Skip to main content

... is not responding. Please dial after sometime



फिर से शाम होने को आई ... और उसने अब तक फोन नहीं किया.. कहीं कोई पता नहीं है. चाँद निकल आया है और मेरे पलकें झपकाते-झपकाते यकायक घना अँधेरा डबडबा कर उतर आया है. कहाँ ??? हाँ दोनों तरफ.

चांद ऐसे निकला है जैसे आकाश ने टीका लगाकर फिर मिटा दिया हो... एक मिटी और छुटी सी निशान बांकी हैं पर मैं इसी उधेड़बुन में हूँ कि उसने फोन क्यों नहीं उठाया ?

हाँ उसने फोन क्यों नहीं उठाया ? बात तो छोटी सी है मगर उसने फोन क्यों नहीं उठाया ? आखिर  सीन क्या है बॉस... उसके मन में क्या है ? वह चाहती तो यह भी कह सकती थी कि बाद में बात करती हूँ,  अभी बिजी हूँ या फिर अगर मुझसे कोई समस्या थी तो कहना चाहिए था उसको. वो अगर मुझसे बात नहीं करना चाहती थी तो उसे यह बात भी फोन उठाकर कह देनी चाहिए थी

लेकिन उसने मेरा फोन नहीं उठाया. दैटस् ईट.

उसने परसों भी मेरा फोन नहीं उठाया था. पिछले शनिवार को भी नहीं, आमवस्या को भी नहीं और एक महीने पहले एकादशी को भी नहीं.

आखिर बात क्या है ? उसने मेरा फोन क्यों नहीं उठाया ?

अह! हो सकता है वो अपने बच्चे को ढूध पिला रही हो या फिर बाज़ार में सब्जी खरीद रही हो, बाथरूम में हो या अपने पति को प्यार कर रही हो, शायद पूजा-पाठ ही कर रही हो.
पर वह  फोन उठाकर कम से कम  १० मिनट बात बात करती हूँ कह सकती थी ना

लेकिन उसने मेरा फोन नहीं उठाया...

मैं उसकी आदतों से वाकिफ हूँ, चिढ़ी हुई सी बात करती है, बात खत्म होते है फोन एकदम से काट देती है, सिर्फ काम की बातें करती है, बात करते हुए कई काम निपटती है... यह सब उसके फोन पर ही करने की आदत है.

क्या दिन भर अगर कुछ काम नहीं हो या काम न लगे, कोई ब्रेकिंग न्यूज़ जैसी खबर न हो तो हम बात नहीं कर सकते ? क्या केवल वो फैसला करेगी कि हमें कब और क्या बात करनी है ?

आखिर उसने मेरा फोन क्यों नहीं उठाया ?

मैं उससे कोई बहस तो नहीं करता, ना कर सकता हूँ, उसमें प्रबल आत्मविश्वास है, गरिमापूर्ण चेहरा है तो इसका क्या मतलब है वो मेरा फोन नहीं उठाएगी ?

वो आज फोन उठा सकती थी लेकिन नहीं उठाई.

वो एक बार कह देती मैं व्यस्त हूँ बाद में बात करती हूँ, ट्रैफिक में हूँ, सो रही हूँ. कोई बहाना ही बना देती, कौन सा पहाड टूट जाता ? क्या मैं उसे फांसी दे देता ?

लेकिन फिर भी उसने मेरा फोन नहीं उठाया, क्यों नहीं उठाया ?

अभी पता नहीं कब अपने शर्तों पर मिलेगी तो सबसे पहले मुस्कुरा कर अपने तुरुप का इक्का फेंकेंगी जिससे कि मैं कुछ ना कह सकूँ और फिर उसका मेरे पास होने भर के एहसास से मेरे सारे शिकायतें काफूर हो जाएँगी... जहां रात दिन का उठाना-बैठना मुश्किल है कैसे एक पल में कोई समस्या उसके तरफ से नहीं दिखती

वो मुझे पागल तो नहीं समझती ? क्या वो  नहीं जानती कि साइकोलोजी ऑफ वुमेन मैं बखूबी पढ़ लेता हूँ और एक बार इशारे से उसे बताया था कि औरत एक ऐसी बन्दर होती है जो पहला कमजोर डाल तब तक नहीं छोड़ती जब तक कि उसे कोई दूसरा मजबूत डाल नहीं मिल जाता... 

मेरी उससे इस बात पर कई बार बहस हो चुकी है कि अगर आदत लगाई जाये तो आपूर्ति निर्बाध रूप से होती रहनी चाहिए फिर ऐसे में मनुष्य अपने सुविधानुसार ऐसे कदम क्यों कर लेता है ?

लेकिन उसने मेरा फोन नहीं उठाया ... अब नहीं उठाया तो नहीं उठाया. फिनिश मामला. क्या कर सकते हैं ऐसे में ?

वो जानती है मैं इस समय पागल हो रहा होऊंगा. उसको पता होगा उसके फोन नहीं उठाने से मैंने घुटन हो रही होगी, मैं परेशान हो रहा होऊंगा, मेरे मन में दस तरह की नकारात्मक ख्याल आ रही होंगी,  सिर में दर्द उठ चुका होगा, मन खट्टा हो गया होगा, सिर पर अमृतांजन मल रहा होऊंगा,  तीन सिगरेट पी कर,  किताबें बिस्तर से फैंक कर तकिये में मुंह छुपा कर रो रहा होऊंगा ...

सब पता होगा स्साली को फिर भी नाटक करती है...

बात तो छोटी सी थी     

वो मेरा फोन उठा सकती थी... पर आखिर उसने मेरा फोन क्यों नहीं नहीं उठाया ?

Comments

  1. हम्म्म्म...".सब पता होगा स्साली को फिर भी नाटक करती है..."....

    ReplyDelete
  2. मेल इगो.. !
    बॉस का इस्तेमाल मूड के अगेंस्ट जा रहा है.. इस्तेमाल अच्छा है पर यहाँ काम का नहीं..

    मानव स्वभाव का छोटा सा बिम्ब खींच कर कितना सही लिखा है तुमने.. बहुत बढ़िया

    ReplyDelete
  3. ये फोन कैसे जिंदगी का हिस्सा हो जाता है न. कितना कुछ इसके साथ जुड़ जाता है, उसने एक बार में फोन उठा लिया यानि इन्तेज़ार कर रही थी, उसके फोन काटा यानि की बिजी थी, उसने फोन नहीं उठाया...
    ...
    ...
    इस बात से कई बातें निकल सकती हैं...एक उलझी हुयी नीरस शाम के उधेड़बुन का चित्र खिंच आता है...बहाव अच्छा है.

    ReplyDelete
  4. मन को पूरा का पूरा रंग दिया है ब्लॉग के कैनवास पर ।

    ReplyDelete
  5. वो आज फोन उठा सकती थी लेकिन नहीं उठाई.
    aur hum kewal intejar mein aansu bahate rah gaye...........

    ReplyDelete
  6. लेकिन उसने मेरा फोन नहीं उठाया ... अब नहीं उठाया तो नहीं उठाया. फिनिश मामला. क्या कर सकते हैं ऐसे में ?

    ReplyDelete
  7. वो मेरा फोन उठा सकती थी... पर आखिर उसने मेरा फोन क्यों नहीं नहीं उठाया ?
    uff! Aapne badi utsukta jaga dee hai...kramash: kyon nahi likha? Aage aur likhnewalen hain na?

    ReplyDelete
  8. (खाली दिमाग शैतान का प्लेग्राउंड)
    आखिर बात क्या है ? उसने मेरा फोन क्यों नहीं उठाया ?
    वो आज फोन उठा सकती थी लेकिन नहीं उठाई.
    बात तो छोटी सी है मगर उसने फोन क्यों नहीं उठाया ?
    अब नहीं उठाया तो नहीं उठाया. फिनिश मामला. क्या कर सकते हैं ऐसे में
    क्या केवल वो फैसला करेगी कि हमें कब और क्या बात करनी है ?
    सब पता होगा स्साली को फिर भी नाटक करती है...
    लेकिन उसने मेरा फोन नहीं उठाया. दैटस् ईट.
    पर आखिर उसने मेरा फोन क्यों नहीं नहीं उठाया ?

    ;-)

    ReplyDelete
  9. चांद ऐसे निकला है जैसे आकाश ने टीका लगाकर फिर मिटा दिया हो

    मेरी उससे इस बात पर कई बार बहस हो चुकी है कि अगर आदत लगाई जाये तो आपूर्ति निर्बाध रूप से होती रहनी चाहिए फिर ऐसे में मनुष्य अपने सुविधानुसार ऐसे कदम क्यों कर लेता है ?

    वो जानती है मैं इस समय पागल हो रहा होऊंगा. उसको पता होगा उसके फोन नहीं उठाने से मैंने घुटन हो रही होगी, मैं परेशान हो रहा होऊंगा, मेरे मन में दस तरह की नकारात्मक ख्याल आ रही होंगी, सिर में दर्द उठ चुका होगा, मन खट्टा हो गया होगा, सिर पर अमृतांजन मल रहा होऊंगा, तीन सिगरेट पी कर, किताबें बिस्तर से फैंक कर तकिये में मुंह छुपा कर रो रहा होऊंगा

    उसने फोन नहीं उठाया क्यूंकि उसे पता है कि आदमी एक ऐसा बन्दर है कि जब डाल उसके कब्जे में आ जाती है तो उसके लिए वो बेकार हो जाती है...कब्ज़ा बनाये रखने के लिए...कब्जे में न आना बहुत जरूरी है...

    वैसे लाइनें तो जबर्दस्त हैं...

    ReplyDelete
  10. सोचता हूँ कब मेरी आपसे शराब पी के बात हुई? नशे में बात हुई? आधी नींद में बात हुई? बेहोशी की हालत में बात हुई? dope लगा के बात हुई? गीता में हाथ रख के कसम खाने के बाद बात हुई?
    मेरे ख्याल से नहीं हुई. नहीं हुई ना? तो आपको ये सब... कैसे... और पता चल भी गया तो ब्लॉग में चेपने की ज़रूरत क्या थी. भई मेरी बदनामियों में आपका भी हाथ लगता है. ;)
    Beside Joke: आज कल कम से कम मेरी मनपसंद का तो लिख ही रहे हो.

    ReplyDelete
  11. अभी ये पोस्ट चढ गयी है..कुछ उल्टा सीधा नही बोलूगा.. बस - बहुत अच्छा भाई.. :)

    ReplyDelete
  12. चांद ऐसे निकला है जैसे आकाश ने टीका लगाकर फिर मिटा दिया हो

    वाह! वाह और भी तमाम बातों के लिये लेकिन अभी पीछे की पोस्टें पढ़नी हैं! टैम नहीं है सब बातें बताने का!

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ