देख तो दिल कि जां से उठता है
ये धुंआ कहां से उठता है
कई बारी यह लगता है कि जैसे दिल पिछली रात ही जला दी गई बस्ती है जहां अगली सुबह हम राख चुनने जाते हैं। यादें हैं कि मरती नहीं, अनवरत सताती है। और जो भूलने की कोशिश करो तो कोसी नदी के सैलाब की तरह दोबारा ज्यादा खतरनाक तरीके से लौटती है। और अगर याद करने बैठो तो उनके संग बॉटल में लगे मनी प्लांट की तरह कोने निकलने लगते हैं। सिरा से सिरा जुड़ने लगता है और लत्तर बनने लगता है। कौन सी कानी कहां जाएगी और जाकर किससे मिल जाएगी कहना मुश्किल है।
हम अपने दिमाग की तरह कहानियों का उपयोग भी बदमुश्किल एक दो प्रतिशत ही कर पाते हैं। वजह - कहानियों के भीतर कहानी। कई सतहों पर कहानी। परत दर परत कहानी। चीज़ों को श्वेत और श्याम में अगर हम देखने का हुनर विकसित कर लेते हैं तो ज़रा सा ज्यादा महसूस करने की भावना हममें उन विषय वस्तु के प्रति सहानुभूति भी जगा जाती है।
यह हमारे महसूस करने की ही ताकत है कि हम बिना मजनूं हुए मजनू का दर्द समझ सकते हैं, बिना जेबकतरा हुए जेब काटने वालों की मानसिकता समझ सकते हैं। इसलिए हमें जजमेंटल नहीं हुआ जाता है। हम अपने दायरे में रहते हुए भी रोमियो से कम प्रेम नहीं करते और रांझे जैसा ही विरह का दर्द समझते हैं। यही वजह है कि हम एक ठरकी आदमी द्वारा भी उसके खुद को ईमानदारी से अभिव्यक्त करने भर से वो हमारे दिल पर असर कर जाता है।
तो मन जो है चक्कर लगाने का नाम है और दिल कन्फ्यूज होते रहने का। जिंदगी कहीं जाकर नहीं लगती कि अलां जगह जाकर यह अपने सर्वोत्तम रूप में होगी। यह ऊंचाई पर जाकर मरने वाली बात होती है।
आजकल आध्यात्मिकता भी बड़ी ज़ोर मारने लगी है मेरे अंदर। अब जैसे शंकराचार्य से सुनी कहानी बहुत हांट करती है कि दिन भी भर ज़मीन पर अपना आधिपत्य करने वाला आदमी जब शाम को मरा तो उसकी जरूरत सिर्फ उतने भर ज़मीन की हुई जितने पर उसने दम तोड़ा। इस तरह की कई और लड़ाईयां मेरे भीतर इन दिनों लगातार चल रही है। ऐसा नहीं है कि यह मुझे कन्फ्यूज कर रही है लेकिन ऐसा है यह मुझे तंग कर रही है। लगातार अपना ध्यान मेरी ओर खींच रही है। मैं समय से पहले बूढ़ा होने की ओर अग्रसर हूं। दोस्त कहते हैं मैं जवान हुआ ही नही। बचपन के बाद सीधे बुढ़ापा आ गया।
प्रेम भी बूढ़ों की तरह ही करने लगा हूं। हालांकि वासना के क्षणों में वह उबाल त्याग नहीं पाया हूं लेकिन बाकी सारे लक्षण, एक दूसरे के प्रति परिचय भरा समर्पण और शायद प्रेम से ऊपर की जो अवस्था और साथ होने भर की जो जरूरत होती है उसे महसूस करता हूं। आगत की प्रतीक्षा ने मुझे पत्थर बना दिया है। उम्मीदें जड़ हो चली हैं। ऐसा लगता है अगर निर्जीव चीज़ों को भी सहलाता रहा तो शायद वो जीवित हो उठेगी या ऐसा करते करते खुद मैं ही निर्जीव हो जाऊंगा।
इधर पिछले महीनों से सुनने की आवृत्ति भी बढ़ गई लगती है। मधुर संगीत पसंद है लेकिन इस दुनिया में जो भी बेसुरा है वह कानों को अप्रिय लगता है। हर आवाज़ अपसे स्तर से ज्यादा बढ़कर मेरे कानों में आती है और मुझे वह टाइमलाइन पर किसी फटे हुए धब्बे की तरह, गाढ़े घर्षण के रूप में खुली दिखाई देती है।
कुल मिलाकर अपनी हालत बरसात के दिनों में हवा से बचाए जाते सीमेंट की बोरी की तरह है जिसमें लाख कोशिशें के बाद भी हवा लग ही जा रही है और इसके बायस अब वो बोरी यहां वहां से जम रही है। कहीं से फट कर कभी बुरादे की तरह उड़ता हूं तो कहीं वे आपस में मिलकर मोटे मोटे गांठ में बदल रहे हैं। कहीं से वे चखने पर मिट्टी का सौंधा स्वाद लिए हुए है तो कहीं कहीं वह कंकड़ की तरह सख्त और बेस्वाद हो गया है।
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