Skip to main content

ज़िन्दगी... हमको भी हमारी खबर नहीं आती



बंद कमरे के घुप्प अँधेरे में भी बदन में तिल खोज देने जैसा परिचय था दोनों का. नयी-नयी शादी थी... तन समर्पित करने के दिन तो थे पर संसर्ग के दौरान ही मन भी समर्पित होने लगे.... देवेंद्र जब भी गर्म साँसें पत्नी के चेहरे पर छोड़ता तो सुनीता के इनकार के कांटे मुलायम हो जाते फिर दोनों चारागाह के मवेशी हो जाते. फाल्गुन के फाग जैसा नशा छाया रहता, उन्मत्त, उन दिनों बदन, बदन नहीं गोया एक खुलूस भरा तिलस्म हुआ करता जिसे सहला कर जिन्न पैदा करने की कोशिश ज़ारी रहती, जाने क्या-क्या तलाश की जाती... देवेन्द्र  तो बरसों का प्यासा था और उसने यह तलाश अब सुनीता को भी दे दी  ... और एक दूसरे में यह तलाश हर स्तर पर थी ... शारीरिक, आत्मिक, अध्यात्मिक और पारलौकिक

स्पर्श की अनुभति सर चढ कर बोल रही थी... देवेन्द्र को बलजोड़ी करने की आदत थी सो वो अपने सख्त हाथों से कलाई पकड़ कर पत्नी का हाथ मरोड़ता रहता, अपने आगोश में ले किसी अजगर के पाश सा जकड़ कर उसे तोड़ देने की कोशिश करता... इससे सुनीता के नाज़ुक और मरमरी हाथों में तब एक छुपा हुआ दर्द उभर आता... सुनीता को को खीझ आती पर पागलपन की इस दीवानगी में आखिरकार उसे देवेन्द्र के बाहों में ही उसे आना होता... पति को गुरुर था तुम्हें आना ही होगा का पत्नी उसे जिताकर उसका दर्प बरकरार रख रही थी...

...और थोड़े देर बाद दोनों वाइल्ड हो जाते.

एक ही घर में रहते हुए वो सारे कदम उठाये जा रहे थे जो हर पल  उत्सुकता, रोमांस और रोमांच को बढ़ावा दिए रहता... मसलन एक दूसरे को खत लिखना, लुक्का छिपी का खेल खेलना और वो भी जो टाइम्स ऑफ इंडिया के जुम्मे वाले दिन का परिशिष्ट व्हाटस् हॉट में होता है....

इतवार की शाम थी, एक भरपूर नींद ले दोनों उठे थे, सुनीता ने देवेन्द्र के माथे में तेल लगाया और फिर देवेन्द्र ने दीवार पर माथा टिका हद दर्जे की बेशर्मी भरी बातें की... सुनीता की गर्दन शर्म से झुक-झुक जाती... लिजलिजी होकर सुर्ख होती और आखिरकार अपनी गेशु, माथे, पलकें, आँखें. गर्दन और कंधे फिर उससे नीचे फिसलती देवेन्द्र की तेज, चुभती और फिसलती नज़र के सामने हार जाती और वापस उसके आगोश में ठिकाना पाती... उसे यह शर्त पहले की जगह ज्यादा माकूल लगता.

इन दिनों के आइना भी नयी दुल्हन के निखरते हुस्न पर एक कुटिल मुस्कान मुसकाता था. दुल्हन की मांग निखर आई थी... वहाँ भुरभुरे, नर्म, सूखे लाल मिटटी जैसा सिंदूर हुए चार चाँद लगाता था.

दो महीने बाद...

दानापुर छावनी, बिहार रेजिमेंट के इसी लांस नायक के द्रास सेक्टर में शहीद होने का तार जब घर आया तो खत के अक्षरों में दरार पड़ गए फिर वो फट गए...

तेरह दिन बाद...

आँखों के आंसू अब सुख चुके थे लगातार तेरह दिन रो लेने के बाद अब सिर्फ सिसकी भरी घुटन बचती थी. शायद ही कोई ऐसी ही विरल याद होगी जिसे याद कर वो ना रोई हो ... पर तलाश अभी जारी थी जिससे फिर आंसू गिर पड़े, जीने का अहसास हो, कम से कम यह तो पता चले की इस बुत में में जान है. ... कभी कभी उसे विश्वास करना बड़ा मुश्किल होता की देवेन्द्र सचमुच इस दुनिया में नहीं है... दीवारों पर लगे हुए एक लगभग गोल तेल के निशाँ देख लगता मानो देवेन्द्र अब भी बैठा उसे चिढा रहा है... उसे सोचते- सोचते सुनीता के कलाईयों में मीठा दर्द उभर आता...

कोप भवन बन चुके घर के कमरे में एक शाम जब सुनीता ने माचिस जलाई तो सबसे पहले जो चीज़ रोशन हुई वो उसकी मांग थी... वहाँ दोनों हाथों की हथेली भर उजाले का झाग फ़ैल चुका था ... एक लंबी पगडण्डी,  सूनी, अंतहीन, उदासी के स्याह अँधेरे में डूबी, बाहर झींगुर बोलते थे पर यहाँ हर आवाज़ घुट कर मर चुकी थी. .    

... शायद देवेन्द्र को भी यह पता था वो अधिक दिनों का मेहमान नहीं है संभवतः इसीलिए उसने प्रेम जैसी कोई चीज़ सुनीता के जीवन में नहीं छोड़ी थी... प्रेम तो बस सुनीता मान बैठी थी... वो बिगड़े घर का लड़का नहीं था पर यह कोई नहीं जानता था कि वो सुनीता के आने वाले जीवन से क्या चाहता था... उसने वल्गारिटी के सिवा पति जैसी कोई याद नहीं छोड़ी जो नज़र आती हो... इसके लिए वक्त भी नहीं था.

सुनीता उन संदेशों को पढ़ कर अब भी सिसकती है... कभी कभार वे पत्थरों जैसे अक्सर जिसे हम विधि का विधान कहते हैं अभी भी सुनीता के आंसू के बायस फट पड़ती हैं. 

Comments

  1. समय की कमी के कारण ठीक से नहीं पढ़ पाया , पर जैसा भी पढ़ा ,जो भी पढ़ा , उसके हिसाब से यही कहूँगा की आपके लेखन में परिपक्वता और लेखन का जो अनुभव है , वो अद्दभुत है , किसी बड़े साहित्यकार की तरह ,,,समय मिलने पर ....एक बार फिर पढूंगा ,,,,

    अथाह...



    dhnyvaad !!!

    ReplyDelete
  2. बहुत ही मैच्योर पोस्ट है.. रोलर कोस्टर की राईड की तरह जो बहुत ऊपर लेजाकर रोमांच भर देती है और फिर तेज गति के साथ नीचे उतरती है.. इस नीचे उतरने में भी रोमांच तो होता ही है पर एक भय भी सम्मिलित होता है.. बड़े दिनों बाद ये बंदा मूड में लगा..

    ReplyDelete
  3. अन्तरंग क्षणों की सम्मोहकता को ख़ूबसूरती से शब्दों में उतारते हुए पोस्ट एक बड़ी दुखदायी मुकाम पर समाप्त होती है...लेकिन पाठक सुनीता के लिए ज़रूर सोरी फील करता है देवेन्द्र के लिए नहीं... शायद इसलिए कि वह जितना भी जिया उसने खूब ज़िंदा पल समेटे और जिए ...

    ReplyDelete
  4. इतने प्यार भरे लम्हों के बाद जुदाई वो भी अंतहीन ..नहीं मन उसके बारे में सोचने को भी नहीं करता ..माना सच्चाई है पर ..

    ReplyDelete
  5. नीरा जी से सहमत ....
    गज़ब का लेखन .....

    ReplyDelete
  6. गहरापन जीवन का कभी समझ के परे हो जाता है।

    ReplyDelete
  7. ऐसा क्यों लिखते हो...सागर ???

    ReplyDelete
  8. तुम्हारी पोस्ट एकदम सरल होते हुये भी तुम्हारे शब्दों और कहने के अंदाज से लबोरेज़ होकर स्कॉच के जैसे भीतर उतरती जाती है और छोड जाती है अपने छुवन के निशान..

    ऊपर वाला इमोट मुक्ति के कमेन्ट के लिये था :)

    ReplyDelete
  9. पहला पैरा...
    भाई आप भी न...एक दम पता नहीं क्या क्या

    ReplyDelete
  10. ljwaab .....bahut gahre mein le gayi aur udas kar gayi yah post

    ReplyDelete
  11. बोलूँ...? कि लब आजाद हैं मेरे??

    अभी-अभी पढ़ा इस निपट वीरान दुपहरिया में। कथा का पूर्वार्ध विचित्र-सी सनसनी दे गया पूरे शरीर में। डेबोनेयर के एरोटिका पढ़े हुये बहुत दिन हो चुके थे... :-)

    उत्तरार्ध अचानक से झटका दे गया कि ये क्या।

    तुम्हारी सिचुयेशन को चित्रित करने की शैली लुभावनी है। वर्तनी की अशुद्धियां भ्रमित भी करती हैं। ...और हां लिंक भेज दिया करो। कई-कई दफ़ा आजकल ब्लौग नहीं खोल पाता।

    ऊपर हेडर चुभन देता है... "शौखे-दीदार" या फिर "शौके-दीदार" ???

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ