लिखने-पढ़ने संबंधी सामग्री को लेकर मैं ज़रा सीनिकल हूं। हर कुछ दिन पर स्टेशनरी के दुकानों वाली गली के चक्कर लगा आता हूं। हर दुकान में झांक लेता हूं। दुकानदार अब पहचानने लगा है। मेले में एक बच्चा जैसे चकरी, घिरनी, बरफ के रंगीन गोले और लाल शरबत की ओर जैसे आकर्षित होता है वैसे ही मैं स्टेशनरी की दुकान में लटके रंग बिरंगे फ्लैग्स्, मोटे पन्नों वाली डायरी, विभिन्न शेड्स के इंक, कैंची, फाइल कवर, स्टेपलर, रबड़, टैग, पिन, स्केच पेन, हाईलाइटर, प्लास्टिक पिन, मार्कर, ग्लू स्टिक (नॉन टॉक्सिक), स्टिक स्लिप, एच बी पेंसिल, कंपास, लंबे आकार के निब वाली कलम, स्केल, चॉक, डस्टर, बॉल पेन, चित्रकारी में रंग भरने के लिए अलग अलग रंग की शीशी, स्ट्रोक ब्रश, स्टॉम्प, लिफाफे, स्लैम बुक, र्स्पाकल पेन वगैरह की ओर खिंचता हूं। पंखे के नीचे किसी स्पाईलर बाइंडिंग किए हुए स्क्रिप्ट के अमुक अमुक पेज़ पर लगे ये रंगीन फ्लैग जब हवा में फड़फड़ाती है तो लगता है प्यार करने के दौरान अचानक बज उठे किसी फोन के दौरान कोई तरूणी अपने आशिक की कमीज़ के गिरेबान से खेल रही हो। कमीज़ के कॉलरों और बटनों पर उसकी उंगलियों की वो सरसराहट..... काग़ज़ पर रखी तिरछी कलम हो या उस पर दौड़ती कोई पेंसिल जैसे मन के सारी उलझनों का पारा झड़ रहा हो। मन में उमस बनकर घुमड़ रहा ख्याल पूरी तरह पन्नों पर बरस रहा हो जैसे।
निब वाली कलम तो मुझे कोई विरासती एंटीक पीस लगती है जिसे संभाल कर रखा जाना चाहिए। यह वह नायाब मोती है जो सीप के गर्भ को सार्थक करती है। बच्चे की बंद हथेली में अठन्नी जैसी। अलग अलग कोणों से निब पर पड़ता प्रकाश परावर्तन अद्भुत फ्लैश उत्पन्न करते हैं।
लक्ज़र के रोलर पेन से जब उसकी निब निकल रही होती है तो लगता है स्लो मोश्न में स्टेज पर हुस्नपरी उतर रही हो। मोटे कमर वाली इंक पेन जब बिना ढक्कन मेज़ पर लुढ़की रहती है तो लगता है अल्हड़ मंदाकिनी अपनी जांघें ढकना भूल गई है। इन स्टेशनरी को ध्यान से देखें तो लगता है इनमें जबरदस्त सहचर्य है। इनकी बनावट बताती है कि इन्हें शिद्दत से इस बात का एहसास होता है कि हम दूसरों के लिए बने हैं।
एक स्वीकारोक्ति यह भी है कि किसी कारणवश मेरी हाथ में जब भी किसी और की कलम आई है तो मैं उसकी गुणवत्ता जरूर आंकता हूं। अगर वह कलम जम गई तो मैंने कई बार उसे हथियाने की कोशिश की है। इस मामले में बिल्कुल देहाती औरत हूं जो इस बात पर भरोसा करता है कि चुराई गई कलम से ज्यादा बेहतर लिखाता है। तो जैसा कि कृष्ण कहते थे-फूल और फल की चोरी, चोरी नहीं कहलाती, वैसे ही कलम के गाइब होने को मैं चोरी करने की श्रेणी में नहीं रखता। जैसे किसी से कुछ लिखने तो लो और थोड़े टाइम तक उसे फंसा कर रखो और देना भूल जाओ। सामने वाला अगर इतना ही उस्ताद हो और आपको टोक ही दे तो - ओह्! हां। सॉरी। ये लीजिए। सॉरी। छह शब्द में मामला क्लियर। लेकिन यहां एक बात जो साफ करनी जरूरी है बहुत महंगे कलम पर मेरी नीयत नहीं डोलती। अव्वल तो मेहनत की गाढ़ी कमाई से उसके खरीदे जाने का हमें सम्मान करना चाहिए साथ ही उसे बेचैन करने का मुझे कोई हक़ नहीं। यहां दिल्ली में मैंने कुछ शौकीनों को बहुत महंगी कलम अफोर्ड करते देखा है।
एक बात और बहुत महंगी कलम बस खुद की संतुष्टि के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला उपकरण है। जरूरी नहीं कि उससे आदमी वैसा ही कमाल लिख भी पाता हो। क्योंकि मैंने जाना है कि लाख आपके पास शानदार डायरी और कलम हो लिखने की हूक या बेहतरीन वन लाइनरर्स ट्रेन की टिकट लेने के लिए खड़ी लाइनों में फंसे होने, डाला पर पीली धोती बांधने, गंडक पार करने के दौरान उस पार ठूंके किल्ले के तार खींचने, मंडी में नेनुआ खरीदने के दौरान किसान से हुए नोंकझोंक के बाद के मूड खराब होने, सिनेमा हॉल में डीसी टिकट न मिल पाने के बाद स्पेशल क्लास में बैठने, और ऐसे ही कई मौकों पर सूझते हैं और तब यही बीड़ी के बण्डल पर लिपटे कागज़, सिगरेट की डिब्बी, सिनेमा के टिकट, राशनकार्ड पर निकलते हैं। मेरे एक मित्र ने अपने जीवन की पहली और आखिरी शानदार कविता अपनी प्रेमिका के शादी के कार्ड पर लिखी थी और उस कविता में एक-एक शब्द ईमानदारी से उतर आया था। उसने उस एक कविता में ही अपने अतीत का दाह संस्कार कर डाला था। बहरहाल, हम जैसे लोग जिनके पास बची रह जाती है हर बार बहुत सारी कोर कसर वो लिखने के फील्ड में आ जाते हैं।
हां तो मैं परसों ही उत्सुकतावश स्टेशनरी की दुकान पर गया और रेनांल्ड्स की एक नई चमचमाती कलम खरीद कर लाया हूं जिसकी भरपाई ओवरटाइम करके की जाएगी।
ऐसे ही कुछ लगाव कम्प्यूटर पर क्रुतिदेव-10 में टाइपिंग पर होता है। यह आदर्श फोण्ट है। काली स्याही के माफिक इसमें टाइपिंग स्पीड राजधानी नही तो सम्पूर्ण क्रांति की तरह तो जरूर है। कलम की तरह यहां भी ख्याल और उंगलियों के बीच रस्साकशी चलती रहती है। कभी उंगलियां पीछे होती हैं कभी ख्याल। और इसी चक्कर में होती है स्पेलिंग मिस्टेक। अब चूंकि सोचने का तरीका (जैसा भी है) फर्स्ट लैंगवेज बिहारी है इसलिए उसमें आ मिलता है-लिंग दोष। लेकिन ‘क्र’ ‘त्त’ ‘फ्’ ‘ऊ’ लिखने का मज़ा ही कुछ और है।
ReplyDeleteभेज रहे हैं तुम्हारा नोटबुक। बेसी सेन्टियाओ मत :)
ReplyDeleteतुम्हारा लिखा हुआ पढ़ कर अच्छा इतना लगता है जैसे हम ही लिख डाले हैं सब कुछ :)