Skip to main content

पांच फ़ीट छह इंच पर हम ठहरे हुए कोहरे हैं


किताब का एक पन्ना पढ़ा। पहली बार सरसरी तौर पर। दूसरी बार, ध्यान देकर। तीसरी बार, समझ कर। चौथी बार और समझने के लिए। फिर कुछ समझा। पांचवी बार पढ़कर पूरा मंतव्य समझ गया। कुछ छूट रहा था फिर भी। अर्थ तो समझ गया लेकिन उस पंक्ति को लिखा कैसे गया था वो भूल रहा था। छठी बार फिर पढ़ा। एक पंक्ति में एक सोमी कॉलन, दो कॉमा, एक द्वंद समास के बीच इस्तेमाल होने वाला डैश और एक पूर्ण विराम से लैस वह वाक्य, जिस पर ध्यान नहीं दे पाते हैं। पढ़ना एक आवेग होता है। घटनाक्रम को तेज़ी से जी लेने वाला मैं इमारत को तो देख लेते हैं लेकिन उनमें लगने वाले इन गारे और ईंट को नज़रअंदाज़ कर देता हूं जबकि यह हमारे कहन में बहुत सहायक होते हुए मनःस्थिति का निर्माण करती है। कई बार यह विधा का मूड बिल्डअप करती है। 
*** 
सुबह से मन थोड़ा उद्विग्न है। जाने क्यों हम किसी से कुछ कहना क्यों चाहते हैं? सब कुछ होने के बाद भी क्यों हमें सिर्फ बेसिक्स की याद सताने लगती है। इतनी छोटी छोटी चीज़ कैसे एक समय इतना बड़ा बन जाती है कि कई दिनों से रोया नहीं, सोता रोज़ हूं, लेकिन सोया नहीं। पेट साफ रहने के बावजूद क्यों भारी भारी लगता है? मन पर, सोच पर कई मन का भार रखा हुआ लगता है। ऐसी कोई तोप बातें नहीं कहनी लेकिन है कुछ जो कहनी है। पास बैठो न मेरे। हो सकता है मैं कुछ कहूं भी नहीं तुमसे और हम बात भी कर लें आपस में। बस बैठो। या फिर मैं सीधे सीधे क्या कह भी न पाऊं। क्या कहना है नहीं जानता। या फिर हो सकता है हम कुछ और चीज़ों पर बात करते करते वो कह जाएं जिसकी वजह से ये भारीपन तारी है। खुली हवा में भी घुटन होती है। हम बेकार, वाहियात सी बातें करना चाहते हैं बस। हम गिलहरी को अपनी सारी बुद्धिमानी भूलकर भूजा खाते देखना चाहते हैं, हम उस पर बात करना चाहते हैं। हम कोहरे में डूबे रेल लाइनों और सिग्नलों पर बात करना चाहते हैं। हम तुम्हारे साथ टूटा टूटा सा भटका हुआ कोई राइम गुनगुनाना चाहते हैं। हो सकता है हम देर तक तुम्हारे साथ सहज न हो पाएं। हो सकता है देर तक हम बस मूक बैठे रहें इस उधेड़बुन में शुरू कहां से करें। अरसा हो गया इसलिए हम बहने की तरतीब ढूंढ़ना चाहते हैं। हम राइम से फिसल फिसल जाएंगे और वहां, उस भूले से गैप को भरने के लिए महीन आवाज़ में हूंsss.... हूंssss हूंsssssss आssss हाss हाssss करेंगे। हमें गीत के बलाघात वाली पंक्तियों पर पहुंचने की जल्दी नहीं रहेगी। हम बीच के अंतरे, मुखड़े पर ही जी भर खेलेंगे। हम मगन होकर किसी मैले आस्तीन वाले आवारा लड़के से लट्टू लेकर अपनी जीभ को उल्टा अपने ऊपरी होंठ पर चढ़ा कर लट्टू की धारियों पर कस कर डोरी चढ़ाएंगे। इस तन्मयता में ऊपरी होंठ पर चढ़ा हमारा जीभ कभी नुकीला होगा कभी गोलाकार। जब देर तक नुकीला रहे तब तुम समझो कि हमने डोरी सही कसी है। हम किसी हॉल्ट पर केतली में चाय को देर तक उबलता देखेंगे। कोयले के अंगार पर कालिख लगी अपने मौलिक रंग को बचाने की जद्दोजहद करती, सारस वाली गर्दन लिए, काले और एल्यूमिनियम की सफेद चिकनाहट लिए दो रंगों के समायोजन में एक लंबे वक्त की कहानी कहती केतली अपने ढक्कन को हटाने की कोशिश कर रही है। केतली का क्लोज अप, लांग शॉट में बदलता जाए और रेल की इंजन में तब्दील हो जाए। कुऊ, कुऊ की मद्धम सीटी उभरे, हमारी आँखें आंखें मूँद जाए और.... और.....
सरकारी स्कूल की घंटी की आवाज़, पाठशाला का शोर, और याद आता जाए कि.....
आधुनिक. 
भाप इंजन... 
का आविष्कार... 
जेम्स व्हाट. 
ने किया था......

Comments

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार ...

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष...

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने  ...