चाय के कप से भाप उठ रही है। एक गर्म गर्म तरल मिश्रण जो अभी अभी केतली से उतार कर इस कप में छानी गई है, यह एक प्रतीक्षा है, अकुलाहट है और मिलन भी। गले लगने से ठीक पहले की कसमसाहट। वे बातें जो कई गुनाहों को पीछे छोड़ कर भी हम कर जाते हैं। हमारे हस्ताक्षर हमेशा अस्पष्ट होते हैं जिन्हें हर कोई नहीं पढ़ सकता। जो इक्के दुक्के पढ़ सकते हैं वे जानते हैं कि हम उम्र और इस सामान्य जीवन से परे हैं। कई जगहों पर हम छूट गए हुए होते हैं। दरअसल हम कहीं कोई सामान नहीं भूलते, सामान की शक्ल में अपनी कुछ पहचान छोड़ आते हैं। इस रूप में हम न जाने कितनी बार और कहां कहां छूटते हैं। इन्हीं छूटी हुई चीज़ों के बारे में जब हम याद करते हैं तो हमें एक फीका सा बेस्वाद अफसोस हमें हर बार संघनित कर जाता है। तब हमें हमारी उम्र याद आती है। गांव का एक कमरे की याद आती है और हमारा रूप उसी कमरे की दीवार सा लगता है, जिस कमरे में बार बार चूल्हा जला है और दीवारों के माथे पर धुंए की हल्की काली परत फैल फैल कर और फैल गई है। कहीं कहीं एक सामान से दूसरे सामान के बीच मकड़ी का महीन महीन जाला भी दिखता है जो इसी ख्याल की तरह रह रह की हिलता हुआ...
I do not expect any level of decency from a brat like you..
padh lete agar dikh jata to
ReplyDeleteदिल भर आता है, कुछ कहना चाहती हूँ पर बात कहीं मन में डबडबा रही है, लहरों पर हिचकोले खाती नाव जैसी...
ReplyDeleteक्या लिखते हो, कैसे लिखते हो...
मुझे भी कल भरने की जल्दी नहीं, आज में डूबने की व्यग्रता है। यह भाषा बनी रहने दें, पीढ़ियों के काम आयेगी।
ReplyDeleteपहले फेसबुक, बज्ज़ और अब सोचालय पर भी... आपकी कलम है कि तलवार... क़त्ल-ए-आम मचा रखा है आजकल... ख़ुदा ख़ैर करे !!
ReplyDeletebahut sundar
ReplyDeletekis khwahish se ubarker kya kya soch liya ...
ReplyDeleteबात इन पंक्तियों से बहुत परे और गहरे होने का इशारा करती हैं.बहुत बढ़िया.अब इसे क्यों न यहाँ टाइप कर लिया जाए?
ReplyDeleteकौन कहता है यह एक खूबसूरत कविता नहीं है?
ReplyDelete