Skip to main content

तकरार



नहीं नहीं, मैं खां साहेब कि बात नहीं कर रहा ... ना ही उस उस दुष्ट बल्लेबाज की जो तुम्हारी आदतन फैंके गए चौथी स्लो डिलीवरी पर रिवर्स खेल गया... और ना ही ओबामा के अचानक इराक दौरे की बात कर रहा हूँ...

मैं तो उस दीये की बात करूँगा ना जो शक्तिहीन है, इतना सीधा कि बेमकसद है .. जो छल-प्रपंच नहीं जानता...

मकसद ?

हाँ मैं सभ्य समाज वाले मकसद की बात नहीं कर रहा ? इसे समझना होगा आपको... दादी मर रही थी तभी आत्मा का ट्रांसफोर्मेशन हो रहा था...

वो भौतिकी वाला हीट तो नहीं था ?

पता नहीं, पर अगर था तो डायरेकशन तय करनी होगी. एक बात और...  यह सच है कि मैं जब भी पतंग उडाता हूँ काले बादल घिर आते हैं... पर इसकी परवाह नहीं मुझे

क्या रात में पेड़ तुम्हें चुप्पी साधे खड़े नहीं दिखाई देते हैं ?

हाँ. सब आप लोगों जैसे लगते हैं.

अँधेरे में सुप्रीम कोर्ट का गुम्बद नज़र आता है ?

हाँ, अभी तक तो आ रहा है.

गुड ! फिर तुम जिंदा हो अभी.

पर क्या यही बड़ी बात है ?

नहीं... आवाज़ को सुनना बड़ी बात है, जिस भी शहर में रहे आधी रात को ट्रेन की आवाज़ आती सुनी ?

हाँ, पर यह भी लगा कोई मुझे छोड़ने के लिए दूर तक रोड पकड़ के दौड़ा था...

गुड अगेन !

गुड की बात नहीं है... मुझे उसके तुरंत बाद पेशावर एक्सप्रेस भी याद आता है.

उसके बाद क्या ?

विभाजन ?

नहीं कितनी बार ?

मैं गुस्से के उबल रहा हूँ ?

कितना ?

अल्जीरिया में जितनी गर्मी पढ़ती है उतनी ?

नहीं पापा ?

सराहा के मरुस्थल जितना ?

नहीं ?

उसी दीये के बुझने जैसा ?

नहीं उतना भी नहीं ?

फिर कैसा ?

किसी पेड़ को जड़ से उखाड़ने जैसा गुस्सा.

तुम्हारे आँखों का स्थिर होना ठीक नहीं ?

क्यों ? संयमित होना लक्ष्य नहीं हमारा ?

हां पर आसपास नज़र नहीं रखना और भी बुरा है ?

तो आप मुझे सियासत सिखा रहे हो ?

नहीं, देशप्रेम !

कितना सिखाओगे ?

बताऊंगा, चांदनी में नहाते हो ?

वाहियात कामों के लिए फुर्सत नहीं.

वो बीमारियाँ दूर करती हैं.

मैं मुल्क की कर लूँ ?

तुम युवाओं की यही समस्या है ...

... (बात काटकर) आप अनुभव लेकर चाट रहे हैं ना !

फिर क्या करोगे तुम ?

कम से कम असमय सफ़ेद होते बालों का इलाज़ तो नहीं कराऊंगा, ना ही बालों की रुसी होना मेरे लिए यक्षप्रश्न है.

तुम्हारे जैसे कितने हैं ?

अकेला होऊंगा, और कुछ ?

तुम्हारी खून की गर्मी है बेटा ?

बेटा बोलकर कर कमजोर मत कीजिये, यहाँ ताश नहीं खेल रहे हम

अपने घर का ख्याल करो, एकलौते हो तुम

कहा ना पत्ते मत फेंकिये...

(... जारी )

Comments

  1. इस पोस्ट के लिए साधुवाद।

    ReplyDelete
  2. दो थोट से एक साथ कैसे गुजर सकते हो...........अभी तुम्हारे पहले ब्लॉग से होकर आ रहा हूँ......इसलिए मूड थोड़ा डिप्रेस है ....

    ReplyDelete
  3. हम्म!! जैसे की सागर की हिलोरें..

    ये कहानी है दिये की और तूफान की..बड़े दिन बाद सुना!

    बढ़िया!!

    ReplyDelete
  4. good

    bahut khub


    shekhar kumawat

    http://kavyawani.blogspot.com/

    ReplyDelete
  5. अजब लफ्ज़ गजब कहानी ...बाँध लिया इस ने खुद में शुक्रिया

    ReplyDelete
  6. गज़ब है भईया ! फिलहाल तो यही पढ़ने दो -

    "मैं गुस्से के उबल रहा हूँ ?
    कितना ?
    अल्जीरिया में जितनी गर्मी पढ़ती है उतनी ?
    नहीं पापा ?
    सराहा के मरुस्थल जितना ?
    नहीं ?
    उसी दीये के बुझने जैसा ?
    नहीं उतना भी नहीं ?
    फिर कैसा ?
    किसी पेड़ को जड़ से उखाड़ने जैसा गुस्सा."


    अभी जारी है ना... उत्कंठित हूँ !

    ReplyDelete
  7. हाँ, उपर्युक्त में 'के' की जगह ’से' कर दीजिए !

    ReplyDelete
  8. क्या-क्या लिखते हो जी! अगले पत्ते कब फ़ेकोंगे? दिये और तूफ़ान की कहानी सुनकर अच्छा लगा! शुक्रिया।

    ReplyDelete
  9. वाह! पॉल कोह्येलो जैसा लिखते हो मित्र!

    ReplyDelete
  10. 'सराहा’ को ’सहारा’ कर सकते हैं..अगर बिना सहारे के सराहे जाने की फ़ितरत मे हों तो... ;-)

    ReplyDelete
  11. बह गये भैया तुम्हारे पत्तो मे..
    हुकुम का इक्का दबाये बैठे हो यार..

    अगली कडी पर जा रहे है...

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ