...और जंगल में नदी उतरती जा रही है। उफनती हुई, बड़ी गाढ़ी, मटमैली नदी। वेग से बहना, वेग में बहना, तेज़ हवा के साथ झूमती, पागल, उन्मत्त नदी। पहली नज़र में बरसाती नदी, भादो की नदी, अपने साथ छोटे झाड़ झंखाड़ तो क्या बड़े बड़े पेड़ों को को उखाड़ बहा ले जाने वाली नदी। सबको अपने साथ यूं बहाते लिए चल रही है कि किनारों पर बैठे लागों को बात करने का मौका मिलता है। बातों में अंदेशा है - बरगद होगा ? नहीं, अब इनती भी तेज़ हवा नहीं है कि बरगद जैसे मिट्टी से गूंथे जड़ वाले पेड़ को भी उखाड़ दे। पूरब से पागल हवाएं चल रही हैं। पेड़ों के कान पश्चिम की ओर मुड़ गए हैं। कान का कच्चा होना इसे ही कहते हैं। सभी एक साथ निंदा रस का आनंद ले रहे हैं। एक पूर्णिमा की सांझ समंदर किनारे रेत के घर का नक्शा बनाती है। गुलदाऊदी के फूल खिले हैं, बागों में। तमाम तरह की कई और फूल भी खिले हैं सभ्य से बर्बर फूल तक। हवाएं यूं चल रही हैं जैसे कान में शंख बजते हों और लड़की के बालों को लगातार तंग कर रही है। बाल बुरी तरह से उलझ गए हैं। अब कोशिश इतनी है कि वो आंखों के ठीक आगे न रहे या होंठ से न उलझे।
एक आवारा देखता है, कहता है। गुलाम अली के गज़ल से ज्यादा हवा के इफेक्ट में दिलचस्पी है।
खट-खट, खट-खट... !
जालीनुमा खिड़की के किनारे दीवार से बार-बार टकराती है। बंद करो खिड़की जी। कमरे का सन्नाटा तोड़ती है। बाहर बेहोश, उन्मादी हवाएं हैं। शीशे का फे्रम गिराएगी और तीन बरस बाद मेहनत के तैयार किया हुआ माहौल तोड़ेगी, वीसीआर के रखा वो लंबी चिठ्ठी, आले में रखा दीया अंधेरे के शून्य से फिर वापस आकर जीवित हो जाता है। हल्का अंधेरा कितना अच्छा है, बहुत उजाला अच्छा नहीं होता। आंखों को लत लग जाती है, दिल को आदत। लोगों की नज़रों में खटकती है। अपनी ताकत से खड़े रहना सामने वाले को प्रतिद्वंदी जैसा लगता है। आंखो से असहायता, मजबूरी झलकती रहनी चाहिए। लोग इसे पंसद करते हैं। अपने मुताबिक एहसान करने की संभावनाएं बनी रहनी चाहिए लेकिन बड़ों का काम तो छोटों को जगह देना है ! नहीं, एहसान करने के बाद उम्र भर एहसान मानना चाहिए। उसके अहं के तले दबे रहना चाहिए। अपनी हैसियत उसके पैरों की कनिष्का उंगली में समझनी चाहिए।
लड़की शोव्ल लपेटती है। थरथराती है। अनमयस्क सा मन बनाती है। कितना उजाड़ मौसम है। अपने कमरे का मौसम सबसे अच्छा है सदाबहार खूबसूरत उदासी। बाहर जो दुनिया हो रही है उसका क्या भरोसा ? आज तलवे में हरापन लगता है, घास पर रूके बारिश की बूंद चिपटती है, ओस को बड़ा कर के देख लूं तो उस बुलबुले पर अपना ही चेहरा नज़र आएगा और देखना भी तो अपनी ही आंखों से होगा। झाड़ पर खिले गुच्छे गुच्छे में पीले फूल खिले तो खिले लेकिन जो रूक्का उठाने ज़मीन पर बार बार लरज़ती है तो वज़ह ये कि आज दामन में फूल हैं। परिवर्तन संसार का नियम है! होगा। हमको इसी के प्यार है।
पृथ्वी घूमती है, नदी बहती है, नदी में नाव चलती है, एक पुरकशिश आवाज़ आती है, खेवनहार के कान चैंकते हैं! उंह ! यह तो रोज़ का गाना है।
कमबख्त तुमने भी तो लत लगा दी है..
ReplyDeleteमैंने लड़की को शॉल ओढ़ते हुए देखा.. ये एक लेखक की जीत है
सोचालय का ये "थोड़ा पर्सनल !" सा रूप बड़ा पसंद आया :)
ReplyDeleteवैसे इतनी ख़ूबसूरत पोस्ट का इतना उदास सा टाइटिल क्यूँ ? पर आज उदासी भी ख़ूबसूरत लगी... सीढ़ियों पर फूल लिये बैठी सोच में ग़ुम वो बच्ची भी और ग़ुलाम अली की ग़ज़ल भी...
आपकी लेखनी की भी तारीफ़ कर दूँ क्या ? अजी छोड़िए... वो तो बहुत लोग करेंगे और करते ही हैं रोज़ रोज़... खाम-खां "आंखों को लत लग जाती है, दिल को आदत" तारीफ़ सुनने और पढ़ने की :) फिर आप कहेंगे "उंह ! यह तो रोज़ का गाना है।":)
एक अजब सा प्रवाह है लेखन है, पैर टिके रहते हैं पर शेष सब बहने लगता है।
ReplyDeleteAapka lekhan padhte hue laga,jaise koyi kavita padh rahee hun!
ReplyDeleteपेड़ों के कान पश्चिम की ओर मुड़ गए हैं। कान का कच्चा होना इसे ही कहते हैं। सभी एक साथ निंदा रस का आनंद ले रहे हैं। :-)
ReplyDeleteAwesome !
बड़ों का काम तो छोटों को जगह देना है ! नहीं, एहसान करने के बाद उम्र भर एहसान मानना चाहिए। उसके अहं के तले दबे रहना चाहिए।
ReplyDeleteअभी भी अटकी हूँ इन्ही पंक्तियों में
"सच" थोक के भाव!
ReplyDeleteहल्का अंधेरा कितना अच्छा है, बहुत उजाला अच्छा नहीं होता। आंखों को लत लग जाती है, दिल को आदत। लोगों की नज़रों में खटकती है। अपनी ताकत से खड़े रहना सामने वाले को प्रतिद्वंदी जैसा लगता है। आंखो से असहायता, मजबूरी झलकती रहनी चाहिए। लोग इसे पंसद करते हैं। अपने मुताबिक एहसान करने की संभावनाएं बनी रहनी चाहिए लेकिन बड़ों का काम तो छोटों को जगह देना है ! नहीं, एहसान करने के बाद उम्र भर एहसान मानना चाहिए। उसके अहं के तले दबे रहना चाहिए। अपनी हैसियत उसके पैरों की कनिष्का उंगली में समझनी चाहिए।
बहुत दिनों बाद आपका लिखा पढना हुआ ...बेहतरीन .. आंखों को लत लग जाती है, दिल को आदत। लोगों की नज़रों में खटकती है। अपनी ताकत से खड़े रहना सामने वाले को प्रतिद्वंदी जैसा लगता है।
ReplyDeleteआंखो से असहायता, मजबूरी झलकती रहनी चाहिए। लोग इसे पंसद करते हैं।
ReplyDeleteसबसे ज्यादा ये लाइन पसंद आई