किया जाए तो आदमी गीत रचने वाले गीतकार की तरल बुद्धि पर बलिहारी जाएं। इसी तरह एक गीत ऐसा भी था जिसका अर्थ यह था कि दूल्हा अपने बाप का असली बेटा नहीं है। दरअसल दूल्हे की मां निम्फ्रोमैनियक है। उसे अनैतिक यौन संबंध बनाने का चस्का कुछ इस तरह लग चुका है कि वो गांव के हर आदमी जिसमें सगे-संबंधियों के साथ-साथ, जानवर तक शामिल हैं। इनमें सिर्फ स्त्री संबंधी गालियां नहीं मर्दों के लिए भी गालियां होती।
दीदी ये गीत अपने खिंचे गले से मगन होकर गाती। सुनने वाले हंसते तो वो भी हंस देती। जबड़े में लगा कस्सा उभरता और मेरी चेतना के एल्बम में उनकी एक तस्वीर क्लिक हो जाती। तब लगता क्या है आदमी! संस्कृतियों के बीच अपनी मौलिक आदतों, स्वभावों, जूनूनों का एटेंडेंस लगाता हुआ एक ज़िंदा किरदार!
आगे चलकर दीदी की भी शादी हुई। कोहबर गाए गए। मगर अपनी विदाई के अवसर पर वह ऐसा दहाड़ मारकर रोई कि सुनने वालों को जैसे सदमा लग जाए। मैं आज तक भूला उस दिन को भूल नहीं पाया हूं। वह बड़ा हृदयविदारक दृश्य था। इस समय रोने की एक विशेष लय होती है जो एक ही तर्ज पर वह किसी चक्की के पाटों की तरह घर्र-घर्र चली जाती थी। तर्ज कुछ यूं था -
अं हं हं हह........ हो बाबू आबे तोरा खाना के एत्ते दुलार से खिलैथों हो
(पिताजी अब आपको इतने प्यार से खाना कौन खिलाएगा)
अं हं हं हह......... खाय घड़ी पंखा के झुलैथों हो
(आपके खाते वक्त अब पास में बैठकर पंखा कौन डुलाएगा)
कलप कर रोना और आदत में शुमार बहुत बारीक बातों का साथ में तालमेल था। अंजन दीदी को अक्सर जुकाम रहता था सो ज़रा सा रोने से नाक लाल होकर गीली हो जाती थी। आंखों पर आंसू ढुलके होते मगर इतने सारे क्रियाओं के बीच ताज़ा आंसू गाल पर नहीं लुढ़कते थे।
विदाई के समय यह रोना सबके लिए था। सबके लिए मतलब सबके लिए। मसलन बारी बारी से गले लगते हुए जब वो किसी दुलारे बच्चे के पास जाती तो उसके लिए-
अं हं हं हह...... नुनू हो स्कूली के टास्क आबे के करैथों हो
(प्यारे बच्चे तुम्हें अब तुम्हारी पाठशाला से मिले होमवर्क कौन कराएगा)
पड़ोस की काकी के पैर भी और गले साथ साथ लगती। पैर शिष्टाचारवश और गले स्नेहवश। और फफक कर कहती -
अं हं हं हह.......काकी हे, केना जीबै आबे हम तोरा बिना......
अं हं हं हह.......के आबे तोरा सुतला में खटिया के नीचा एक लोटा पानी राखथौं.......
अं हं हं हह.......हे काकी हे के हमरो माथा पे तेल ठोकी के चोटी बान्तै हे.....
(काकी, मैं अब तुम्हारे बिना कैसे जीयूंगी? कौन अब तुम्हारे सोते में खटिया के नीचे एक लोटा पानी रखेगा? काकी, दुपहर बाद मेरे माथे पर कौन तेल ठोक कर मेरी चोटी बांधा करेगा.....)
फिर वो नेह में भीगी मेरे गालों पर अपनी नर्म नर्म हलेथी लगाकर कहती-
अं हं हं हह......... लल्ला रे......हमरा भुली जैभे? भुलिहैं न रे अपनो दीदी के....
(प्यारे, मुझे भूल जाओगे? भगवान के लिए अपनी दीदी को कभी मत भूलनाा। मैं तुम्हारे याद के सहारे ही वहां रहूंगी.....तुम भी मुझे याद रखना)
फिर कान के पास आकर कहती - दोकानदरवा के यहां आबे एक्को पैसा उधार नै छै। चिठ्ठी लिखिहैं बेटा।
(पड़ोसवाली दुकानदार के पास अब कोई उधार बाकी नहीं है। अब वो तुमसे पैसे मांगे तो बता देना। कहीं वो तुम्हें ठगने की कोशिश न करे। समय समय पर मुझे खत लिखना )
इस रोने में रोज़मर्रा की उन आदतों का जिक्र होता जो दिनचर्या का हिस्सा होता और जिसे अब मिस किया जाना था। कई बार लगता ये रोना खुद के लिए नहीं बल्कि सुनने वालों को रूलाने के लिए ज्यादा किया जा रहा है। कितनी देर तक कोई इसे अनसुना कर सकेगा? जहां आपने एक भी पंक्ति पर ध्यान दिया दिल बुरी तरह से डूबने लगता। मजबूत से मजबूत कलेजे वाला भी इसे सुन बिफर पड़ता।
इस रोने में एक और खास बात थी। कि जैसे यह सुनियोजित लगता। जैसे इस रस्म में प्रजेंस ऑफ माइंड की बहुत अहमियत लगती। लड़की भावुक होकर सिर्फ बिसूर ही नहीं रही होती है, बल्कि गले लगने के बाद सबके कान के पास कुछ पर्सनल और काम की बातें भी करती जाती है। उसके पास सबके लिए एक खास संदेश होता है। जैसे वह काकी को बताती कि अब तो मैं जा रही हूं। अब मैं यहां की जिम्मेदारी से मुक्त हूं तो मेरे बाद जो भी मेरा काम संभाले उसके लिए वो अलां-अलां चीज़ फलां-फलां जगह रखी हुई है।
इस दौरान उसकी गीली आवाज़ भावुकता और व्यावहारिकता के बीच कहीं झूलता हुई होती। जैसे अलगनी पर से आखिरी कपड़ा जब उतारते हैं तो उसके रस्सी के तनाव में आया विचलन जो धीरे धीरे कंपन में बदलती है।
देखा जाए तो लगता है, विदाई पर यूं बुक्का फाड़ कर अचानक से रोने का यह हुनर लड़की अचानक से सीख लेती है लेकिन गौर करें तो ये पौध तैयार होती है जब वह लड़की तीसरी कक्षा के आसपास होती है। जब उसकी सीनियर सहेली या दीदी उसे कहती है-चल आज फलाने टोला के चिलाने अंगना में ढिमकाने की विदाई है। और बालों में बिना तेल, कमर पर कोई बच्चा लादे वह लड़की अपनी खोई खोई आंखों से यह दृश्य देखती है। और इस तरह बड़ी होती जाती है। और हंडी में चढ़ी अधहन की तरह समय के साथ पकती रहती है। और अपनी विदाई के दिन फट पड़ती है। और उस ऐन मौके पर इतने दिनों से सकेरी हुई सारी भावनाएं और आदतों की दनादन उल्टी करने लगती है। अंजन भी ऐसे ही बड़ी हुई थी।
मैंने कई साल से अंजन दीदी को कोई खत नहीं लिखा है। आज वो सुबह से याद आ रही है। और उसका रोना मेरे दिल को सिसका रहा है। आज उसके लिए मेरे दिल में गाली आ रही है।
बहुत मिठास और सौंधी खुशबू है इसमें.
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