आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात
I do not expect any level of decency from a brat like you..
सागर...अथाह...अनंत...अबूझ.
ReplyDeleteगहराई जहां रौशनी की किरण भी न पहुंचे ऐसा कुछ है जो तुम में करवटें लेता रहता है.
सागर साहब...सलाम!
स्पीचलैस..
ReplyDeleteदेवकी की आंठ्वी संतान... क्या बात है जानी..!
गुरु बैठे तो हम भी ऑफिस में है ! पर आज भटक नहीं पा रहे.
ReplyDeleteसंवेदनशील रचना।
ReplyDeleteदुनिया चार पैसे के लिए मर रही है और हम यहाँ चार लम्हे के लिए
ReplyDeleteअपना हीं ज्ञान हडकंप मचाता है
मेरे मन में आते विचार देवकी की आठवी संतान क्यूँ नहीं हो जाते...
सही है.. और अंतिम वाला तो एकदम सोंच से परे
'सोचालय'- सोच कर रखा है भाई नाम !
ReplyDeleteअद्भुत ! सोच कहीं आ सकती है, कहीं से आ सकती है ।
अपने लिये कहूं -
"आ नो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः..."
यहां से भी !
जैसे किसी खुदाई में मिली पत्थर पे खुदी या फिर किसी लेखक की अनछपी रचना हो कोई..
ReplyDeleteलिखे शब्दों पे फेरी लकीर अजीब सी मनोस्थिति बनाती है.(सभी लोग मिट जायेंगे)
आपकी सुपरिचित सम्मोहक शैली में लिखी शानदार रचना.
बढ़िया अभिवियक्ति बधाई
न खाते गेंहूँ, न निकलते खुल्द से बाहर
ReplyDeleteजो खाते हजरते-आदम ये बेसनी रोटी
:-)
ऑफिस में बस कीजिए उतना सा ही काम, नौकरी चलती रहे ,शरीर करे आराम!
ReplyDelete:) कमाल है साहब..जवाबदेही तो बनती है..लगता है रेगुलर करवा करके ही छोडेगे आप..
आशा है ऐसे कई उड़ते हुए पन्ने ब्लॉग पर आ गिरेंगे !
ReplyDeleteजब तुम्हारी बातेँ मेरी बातेँ होती हैँ तो यह कविता है. जब यह मेरी बातेँ नहीँ होती तो पहेली.
ReplyDeleteसत्या
बहुत सुन्दर! राइटिंग भी बुरी नहीं है भैये! जय हो!
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