Skip to main content

हिसाब



आखिर क्या जोड़ता है हमें। हमारे अंदर का खालीपन। या एक दूसरे के अंदर जब्त दर्द को हम कुरेद देते हैं। ऐसे तो कोई हर्ट नहीं करता जैसे तुम मुझे कर देती हो। ऐसे तो कोई नहीं छूता जिससे मैं तुम्हारी राह में बिछ बिछ जाता हूं। ऐसे तो कोई इस्तेमाल नहीं करता कि इस्तेमाल होते वक्त तो तकलीफ होती है और तुम बेहद थकाती भी हो लेकिन उसके बाद यह सोच कर अच्छा लगता है कि मुझे तुम्हारे द्वारा ही इस्तेमाल होना है और तुम ही मुझे इस्तेमाल के दौरान सबसे अच्छा एक्सप्लोर कर पाती हो। 

कभी कभी ऐसा लगता है जैसे किसी लंबी यात्रा पर जाने वाला हूं। या बिछड़ने वाला हूं तुमसे। या हमारे बीच कल को एक बेहद लंबी चुप्पी पसर जाएगी। कि हम एक दूसरे से बोलना बंद कर देंगे लेकिन एक दूसरे से हमारी उम्मीदें खत्म नहीं होंगी। लेकिन ये उम्मीदें हैं भी तो कैसी... एक दूसरे को याद करने की, मेरे लिखने की, तुम्हारी आवाज़ सुनने की, साथ समय बिताने की, जाने क्या क्या आपस में बातें करने की.... तुम्हें देख लेने की.... तुम्हारे लिए रोने की, तुम्हीं से हर्ट होने की.... 

कई बारी लगता है तुम किसी अजाने देस के अंचल में गाई जाने वाली लोकगीत हो जिसकी धुन मुझे खिंच गई लेकिन मैं उसे समझ नहीं पाया। उसका अर्थ मुझे नहीं पता। मैं कहां कुम्हार का बेटा जो नौसिखिया है और तुमएक पका हुआ मटका जो टिमक टिमक कर बजता है लेकिन कोई तो रिश्ता है ही हमारे बीच। तुम्हें बरतने का हुनर मुझमें नहीं। एक एक अनकही चाहत तो है। चाहत की एक अदृश्य डोर तो है। जो बातें मेरे द्वारा कही गई है। और वो तेरे दिल में वैसे का वैसा उतर गया है वह और कहां से आएगा। इसके ठीक उलट मैं भी कहां से वैसी कोई दूसरा खोज सकूंगा जो लगभग तोड़ ही दे और फिर हौले हौले उस पर अपने होठों से बोसे दे। वो नर्म नर्म इलाज कहां मिलेगा मुझे। 

समझदार उम्र के चाहत की अपनी बेबसी होती है। एक दूसरे के उम्र में हम बाधक नहीं बनना चाहते। एक दूसरे के साथ रह नहीं सकते। एक दूसरे के बिना भी नहीं रह सकते। अय्याशी और धोखा हमसे हो नहीं पाता। दिल की बात किसी से कह नहीं पाते। दुनिया को जजमेंटल होने से फुर्सत नहीं। कुलमिला कर दिल ही में एक बाज़ार खुल जाता है और हम मूक होकर तमाशा देखते रहते हैं। हम खुद अपने आप पर हंसते हैं, रोते हैं, किलसते हैं और अपनी ख्वाहिशों पर अंगारे डालते हैं। 

आखिर क्यों नहीं कुछ और जगह ले पाता तुम्हारी? एक बार तुम्हें देख लेने के बाद हमें जाने किस सकून की राह दिख गई थी। एक बार तुम्हारा स्पर्श होने के बाद कौन सी छुअन ऐसी जागी कि कहीं भी करार नहीं आता। एक बार तुम्हारी देह गंध मिल जाने पर कौन सी आदिम प्यास जग गई कि हम पढे लिखे और विवेकवान होकर भी प्रेम में एक जंगली बैल की तरह हो जाते हैं।

तुम एक सांस हो। जीवनदायिनी। लेकिन तुम्हीं बेसांस भी करती हो। हर निकलते सांस के साथ लगता है जैसे अंदर फंसकर टूटा हुआ कांटा निकल गया हो। हम उम्र के साथ और भारी होते जाते हैं। अपने इन तकलीफों को कहां रख आएं हम कि जब जब लगता है अब जीना आ गया या अब हमने खुद पर काबू पाना सीख लिया कि तभी वो सैलाब दूगनी तेज़ी से हमारे ऊपर कहर बनकर टूटता है। बताओ रानीजान, ऐसा क्यों होता है कि कठघरे में हर बार हम अकेले ही नज़र आते हैं? कि हम हिसाब देते देते बेहिसाब हो जाते हैं तब भी हिसाब देने को हमें उतारा जाता है।

Comments

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन और प्रेरणादायक कहानी - असली धन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार ...

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष...

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने  ...