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लिखना...

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Comments

  1. डाक्टर्स वाली राइटिंग नहीं पढ़ी जा रही... :-)कोई मेडिसन शॉप वाले ही पढ़ सकते है.. :-)

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  2. कहाँ कोने में बैठ कर कलम घिसी है ..पर बढ़िया लिखा है

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  3. अमाँ मियाँ, तुम्हारी खुरापतें कब कम होंगी, दिन ब दिन बढती ही जा रही हैं...

    टाइप ही कर देते ....खैर, खुदा तुम्हें ख़ुश रक्खे

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  4. @ डिम्पल,

    पेज पर क्लिक कर उसे बड़ा कर के पढ़े, संभव जो कुछ बात और जोड़ें, लिखा हुआ पढ़ पाने लायक तो है ही.

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  5. Sagar...wapas poore form me aa gaye ho. kya kahun...badhai?

    sochne aur kalam se likhne me aisa kamaal ka talmel mere liye irshya ka vishay hai...bina kaate-peete ek baar mein aisa likhte ho.

    Gazab to khair likhte hi ho

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  6. बलिहारी जाऊं इस लाइन पर.."थकान से पहले लिखना और फिर इसके बाद लिखना; दोनों में फर्क है..और यह फर्क बुनियादी तौर पर है.."

    सागर भाई ...शायद आज आपने आत्म-परिचय दिया है. अद्भुत. मुझे साफगोई इतनी अच्छी लगती है ना कि उस पर व्याकरण का हर शिल्प न्योंछावर...!

    तो सागर भाई, लिखना मजबूरी है यार चाहे लिखा जाय..या नही..चाहे कुछ बन पड़े..या उधड़ जाए...है ना.!

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  7. प्रेजेंटेशन के लिए अलग से बधाई देना चाह रहा हूँ..! ले लो.!

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  8. बहुत अच्छा है... श्रीश की बात से सहमत.

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  9. ये अंदाज़ भी खूब रहा। मुझे भी कई सारे आइडिया दे गये तुम। लेकिन ये ज्यादती नहीं है अपने पाठकों के साथ...कि पहले उस पर क्लीक करके उसे पढो उर फिर वापस बैक बटन क्लीक कर वापस आओ कमेंट करने...? शैतान कहीं के...

    फिर भी पढ़ा, तुम्हारे लिखने का वायस समझा और इस चक्कर में खुद उलझ गया कि मैं क्यों लिखता हूँ। हाँ, तुम्हारी हस्तलिपि प्रभावित करती है।

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  10. भई अपनी समझ उतनी व्यापक तो ही..यह जरूर समझ आता है कि लिखने के बावत बड़ी अहम और गूढ़ बाते शेयर की गयी हैं..यह टॉपिक भी बड़ा दुर्गम लगता है..कितने बड़े-बड़े लोगों ने बड़ी-बड़ी बातें कहीं है पहले भी इसके बाबत..मगर फिर भी लिखने के मायने और उसका सबब सब समझ नही पाये..अपन भी उनमे से एक हैं..मगर अच्छा लगता है कि अपने साथ का कोई उन गूढ़ताओं को परत-दर-परत तराशता है..चाजें कुछ-कुछ समझ आने लगती हैं..लिखा मगर फिर भी कुछ नही जाता...बस वही जो आपने कहा..खुद को खो देना..फिर खुद पनाह पाना....और क्या!!

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  11. पढ़ कर तो भूल जाएगा ...दीवार पर सही रहेगा.... जब-जब अंगुलियाँ लिखना भूलने लगें उन्हे याद दिलाने को.. :-)

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व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

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