चाय के कप से भाप उठ रही है। एक गर्म गर्म तरल मिश्रण जो अभी अभी केतली से उतार कर इस कप में छानी गई है, यह एक प्रतीक्षा है, अकुलाहट है और मिलन भी। गले लगने से ठीक पहले की कसमसाहट। वे बातें जो कई गुनाहों को पीछे छोड़ कर भी हम कर जाते हैं। हमारे हस्ताक्षर हमेशा अस्पष्ट होते हैं जिन्हें हर कोई नहीं पढ़ सकता। जो इक्के दुक्के पढ़ सकते हैं वे जानते हैं कि हम उम्र और इस सामान्य जीवन से परे हैं। कई जगहों पर हम छूट गए हुए होते हैं। दरअसल हम कहीं कोई सामान नहीं भूलते, सामान की शक्ल में अपनी कुछ पहचान छोड़ आते हैं। इस रूप में हम न जाने कितनी बार और कहां कहां छूटते हैं। इन्हीं छूटी हुई चीज़ों के बारे में जब हम याद करते हैं तो हमें एक फीका सा बेस्वाद अफसोस हमें हर बार संघनित कर जाता है। तब हमें हमारी उम्र याद आती है। गांव का एक कमरे की याद आती है और हमारा रूप उसी कमरे की दीवार सा लगता है, जिस कमरे में बार बार चूल्हा जला है और दीवारों के माथे पर धुंए की हल्की काली परत फैल फैल कर और फैल गई है। कहीं कहीं एक सामान से दूसरे सामान के बीच मकड़ी का महीन महीन जाला भी दिखता है जो इसी ख्याल की तरह रह रह की हिलता हुआ...
I do not expect any level of decency from a brat like you..
सागर...अथाह...अनंत...अबूझ.
ReplyDeleteगहराई जहां रौशनी की किरण भी न पहुंचे ऐसा कुछ है जो तुम में करवटें लेता रहता है.
सागर साहब...सलाम!
स्पीचलैस..
ReplyDeleteदेवकी की आंठ्वी संतान... क्या बात है जानी..!
गुरु बैठे तो हम भी ऑफिस में है ! पर आज भटक नहीं पा रहे.
ReplyDeleteसंवेदनशील रचना।
ReplyDeleteदुनिया चार पैसे के लिए मर रही है और हम यहाँ चार लम्हे के लिए
ReplyDeleteअपना हीं ज्ञान हडकंप मचाता है
मेरे मन में आते विचार देवकी की आठवी संतान क्यूँ नहीं हो जाते...
सही है.. और अंतिम वाला तो एकदम सोंच से परे
'सोचालय'- सोच कर रखा है भाई नाम !
ReplyDeleteअद्भुत ! सोच कहीं आ सकती है, कहीं से आ सकती है ।
अपने लिये कहूं -
"आ नो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः..."
यहां से भी !
जैसे किसी खुदाई में मिली पत्थर पे खुदी या फिर किसी लेखक की अनछपी रचना हो कोई..
ReplyDeleteलिखे शब्दों पे फेरी लकीर अजीब सी मनोस्थिति बनाती है.(सभी लोग मिट जायेंगे)
आपकी सुपरिचित सम्मोहक शैली में लिखी शानदार रचना.
बढ़िया अभिवियक्ति बधाई
न खाते गेंहूँ, न निकलते खुल्द से बाहर
ReplyDeleteजो खाते हजरते-आदम ये बेसनी रोटी
:-)
ऑफिस में बस कीजिए उतना सा ही काम, नौकरी चलती रहे ,शरीर करे आराम!
ReplyDelete:) कमाल है साहब..जवाबदेही तो बनती है..लगता है रेगुलर करवा करके ही छोडेगे आप..
आशा है ऐसे कई उड़ते हुए पन्ने ब्लॉग पर आ गिरेंगे !
ReplyDeleteजब तुम्हारी बातेँ मेरी बातेँ होती हैँ तो यह कविता है. जब यह मेरी बातेँ नहीँ होती तो पहेली.
ReplyDeleteसत्या
बहुत सुन्दर! राइटिंग भी बुरी नहीं है भैये! जय हो!
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