बाबा लोग मरते कैसे हैं? क्या किसी प्रतीक्षा में? चमत्कार के? आत्मीय मिलन के? किसी से कुछ कहने के? कैसे मरते हैं?
क्यों देखने में ऐसा लगता है कि वो एक एक दिन के साथ पक रहे हैं। उनकी आंखों पर जैसे एक मसनुई सी चमक की परत चढ़ी जाती है। क्यों वे अपने हृदय की गहराई से हमें कॉल तो करते हैं लेकिन हम उन्हें सुन कर भी अनसुना कर जाते हैं। ऐसा नहीं है कई बार लोगों की पुकार जिसे हम सच्ची पुकार कह सकते हैं, सुनाई दी है। ऐसा क्यों होता है कि आड़े वक्त हम प्रमादवश किसी दो कौड़ी के क्षणिक रिश्ते, किसी भौतिक वस्तु की लालच में उस व्यक्ति को सरासर नज़रअंदाज कर जाते हैं जिन्हें हमें कभी किसी खाई से सरपट बाहों में भरकर उठा लिया था। यह खाई कैसी जानलेवा खाई थी न। जानलेवा शब्द गलत है यहां लेकिन एक पूरे समूचे संभावनाशील चीजों का चले जाना कितना त्रासद है न! जो हमारी आत्मा को बचा लेते हैं और वापस से हमें सुरक्षित हमारे ही हाथों में सौंप देते हैं हम कैसे उससे विमुख हो जाते हैं। क्या हमें पता होता है कि जीवन दर्शन में वो हमारा पिता है और हमे अउस पिता के सामने अपने छुटपने का अहसास होता है। कई बार नज़र चुराने की क्रिया की शुरूआत आत्मज्ञान से ही उपजती है।
हम भूल जाते हैं कि हम खुले चबूतरे पर घायल, कराहते कबूतर थे जिसे सामान्य पक्षी भी डेग डेग भरकर अपने चोंच से और लहूलुहान कर रहा था, उसने सिद्धार्थ की तरह हमें उठाया, मरहम पट्टी की और सुरम्य वातावरण की कोमल हथेलियों में, नीले नभ में उन्मुक्त उड़ने को छोड़ दिया।
ये ठीक होते ही हमें हमारे पंजों और पंखों पर इतना आत्मविश्वास कहां से आ जाता है बाबा कि हमारा एक ही क्षण में रूपांतरण हो जाता है।
समाज में हर सहारा देने वालों का यही गत क्यों है? क्या यह एहसासबोध और ग्लानि ही हमें मारती है। या हमारी हर जीत हमें थोड़ा और पुख्ता बनाने के साथ साथ हमें अंदर से और खोखला भी करती है। क्या हम यहां सचमुच अपनी श्रेष्ठता साबित करने, अपनी महत्वकांक्षा को पोषित करने ही आए थे। क्या हर जीत हमारे अहं को चारा देने का काम करती है।
आज मैं गीता के कई उद्धरणों से खुद को जोड़ पा रहा हूं जैसे एक क्षण में मैं करोड़ों का स्वामी हो जाता हूं और अगले ही पल दरिद्र।
हम कैसे होते जा रहे हैं कि न किसी से खुल कर लड़ पाते हैं, न किसी से खुल कर कह पाते हैं? हमें ठीक से पोषित और शोषित होना भी नहीं आता।
क्या किसी से बात न कर पाने की वजह से भी हम मरते जाते हैं बाबा? मरना एक दिन की तो बात नहीं होती। और मरने के प्रकार भी अलग अलग होते हैं। हम एकजुट होकर तो सांस के रूकने पर ही मरते हैं लेकिन टुकड़ों टुकड़ों में दिन में कई बार, लम्हों में बहुत बार मरते हैं। लेकिन हमें इतना नाजुक नहीं होना चाहिए और मरने के सही कारणों की पड़ताल करनी चाहिए।
क्यों देखने में ऐसा लगता है कि वो एक एक दिन के साथ पक रहे हैं। उनकी आंखों पर जैसे एक मसनुई सी चमक की परत चढ़ी जाती है। क्यों वे अपने हृदय की गहराई से हमें कॉल तो करते हैं लेकिन हम उन्हें सुन कर भी अनसुना कर जाते हैं। ऐसा नहीं है कई बार लोगों की पुकार जिसे हम सच्ची पुकार कह सकते हैं, सुनाई दी है। ऐसा क्यों होता है कि आड़े वक्त हम प्रमादवश किसी दो कौड़ी के क्षणिक रिश्ते, किसी भौतिक वस्तु की लालच में उस व्यक्ति को सरासर नज़रअंदाज कर जाते हैं जिन्हें हमें कभी किसी खाई से सरपट बाहों में भरकर उठा लिया था। यह खाई कैसी जानलेवा खाई थी न। जानलेवा शब्द गलत है यहां लेकिन एक पूरे समूचे संभावनाशील चीजों का चले जाना कितना त्रासद है न! जो हमारी आत्मा को बचा लेते हैं और वापस से हमें सुरक्षित हमारे ही हाथों में सौंप देते हैं हम कैसे उससे विमुख हो जाते हैं। क्या हमें पता होता है कि जीवन दर्शन में वो हमारा पिता है और हमे अउस पिता के सामने अपने छुटपने का अहसास होता है। कई बार नज़र चुराने की क्रिया की शुरूआत आत्मज्ञान से ही उपजती है।
हम भूल जाते हैं कि हम खुले चबूतरे पर घायल, कराहते कबूतर थे जिसे सामान्य पक्षी भी डेग डेग भरकर अपने चोंच से और लहूलुहान कर रहा था, उसने सिद्धार्थ की तरह हमें उठाया, मरहम पट्टी की और सुरम्य वातावरण की कोमल हथेलियों में, नीले नभ में उन्मुक्त उड़ने को छोड़ दिया।
ये ठीक होते ही हमें हमारे पंजों और पंखों पर इतना आत्मविश्वास कहां से आ जाता है बाबा कि हमारा एक ही क्षण में रूपांतरण हो जाता है।
समाज में हर सहारा देने वालों का यही गत क्यों है? क्या यह एहसासबोध और ग्लानि ही हमें मारती है। या हमारी हर जीत हमें थोड़ा और पुख्ता बनाने के साथ साथ हमें अंदर से और खोखला भी करती है। क्या हम यहां सचमुच अपनी श्रेष्ठता साबित करने, अपनी महत्वकांक्षा को पोषित करने ही आए थे। क्या हर जीत हमारे अहं को चारा देने का काम करती है।
आज मैं गीता के कई उद्धरणों से खुद को जोड़ पा रहा हूं जैसे एक क्षण में मैं करोड़ों का स्वामी हो जाता हूं और अगले ही पल दरिद्र।
हम कैसे होते जा रहे हैं कि न किसी से खुल कर लड़ पाते हैं, न किसी से खुल कर कह पाते हैं? हमें ठीक से पोषित और शोषित होना भी नहीं आता।
क्या किसी से बात न कर पाने की वजह से भी हम मरते जाते हैं बाबा? मरना एक दिन की तो बात नहीं होती। और मरने के प्रकार भी अलग अलग होते हैं। हम एकजुट होकर तो सांस के रूकने पर ही मरते हैं लेकिन टुकड़ों टुकड़ों में दिन में कई बार, लम्हों में बहुत बार मरते हैं। लेकिन हमें इतना नाजुक नहीं होना चाहिए और मरने के सही कारणों की पड़ताल करनी चाहिए।
तुम कर रहे होगे, करो। हमने कुछ ढूँढ़ लिए। अब हम तो चले। अब और लिखना न होगा। ब्लॉग समेट रहे हैं।
ReplyDeleteअलविदा।