मन पक रहा है तुम्हारे साथ। समय के साथ धीमे धीमे। कोई जल्दी नहीं। फसल के दाने जैसे पकते हैं अपनी बालियों में.... रोज़ की प्र्याप्त धूप, हवा का सही सींचन, पानी की सही खुराक से। कुम्हार की बनाई हांडी की तरह। बनना, सूखना और फिर आग में सिंकना और तब आती उससे ठमक ठमक की आवाज़। एक बुढ़िया के चेहरे पर झुर्रियों का आना.... किसी वृहत्त कालखण्ड को समेटने वाले उपन्यास के लिए रोज़ पन्ना दर पन्ना दर्ज होते जाना। जैसे लावा संग उजला बालू मिलकर लावा भूनाता है, सुलगते कोयले पर एक फूटी हांडी में हम साथ साथ पक रहे हैं।
कोई जल्दी नहीं, कोई बेताबी नहीं, बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं, कोई वायदा नहीं की तर्ज़ पर हमारे बीच का रिश्ता पक रहा है। अपनी अपनी जगह पर एक दूसरे में गुम हम अपने रिश्ते में ग्रो कर रहे हैं।
गजरे की भीने भीने सुगंध की तरह जो सालों बाद भी अवचेतन में तंग करती है। नवीं में गणित के सवाल हल करते समय जब मां बेख्याली में अपने इलाके की लोकगीत गाती है और हम अठ्ठाईस की उम्र में उस लय को याद करते हैं। नारंगी रंग के उस सिंदूर की तरह जिसे हमारे गांव की स्त्रियां अपने नाक से मांग तक धारण करती हैं और मन में वो तस्वीर बस जाती है। दृश्य पकता है हमारे भीतर या भाव?
हम एक इंतज़ार में जी रहे हैं। फिर से राब्ता शुरू होने के इंतज़ार में। जाने क्या हो जाने के इंतज़ार में....। जब हमारे चेहरे सर्द हो जाएंगे। देखने वाले हमें एक रूखा और खुरदुरा मनुष्य कहने लगेंगे। घिसे हुए जूते पहने पहाड़ी मजदूर की तरह जो हर सुबह गले में पतली सी रस्सी डालकर निकलता है और दिन के तीसरे पहर बेंच पर बैठकर उदास आंखों से सैलानियों को देखता है, उनमें किसी को खोजता है।
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