शाम का धुंधलका है। हौले हौले चाय की ली जा रही सिप है। दिन भर के काम के बाद पंखे के नीचे सुस्ताने का अहसास है। एक सपना है कि तुम मेरे ऊपर लेटी हुई हो। हमारे बदन एक दूसरे में गुंथे हुए हैं। सांसें बगलगीर हो। रह रह हरकत हो रही है। एक कुनमुनाहट उठती है जो जिसके आहिस्ते आवाज़ मेरे कानों में जब्त हो जा रही है। मेरे कान यह सब सुनकर जागते हैं। कभी कभी ऐसा भी हो रहा है कि मेरी नाक तुम्हारी कंठ के आस पास के हिस्से में लगती है। मेरे दांतों की हल्की हल्की पकड़ तुम्हारे गले को हौले हौले पीसती है और खतरनाक चीख भरी हंसी बिस्तर से उठती है और रह रह कर वही दम तोड़ देती है। वह हंसी मेरे अंदर झुरझुरी पैदा कर रही है। तुम्हारी छाया में बरगद का पेड़ मैं हुआ जा रहा हूं। तुम्हारी लटों से उलझा अलमस्त। तुम्हारे रूप में एक फक्कड़ सी फकीरी मुझे नसीब हो जाती है।
मेरे दो पैरों के बीच सरकी हुई साड़ी से तुम्हारे पैर के अंगूठे बिस्तर की जिस्म में धंस रहे हैं। एक अखाड़े में जैसे बाजी शुरू होने से ठीक पहले जैसे भाले की नोंक धंसायी जाती है। तुम्हारा बदन, यह वो चाक है जिस पर चढ़ कर किसी बर्तन की छब-ढब नहीं बिगड़ती। अपनी आयतन में पूरी तरह वह निखर आता है। फिर तुम्हारे रूप की आंच में ही पक कर उससे टिमक टिमट की आवाज़ आती है।
होना, पकना और फिर महुए के पेड़ के पेड़ से रात भर टपकते रस सा भरता संगीत, तुम्हारे माध्यम से इतनी यात्रा होती है।
मैं इन दिनों लिखता नहीं हूं फिर भी खुद को भरता हुआ महसूस कर रहा हूं। किसी के भी घुटने के घाव तुम्हारी आवाज़ की चाशनी से भरे जा सकते हैं।
मैं पिस जाता हूं तुम्हारे संग बदन की उस कसरत में। मेरे पास नहीं है तुम जैसी पठानी पीठ। बल्कि मैं तो धारण करता हूं समय की चाबुक, मतलबी रिश्तों के कोड़े। मेरी पीठ एक समझौतावादी पीठ है जबकि तुम्हारी खुले में रखा एक चौड़ा पाट।
वे कम झपकने और बार बार एक अनजाना इशारा करती गोल-गोल आंखें मुझे लगातार खींच रही हैं।
वह दौर और दयार कुछ और रहे होंगे। अभी तो बहुत कुछ लौट-लौट कर वापस आएगा।
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